अनकहा इश्क़
अनकहा इश्क़
वो दोनों अहसास के बंधन में इस कदर बंधे थे कि कुछ कहा सुना भी नहीं था और दिल की डोरी भी जुड़ गयी थी। हक भी जताते थे बोलते भी कुछ नहीं थे। मुतमईन से थे दिल ही दिल।
एक रोज उसने बताया कि लड़के वाले आए थे रिश्ते के लिए, वो बैचेनियां छिपा कर पूछ बैठा कि, 'तुमने क्या कहा ?' उसने जवाब दिया, 'मैं क्या कहती, जो अब्बू कहें वही तय होगा। कहते वक़्त बड़ी उम्मीद से देख रही थी वो उसकी आंखों में और वो उसके चेहरे पर कुछ तफ्सील कर रहा था।
दिल बिखर गया, अरमान दरक उठे, क्या कहता कुछ कहा सुना भी नहीं था। घर आकर नोट्स खोलकर देखते वक़्त आखरी पन्ने पर एक दिल में दोनों के नाम लिखे हुए थे, जाने कब लिख गयी वो । वो लिखती रहती है पिछले पन्नों पर कुछ न कुछ अक्सर ही।
बिखरे अरमान सिमट गये, इरादा पक्का हो गया, दिल में उकेरे गये नामों ने मोहर लगा दी।
अगली शाम वो अपने वालिद के साथ उसके घर रिश्ता लेकर गया।
रिश्ता मंजूर हो गया और अनकहा इश्क़ मुकम्मल ।