कुमाता भाग ५-आखेट
कुमाता भाग ५-आखेट


कैकय देश के गांवों से सूचना आयी कि वन से कुछ वृद्ध और घायल सिंह गांवों की सीमा तक आ गये हैं। भले ही सिंह वृद्ध हों, घायल हों फिर भी मनुष्यों के लिये दुर्जेय ही होते हैं। जंगली पशुओं के शिकार में अक्सर असफल वनों के भीतरी भागों से बाहर आ जाते हैं। बनों के नजदीक के गांवों के पालतू पशु इनके आसान आहार बन जाते है। अनेकों बार तो ये मनुष्यों का भी शिकार करने लगते हैं।
माना जाता है कि ऐसे वृद्ध, और लाचार हिंसक पशुओं का शिकार कर देश की जनता को उनसे बचाना राजा का धर्म है। वैसे भी आखेट से न केवल क्षत्रिय राजकुमारों का शस्त्राभ्यास होता था अपितु हिंसक पशुओं की संख्या भी नियंत्रण में रहती थी।
वैसे यह सिद्धांत उन दिनों के थे जबकि वनों की बहुलता थी। सिंह, व्याघ्र जैसे हिंसक पशु प्रचुरता में थे। अनेकों बार उनकी जनसंख्या अच्छी खासी बढ जाती थी। फिर क्षत्रियों के आखेट से उनकी संख्या नियंत्रण में रखी जाती थी।
राजकुमारी कैकेयी के लिये ऐसी स्थिति एक नवीन क्रीडा को उपलब्ध कराती थी। हालांकि वह तो गहन वनों में भी आखेट खेलने को उत्सुक रहती पर महाराज अश्वपति अक्सर उसे ऐसा न करने देते। अनेकों बार पिता और पुत्री में विवाद भी हो जाता था। कैकेयी खुद को लड़कों से कमतर मानने को तैयार न होती। वैसे कैकेयी लड़कों से कमतर थी भी नहीं। फिर भी कन्या प्रेम में महाराज अश्वपति अक्सर उसे लड़कों से कम शक्तिशाली मान लेते। लड़कियां कितनी भी सामर्थवान बन जायें पर पिता से बहुत अधिक प्रतिवाद नहीं करती हैं। अनेकों बार चुप रह जाती हैं।
पर जब गांवों के नजदीक ही आखेट की बात आयी तो कैकेयी ने ऐलान कर दिया कि इस बार केवल वही आखेट करेगी। भाइयों के मदद के बिना भी वह सिंहों का आखेट करेगी।
अश्व पर सवार होकर राजकुमारी कैकेयी कुछ चुनिंदा सैनिकों के साथ निकल ली। आज उसे सिद्ध करना था कि वह किसी भी तरह अपने भाइयों से कम नहीं है।
खेतों में बड़ी बड़ी फसल खड़ी थी। ऐसे ही खेत उन हिंसक पशुओं का आश्रय थे। दिन भर खेतो में छिपे रहते तथा रात्रि के समय बाहर निकलकर गांव बालों के पशुओं को मार देते। कुछ मनुष्यों को भी उन्होंने अपना शिकार बना लिया था।
हालांकि वनों में सिंहों की आपस में प्रतिस्पर्धा रहती है। पर ये सभी मजबूरी के मारे असहाय थे। शायद परिस्थितियों ने ही इन्हें मिला दिया। एकता की शक्ति ये पशु भी समझ गये।
जितना आसान समझा था, उससे बहुत कठिन परिस्थितियां सामने थीं। एक तो किसानों की फसल खराब होने की पूर्ण संभावना थी। दूसरा यह अंदाजा लगाना भी आसान न था कि सिंह किस तरफ से हमला कर दें।
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एक आलीशान रथ पर एक पुरुष और एक महिला आ रहे थे। सारथी रथ चला रहा था। साथ में कुछ सशस्त्र घुड़सवार थे। कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि इस रथ पर भारत वर्ष के चक्रवर्ती सम्राट अवध नरेश महाराज दशरथ अपनी छोटी रानी काशीराज की प्रिय पुत्री सुमित्रा के साथ हैं। सुमित्रा अपने मायके से वापस अवध जा रही थीं। परम प्रतापी महाराज दशरथ को भला सेना की क्या आवश्यकता। वह तो अकेले ही खुद एक सेना थे। किसी का भी साहस उन्हें ललकारने का न था।
वनों और गांवों से होता हुआ रथ गुजर रहा था। सुमित्रा बार बार अपने पति के मुख की तरफ देखती और फिर लज्जा वश अपना सर झुका देतीं।
