क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं ?
क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं ?


१५ अगस्त १९४७ : वो दिन जिसका इंतज़ार करोड़ों लोगों ने किया था, हजारों ख्वाहिशों को एक तरफ रखकर. और, ये आज़ादी की हवा में पहली साँस थी हमारी, जैसे एक नए भारत का जन्म, नयी उम्मीदों का जन्म। हमारे भाग्यविधाता बने ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष डॉक्टर बी.आर.आंबेडकर। यूँ तो लोग उन्हें "माइनॉरिटीज " का मसीहा कहते हैं, लेकिन उन्होंने और उनके जैसे न जाने कितने देश प्रेमियों ने इस नए भारत को अपना शिशु समझ गोद में बड़े प्यार से भर लिया और हमारे लिए संविधान का निर्माण किया। न जाने कितने पहलुओं से देश के समीकरण को समझकर क़ानून बनाये गए हमें बहुत सी स्वतंत्रता मिली, बातों में, व्यवहार में, आचार में, विचार में वो सब कुछ जो हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी था, सबकुछ दिया गया।
आज ७५ साल के बाद प्रश्न है कि क्या हम वास्तव में स्वतंत्र हैं ? और, ये स्वतंत्रता का प्रश्न हर जागरूक नागरिक कर रहा है। न्यायिक व्यवस्था की बात करें तो वो अपराधी को बचाने का ही कार्य कर रही होती है। १५ साल के बाद भी फैसला हो नहीं पाता। कहीं तारीखें बढ़ रही होती हैं, तो कहीं संवेदनाएं बिखर -सी जाती हैं।
जो सशक्त है, क्या सिर्फ वही स्वतंत्र है ? अभी ५ दिन पहले मैंने सुना कि एक लड़की सड़क पर माँ -बहिन की गाली दे रही थी। बाहर जा कर देखा तो कुछ लड़के उसे छेड़ रहे थे। मेरी कॉलोनी के सभ्य लोग घरों के दरवाज़े बंद करके बैठे थे। अब संस्कृति के लिहाज़ को समझूँ या उस लड़की की वेदना को ? और क्यों समाज उस लड़की के मुंह से निकलने वाली उन गन्दी गालियों के कारण उसको गलत समझ रहा था ? क्रोध में उस लड़की ने गाली तो दी, लेकिन कुछ क्षण बाद उसकी आँखों में आँसूं थे। मैंने उसे पीने के लिए पानी दिया। उधर से माँ कह रही थीं कि बाहर क्या कर रही हो इस वक्त ? और, बस ५ सेकंड ही दे पायी मैं उसको। मेरी माँ को डर था कि कहीं वो असामाजिक तत्व मुझे परेशान न करें। तो क्या मैं वो कर सकी जो मुझे करना था ? क्या मेरे विचारों में आज़ादी थी, यकीनन नहीं। एक डर था, और डर तो ग़ुलामी को जन्म देता है। क्या वो लड़की आज़ाद थी ? नहीं, क्यूंकि वो सड़क पर खुद के अस्तित्व को बचा सकने में असमर्थ थी। तब क्या मोहल्ले के वो लोग आज़ाद हैं, जो बाहर भी नहीं आये। वो तो सबसे ज़्यादा डरे हुए हैं, ज़ंजीरों में कैद। तब क्या वो लड़के आज़ाद हैं, जो उस लड़की की अस्मिता को छीनना चाहते थे ?क्या जवाब आया दिल में? ....बताइये। वो आज़ाद नहीं है, वो तो हमारे देश के नागरिक कहलाने के लायक भी नहीं हैं। वो तो उन फिरंगियों जैसे हैं, जिन्होंने हमें परतंत्रता के बंधनों में जकड़ कर रखा था। व्यापक तौर पर देखें तो ऐसे लोगो की नागरिकता समाप्त कर दी जानी चाहिए। लेकिन १२५ करोड़ कीआबादी वाले मेरे देश में ये कहाँ संभव है ? क्यूंकि वो लड़की छेड़ने वाले बन्दे भी किसी की औलाद हैं.और, सच कहूँ तो हमारे देश के क़ानून की वो देवी जिसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी गयी है, उसकी आँखों में आंसूं हैं, वो हर पक्ष को समझकर न्याय - विधान देती है, असमर्थ और मजबूर है वो। कभी ६ महीने का कारावास तो कभी ३००० रुपये का जुरमाना, इससे ज़्यादा उसका दिल नहीं मानता। सब ही तो बच्चे हैं देश के , किसी को भुला देना तर्कसंगत नहीं लगता।
तब क्या हम वास्तव में आज़ाद हैं ? आज़ादी को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका , कार्यपालिका और सांसद की होती है जिस दिन इस बात को अपने घर तक हर शख्स लेकर आएगा, उस दिन हम वास्तव में आज़ाद होंगे।
कहने का तात्पर्य है कि अपने घर के न्याय, कार्य और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी तो हमारी है, सशक्तिकरण वहीँ से होगा, हर बार आश्रित होकर हम परेशानी बढ़ा देते हैं। वो आत्मनिर्भरता लानी होगी, जहाँ अपने बिगड़े हुए लोगों को हमे खुद संभालना होगा, तब हम आज़ादी को व्यावहारिक तौर पर समझ सकेंगे। जहाँ कहीं भी ऐसा समन्वय है, वहां लोग आज़ाद हैं।
आज़ाद हूँ मैं, आज़ाद हूँ मैं
ये कैसी चीख थी !
दम्भ की, स्वयं की, अभिमान की।
आओ ! इसे मिलकर जी लें
आज़ादी के मतलब को हम सभी साथ में जी लें।