कुछ तो मजबूरियाँ रहीं होंगी
कुछ तो मजबूरियाँ रहीं होंगी
अलसाई सी सुबह सूरज की रोशनी रोशनदान से छनकर शिरीष के मुंह पर पड़ने लगी थी। शिरीष उनींदा सा उठा और अॉफिस जाने की तैयारी में लग गया।
छ: महीने से शिरीष के मन की उमंग कहीं खो चुकी थी। रोज अॉफिस जाना और लौट कर आना बस यही जीवन अपना लिया था। बुझे मन से सारा काम करता रहता।
आज से एक डेढ़ साल पहले की ही तो बात है टेली कम्युनिकेशन कंपनी में कस्टमर अॉफीसर के पद पर तैनात शिरीष अॉफिस में अपने केबिन में बैठा हुआ था, जब पहली बार सुजाता से मुलाकात हुई थी।
सादगी भरा व्यक्तित्व, शहद सी आवाज और सधी हुई बातें शिरीष अपलक देखता रह गया था।
हांलाकि साधारण नैन नक्श की सुजाता बहुत खूबसूरत तो नहीं थी पर आम लड़कियों से अलग थी।
एक अजीब सा खिंचाव महसूस कर रहा था शिरीष ।
अपने काम से आई थी सुजाता। इसी सिलसिले में कुछ और बार आना पड़ा और शिरीष का दिल कंट्रोल से बाहर हो गया इन चंद मुलाकातों में।
आखिर जिस दिन सुजाता का काम फाइनल होने को था शिरीष ने गंभीरता से सुजाता के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया। दोस्त नहीं वो तो सुजाता को जीवन संगिनी बनाना चाहता था। अपने हर लम्हे का हमराह बनाना चाहता था।
सुजाता को भी बिना लाग लपेट कही गई शिरीष की बात मन छू गई। अच्छी कद काठी का, सभ्य नौकरी पेशा नौजवान। आकर्षित तो सुजाता भी थी कहीं न कहीं ।
उसने भी मुस्कुराकर उसके प्रस्ताव को मौन स्वीकृति दे दी।
फिर तो मुलाकातों के सिलसिले चल निकले। कभी लम्बी फोन कॉल, कभी रेस्तरां ।
शिरीष -सुजाता को पंख उग आए थे। खुशियों के आसमान में उन्मुक्त उड़ते दोनों प्रेम पंक्षी दुनियादारी से बेखबर थे।
एक सुरमई सी शाम दोनों कसमें वादे दोहरा रहे थे पार्क में बैठे - बैठे। सुजाता ने शिरीष के हाथ को थामते हुए कहा ,शिरीष.. पापा का शायद ट्रांसफर हो जाएगा अगले महीने तक, देखो कौन सा शहर मिले। मैं उससे पहले ही तुमको उनसे मिला दुंगी।
शिरीष ने चहकते हुए कहा," फिर हमारी शादी हो जाएगी सुजाता "।
सुजाता ने खुशी से आंखे बंद करके सिर शिरीष के कंधे पर टिका लिया।
बस वही आखिरी बातें थी उन दोनों के बीच और वही आखिरी मुलाकात ।
घर लौट शिरीष ने सुजाता को सैंकड़ों बार फोन किया पर फोन नहीं लगा।
शिरीष ने कई दिन इंतज़ार किया पर समझ न आया। काफी बार पार्क, रेस्टोरेंट भी उसी नियत समय पहुँचा जब सुजाता अक्सर आती थी।
पर निराशा ही हाथ लगती।
इस तरह घर जाना भी ठीक नहीं लग रहा था क्योंकि पहले कभी गया नहीं था।
पर कोई और रास्ता नहीं था इसलिए सारी कोशिश बेकार होने पर उसने सुजाता के घर जाने का मन बना लिया। मन में अजीब अजीब सी बातें आ रही थीं ।
पर जब शिरीष दिए गए पते पर पहुंचा तो घर के दरवाजे पर ताला पड़ा हुआ था। पड़ोस में पूछने पर बताया गया कि सुजाता के पापा का किसी शहर में ट्रांसफर हो गया था तो वो लोग सपरिवार वहीं चले गए हैं।
किस शहर में ये उस पड़ोसी को भी याद नहीं था।
शिरीष का दिल हजारों फीट गहरे उदासी के गर्त मे उतर गया।
रह रहकर एक ही बात दिल में आ रही थी कि सुजाता ने ऐसा क्यों किया?
