कुछ भोले लोग

कुछ भोले लोग

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एक तरफ बैसाखी और एक हाथ में खानदानी बकसा झुलाता रघुवीर अपनी बेटी से मिलने हर बार की तरह इस साल भी पैदल ही निकल चुका था। 

वैसे तो दोनो किनारों की दूरी बीस कोस थी परंतु कहाँ उसको इस बात की खबर थी, उसको तो बस अपनी प्यास मिटानी थी। 

सड़क के दोनो तरफ की क्यारियों में सरकार ने बस नाम के पड़ लगा रखे थे। हर कोई आता है और सूखे फूलों पर अपनी करुणा बरसाकर चलता बनता है। 

लोग कहते हैं मालिक आए थे अगली बार भी आएंगे बस हमे सब्र करना है, लोग भी बड़े भोले जान पड़ते हैं। 

खैर हमारे रघुवीर को इन सब चीजों से ज़रा भी लगाव नही था, उसके लिए तो दो वक़्त की रोटी ही जीवन प्रफुल्ल दात्री है। वो बढ़ता जाता है और आठरह कोस पूरा होने पर राहुल के ढाबे पर आराम करने रुकता है और सफर के अंतिम क्षणों में साँसें रुकने सी लगती हैं पैर रह रहकर रुक जाते हैं उसकी बैसाखी भी रोने लगती है। 

फिर भी वो अपने मन को मारकर चलता रहता है, और पहुँचता है एक सूनसान कब्रिस्तान में। 

उस कब्रिस्तान के एक कोने में जाकर वो दो दिन तक वहीं बैठ कर रोता है और रात में वहीं कब्रो के बीच सो जाता है। 

अपने बक्से से एक गुड़िया निकालकर उसे वो वहीं रख देता है और अपने घर के लिए वापस मुड़ जाता है। हर साल उसे यही करते देख एक दिन मुझसे बर्दास्त नही हुआ और आखिरकार मैंने आज सुबह उससे ये पूछ ही लिया, "उतनी दूर बिना किसी उद्देश्य के तुम अपना नंगा बदन तपाने क्यों जाते हो? "

उसका जवाब शाम में निकला और आकर उसने कहा, "अब मै नही जा सकूँगा। "

     उसने मुझे दो गुड़िया दी और कहा, " ये दोनो अगले साल मेरी बेटी की कब्र पर पटक आना,

जिसे मैंने अपनी सगी बेटी से भी बढ़कर माना उसका पालन किया उस अनाथ को कुछ 'लोग' ऐसी ही कुछ गुड़िया दिखाकर उसे अपने साथ ले गए थे और उसको अपनी ताकत दिखा रहे थे वो छोटी थी सो कुछ कर नही पाई। "

ये कहकर उसने मुझे कहा, "जाओ खुश रहो।"

कैसे सो जाऊ इस रात में मै, नींद कैसे आए?

उस अनाथ और बूढ़े के बीच का अनकहा रिश्ता अब तक समझ नही पाया हूँ। 


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