रूढ़ियों से आगे।
रूढ़ियों से आगे।
"कहाँ ले जा रही हो बहू को निम्मी काकी?"
जल्दी-जल्दी कदम रखती काकी के कदम पड़ोसन बिदिंया की आवाज़ सुनकर ठिठक गये।
"अरे वो सामने मैदान में डेरा लगाए हुए हैं न बाबाजी, बड़े पहुँचे हुए सिद्ध पुरुष हैं। बस वहीं ले जा रही दुल्हन को।" काकी ने बिदिंया को उत्साहित होते हुए बताया।
"अरे, मगर बहू को क्यों बाबाओं के चक्कर कटवा रही हो काकी? अभी मुश्किल से छ:-सात महीने गुजरे हैं बेचारी को ब्याह कर इस घर आए।" बिंदिया ने घूँघट में सकुचाती काकी की बहू को बिचारगी से देखते हुए कहा।
"सात महीने हुए पर कोई खुशखबरी की राह नहीं दिखती बिंदिया, जाने कब नन्ही किलकारी मेरे आँगन में ग
ूँजेगी। अब तो इन बाबाजी से ही आस है।" काकी गहरी साँस भरते हुए बोलीं।
बिंदिया ने काकी से व्यंग्य भरे स्वर में कहा, "काकी, सुरेश की ये दूसरी दुल्हन है, पहली वाली भी बच्चे न होने की वजह छोड़ दी सुरेश ने, लेकिन सुना है उसने दूसरी शादी कर ली थी और आज उसकी गोद में दो महीने का बच्चा है।"
काकी दम साधे सुन रही थी।
बिंदिया ने आगे बात जोड़ी," बाबाओं के चक्कर काटने की जगह कभी अपने बेटे का डाक्टरी मुआयना भी करा लो काकी, इन बाबाओं के पाखंड में पड़कर पछताओगी वरना।"
बिंदिया कहकर आगे बढ़ गयी और किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी दादी कुछ विचारते हुए अपनी बहू को लेकर घर की ओर लौट गयी।