आखिर मुझसे कोई गलती हुई या उसकी कोई मजबूरी थी लेकिन जो भी था किसी भी तरह बताना तो था न ।
क्या हुआ उन प्रेम के कसमों वादों का।
ओह तो क्या मेरी सुजाता भी औरों की तरह छिछली निकली, मन मानने को तैयार न था।
तब से बस सारे रंग हवा हो गए शिरीष की जिंदगी से।
रात में सुजाता को याद करते करते सो जाता और सुबह से शाम उसके निशान ढूंढता फिरता।
मुहब्बत इतनी शिद्दत की थी न नफ़रत कर पा रहा था न भुला पा रहा था।
अनजान नंबर से फोन आने पर शिरीष उम्मीदों से फोन उठाता था।
पर जाने क्या हुआ क्यों हुआ.... सवाल अपने जबाव पाने की बैचेनी में ही रह जाते थे।
युंही दिन महीने गुजरते गए। सब वहीं की वहीं था पर शिरीष का सुकून छिन चुका था।
एक दिन शिरीष दोस्त की शादी में शामिल होने दूसरे शहर गया। बेमन से, दोस्त के बहुत कहने पर। लेकिन मन वहाँ समारोह में भी नहीं लग रहा था। सड़क पर टहलने चला आया। अनेकों तरह के नजारे भी उसका ध्यान नहीं खींच पा रहे थे।
अचानक शिरीष की आंखों ने कुछ ऐसा देखा कि वो वहीं ठिठक कर रुक गया। मानों जैसे कोई सपना देखा हो जागती आंखों से।
ज्वैलरी शोरूम के और नजदीक जाकर देखा। सुजाता ही थी वो।
शोरूम में बैठी मंगलसूत्र का डिजाइन देखती। साथ में कोई पुरुष भी था।
शिरीष का गला रुंधने लगा। दिमाग और दिल बैठने लगे।
"ओह ! तो सुजाता ने शादी कर ली ..एक बार तो कहा होता ..ऐसी क्या मजबूरी थी"
जल्दी से पलटकर लौटने लगा शिरीष। बीते पलों की रील दिमाग में घूम रही थी। जिस सुजाता को एक झलक देखने को तरस गया था उसी से आज मुंह फेरकर जाना पड़ रहा था।
अचानक दिल ने फिर मजबूर किया कदम पलट गए। सोचा सुजाता से दो बात तो कर लूं। देखूं कैसे सामना करती है।
अब चौंकने की बारी सुजाता की थी।
यूँ इतने समय बाद अपनी मुहब्बत को सामने देखकर सुजाता की आंखे भर आईं, गुनहगार तो वो थी ही कहीं न कहीं।
"हलो सुजाता! कैसी हो तुम?"शिरीष ने कहा।
"बस ठीक हूँ" सुजाता ने नजरें चुराकर कहा।
फिर शिरीष को अपने साथ खड़े व्यक्ति की तरफ देखते पाकर जल्दी से बोली
"ये भैया हैं मेरे, इनकी शादी के लिए खरीददारी करने आई थी।"
"ओह! तो ये इसका पति नहीं" शिरीष ने कुछ रिलेक्स होते हुए मन में कहा ।
सुजाता के भाई तब तक बिल जमाकर के आए और चलने का इशारा किया।
सुजाता बिना कुछ कहे सुने वहाँ से चलने को उठ खड़ी हुई।
और इस बार जो शिरीष ने देखा तो मानो उसका खून जम गया।
सुजाता अपने दोनों पैर किसी हादसे में खो चुकी थी।
"ओह तो मेरी सुजाता ने इसलिये मुझसे खुद को दूर कर लिया, पागल इतना भी नहीं जानती कि मैने इसके शरीर से नहीं बल्कि आत्मा से प्यार किया है"।
सुधबुध खोया शिरीष सुजाता को बैसाखी के सहारे जाता देख रहा था, एक आदमी से टकराकर निकलने से होश मे आया और सुजाता के पीछे भागा।
अगले ही पल शिरीष सुजाता का हाथ थामकर खड़ा उसे कह रहा था,
"सुजाता! इतना कमजोर नहीं था हमारा प्यार, मैने तुमसे दैहिक नहीं आत्मिक प्रेम किया है ..मैं तुम्हारे बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता।
लौट आओ सुजाता ..अपने सपनों में रंग भरने हैं हमें "सुजाता के भाई जो अवाक खड़े देख रहे थे सब समझ गए। अविरल आंसू बहाती सुजाता के सिर पर हाथ फिराकर बोले "इससे अच्छा जीवनसाथी हम तुम्हारे लिए नहीं ढूँढ सकते थे, मैं अपनी शादी से पहले अपनी बहन के हाथ पीले करुंगा" और शिरीष को गले लगा लिया।
प्रेम की उन्मुक्त तितलियां फिर से खुले आसमान में उड़ने लगी थीं।