सुमित्रा और दशरथ के मिलन की एक अनूठी कहानी है। राज परिवारों में अक्सर विवाह संबंधों के पीछे राजनीति भी प्रमुख कारण रहती थी। महाराज दशरथ के पिता महाराज अज भी इन बातों से पूर्णतः मुक्त न थे। पर युवराज दशरथ तो एक प्रेम में दुनिया भुला देने बाले प्रेमी बन गये। उन्हें प्रेम हुआ तो एक बहुत छोटे से राज्य की राजकुमारी कौशल्या से। कौशल्या के पिता राजा सुकौशल की हैसियत शायद अवध राज अज की तुलना में कुछ भी न थी।
दशरथ और कौशल्या के मिलन की प्रेम कहानी पूरी फिल्मी कहानी थी। उसमें ऊंच नीच भी थी। एक प्रेमी का समर्पण भी, प्रेमिका का इंतजार भी, रूठना और मनाना भी, नायक और नायिका के मध्य एक रहस्यमई खलनायक का आगमन भी। बहुत मुश्किलों के बाद जब विवाह होने भी जा रहा था तब पता चला कि राजकुमारी कौशल्या ही गायब हैं।
राजकुमारी को दशरथ ने कहाॅ कहाॅ नहीं तलाशा। अंत में उन्हें एक तिलस्मी कैद से आजाद किया। फिर राजकुमार दशरथ और राजकुमारी कौशल्या का मिलन हुआ।
ज्ञात हुआ कि दशरथ और कौशल्या का पुत्र राक्षसों का वध करने बाला होगा। इसलिये राक्षसों के राजा रावण का यह उपक्रम था।
सुमित्रा और दशरथ का मिलन महारानी कौशल्या के प्रेम का परिणाम था। प्रेम जो केवल और केवल त्याग ही जानता है। कहाॅ कौशल्या के भावी पुत्र के कारण उनका दैत्य राज ने अपहरण कराया था। पर विवाह के अनेकों वर्षों बाद कौशल्या की गोद सूनी रह गयी। फिर कौशल्या ने खुद ही एक फैसला लिया। वह तलाशने लगीं ऐसी कन्या को जिससे वह अपना प्रेम बांट सकें। महारानी कौशल्या की तलाश थीं काशीराज की कन्या। इस तरह सुमित्रा महाराज दशरथ की कटार के सात फेरे लेकर अवध राजमहल में अपनी सौत से ज्यादा बड़ी बहन कौशल्या के साथ आ गयी। महारानी कौशल्या ने अपने प्रेम को सिद्ध किया। फिर भी अभी तक अवध का राजमहल बच्चों की किलकारी के इंतजार में था। पता नहीं ईश्वर इतना इंतजार क्यों करा रहे थे।
कैकय देश के गांव के नजदीक गुजरते हुए अजीब घटना देखी। एक कन्या जो पुरुषों के समान परिधान पहने थी, अकेले ही एक खेत में घुसी। खेत के मध्य से सिंहों की गर्जना की आवाज। लगा कि वह कन्या शायद ही बाहर आये। महाराज रुक न सके। खुद ही तलवार लेकर उस खेत में घुस गये।
उनका अनुमान गलत था। भीतर उस अकेली कन्या ने दो सिंहों को धराशायी कर दिया था। कुछ सिंह अभी भी उससे मुकाबला कर रहे थे। शायद किसी सिंह ने उसे पंजा मारकर घायल भी कर दिया था। रक्त की बूंदें शरीर से गिर रही थीं। फिर भी कन्या के चेहरे पर कोई डर या दर्द की अनुभूति नहीं।
महाराज दशरथ जो खुद पूरी सेना के समक्ष थे, के सामने फिर शेष सिंहों की न चली। सभी सिंहों का अंत कर दोनों बाहर आ गये।
" कौन हो तुम। इतनी साहसी कन्या को आज तक नहीं देखा।"
" मैं कैकय देश की राजकुमारी कैकेयी। पर आप कौन हैं। हमारे देश के तो लगते नहीं हैं।"
" मैं... ।" अचानक महाराज दशरथ रुक गये। अभी वह समझ नहीं पा रहे थे कि आज उन्हें क्या हो रहा है। कुछ ऐसी ही अवस्था उस समय थी जबकि उन्हें कौशल्या से प्रेम हुआ था। पर अब इस तरह के विचार। नहीं। यह तो ठीक नहीं हैं।
सुमित्रा देख रही थीं अपने पति में उपजे प्रेम को। एक कन्या की आंखों को। यह प्रेम ही तो है। मन कुछ विचलित हुआ। अगले ही पल सचेत हो गयीं। बड़ी रानी कौशल्या के त्याग को याद करने लगीं। सचमुच अपने पति का हित चाहना ही तो पत्नी का कर्तव्य है।
" ये हैं भारत के चक्रवर्ती महाराज दशरथ। और मैं इनकी भार्या सुमित्रा हूं।"
महाराज का परिचय स्वयं महारानी सुमित्रा ने दिया। कुछ क्षण आराम कर महाराज दशरथ चल दिये। पर आज वह अपना दिल कैकय देश में भी छोड़ आये थे। शायद कैकय देश की राजकुमारी का दिल अब उनके सीने में धड़क रहा था। और साथ में थी महारानी सुमित्रा, उस मार्ग पर चलने की तैयारी में जिस पर कभी महारानी कौशल्या चली थीं।
क्रमशः अगले भाग में