कुमाता भाग ९
कुमाता भाग ९


कैकेयी का विवाह हो जाने के बाद भी कुछ दिनों तक महारानी सुमित्रा कैकय देश के राजमहल में रुकी रहीं। वैसे उन दिनों बारात अनेकों दिनों तक रुका करती थी। पर महाराज दशरथ की बारात में भला कौन था। मात्र महारानी सुमित्रा और अवध के कुछ सैनिक। खुद वर के स्थान पर वर की कटार ने अग्नि के सात फैरे लिये थे। ऐसी स्थिति में विवाहोपरांत भी महारानी सुमित्रा का कैकय देश में रुकने के पीछे खास उद्देश्य था।
बचपन से मात्र विहीन कैकेयी अभी पूरी तरह जानती न थी कि विवाह के बाद उसे ससुराल में किस तरह रहना है। इन बातों की शिक्षा कन्या को अक्सर उसकी माता ही देती हैं। नारी धर्म का पाठ पढाती हैं।
फिर कैकेयी अब अवध की रानी है। उसका प्रत्येक आचरण अवध की प्रजा पर प्रभाव छोड़ेगा।
वैसे इन बातों को धीरे धीरे भी समझाया जा सकता है। पर समझाने बाले को बड़ा होना पड़ता है। बड़ा शव्द केवल आयु में बड़ा होना नहीं है। पद में बड़ा होना भी अति आवश्यक है। अपने वचन के अनुसार अब अवध राज्य में महारानी सुमित्रा का स्थान कैकेयी से कम ही रहेगा। जरूरी है कि जो भी बताया जाये, यहीं बता दिया जाये।
कुछ ही दिनों में कैकेयी सब समझ गयी। उसने अपने रहन सहन में पूर्ण बदलाव कर दिया। लगता ही नहीं कि पहले बाली कैकेयी और वर्तमान कैकेयी में कुछ साम्य है। पर शायद ऐसा नहीं था। केवल पहनावा किसी के चरित्र का निर्माण नहीं कर सकता। पहनावा तो मात्र शरीर ढकने का माध्यम है। विवाह से पूर्व प्रायः पुरुषों जैसे वस्त्र पहनने बाली कैकेयी भी मन से दया और त्याग की मूर्ति थी। जिसको सही से जान न पाने का उल्हाना भी महारानी सुमित्रा ने महाराज अश्वपति को दिया था। विवाह के बाद एक भारतीय नारी की भांति पति भक्ता दिखती कैकेयी भी खुद से निर्णय लेने में व अपने निर्णय पर टिके रहने में सक्षम थी। बदला कुछ भी नहीं था। मात्र परिधान बदले थे। अंतर्गुणों को कितने लोग समझ पाते हैं।खासकर स्त्रियों के अंतर्गुणों को मनुष्य उनके परिधानों से ही जोड़ते हैं।
जिस समय जबकि महारानी सुमित्रा ऐसी अवध की रानी को तैयार कर रही थीं जिसपर पूरी अवध की प्रजा का विश्वास हो, जिसके चयन पर कोई कुछ कह न सके, उसी समय तैयारी हो रही थी, एक ऐसे कुचक्र की जो अवध के इतिहास में स्वार्थ की नींव रख सके। जो कुछ ऐसा कर सके जो कभी भी रघुवंशियों में न हुआ हो। कन्या की खुशी के बहाने ऐसा कुचक्र रचा जा रहा था जो अवध को पूरी तरह अनाथ कर दे। सत्य ही कहा गया है कि विवाह के समय केवल कन्या के गुणों को ही नहीं देखना चाहिये। कन्या के माता पिता के विचारों को भी सही तरह से जान लेना चाहिये।
मंथरा जो बचपन से ही कैकय राज परिवार की दासी थी, जिसका इतिहास क्या था, किसी को नहीं मालूम, जो शायद खुद एक दुखद कहानी की पात्रा थी, जिसने कभी भी अपने कर्तव्यों से मुंह नहीं मोड़ा, कुचक्रों की शतरंज पर उसी को मोहरा बनाया जा रहा था। उसे अहसास दिलाया जा रहा था कि उनका वर्तमान सुखद जीवन केवल और केवल कैकय राज के अहसानों की देन है।
मंथरा जो एक दासी थी, पढी लिखी भी न थी, पर इतना तो जानती थी कि वह कभी भी किसी अहसान में नहीं रही है। उसका जीवन भला किस तरह सुखद है। मनुष्य होकर भी वह पशुओं के समान ही तो है। ठीक है कि उसे अच्छा खाने को मिला, अच्छा पहनने को दिया गया। फिर भी क्या वह सुखी है। नहीं। जिस स्वतंत्रता को सुख की पहली सीढी माना जाता है, वह तो उसके भाग्य में नहीं। वह तो मात्र एक दासी है। उसे किसी को भी उपहार में दिया जा सकता है। वस्तुओं की तरह खरीदा और बेचा जा सकता है।
स्वतंत्रता की आस तो मन में ही मर गयी। वैसे भी पुरुष प्रधान समाज में स्वतंत्र होने पर भी नारी को क्या सम्मान। नारी को तो शायद कोई भी सम्मान नहीं। चाहे वह दासी हो या महारानी।
याद आ रहा था वह दिन, जब उसकी स्वामिनी, केकय देश की महारानी, निर्दोष होते हुए भी दोषी ठहराई गयीं। परित्यक्ता हुई अब कहाॅ जीवन काट रही हैं, कुछ भी नहीं पता।
कैकेयी को शक्ति संपन्न बनने की शिक्षा दी तो मंथरा ने। साथ ही साथ कैकेयी को दयालुता की शिक्षा भी दी तो निश्चित ही मंथरा ने। आज उसे आदेश दिया जा रहा है कि वह कैकेयी के साथ उसकी ससुराल जाये। उसे समय समय पर स्वार्थ की शिक्षा देती रहे। उसे अपना पराया बताती रहे। उसे समय समय पर भड़काती रहे। कभी न कभी तो कैकेयी खुद के बारे में सोचेंगी।
एक बार पका हुआ घड़ा फिर चाक पर नहीं चढता है। कैकेयी कभी भी खुद के बारे में नहीं सोचेगी। कैकेयी कभी भी किसी के भड़काने से नहीं भड़केगी। कैकेयी कभी भी त्याग करने में पीछे नहीं हटेगी। यह जानते हुए भी मंथरा तैयार हो गयी उस कुचक्र का हिस्सा बनने के लिये।
यदि यह सत्य है कि सभी रंगमंच के अभिनेता हैं, सभी अपना किरदार निभा रहे हैं तो एक अभिनेता का यही कर्तव्य है कि वह अपना किरदार ठीक से निभाये। हर किरदार इतिहास बनाता है। ऐसे ही इतिहास बनाने के लिये तैयार हो रही थी मंथरा। वैसे भी विरोध करना उसके वश में न था। तथा जिस कैकेयी को अपनी ही बेटी की तरह पाला था, उसका विरह सहन करना भी उसके वश में न था। तथा एक बार वचन देकर उस वचन से पीछे हट जाना भी उसके वश में न था।
क्रमशः अगले भाग में