कर्ज़ फ़र्ज़ और प्यार
कर्ज़ फ़र्ज़ और प्यार
एक बार मैं एक अस्पताल में बैठा हुआ था, कुछ खास काम नहीं था मुझे बस यूँ ही पहुँच गया था वहाँ का वातावरण देखने, वहाँ की मासूमियत देखने। एक सज्जन मेरे पास आए और उन्होंने कहा मुझसे पूछा कि इतनी देर से यहाँ बैठने का क्या मतलब है आपको कोई तकलीफ हो तो बताइए। मैंने नहीं में सिर हिला दिया और जवाब दिया, ' सुना था यहाँ एक भी डॉक्टर नहीं मिलते आज देख भी लिया।'
वहाँ का माहौल ही कुछ ऐसा है, वहाँ के प्रधान डॉक्टर ने ऐसा ही नियम बना रखा था कि वहाँ डॉक्टरों की कोई खास वर्दी नहीं थी। उनका मनना था कि लोग हमारे पास जब साहब साहब करते आते हैं तो हमे खुद अच्छा नहीं लगता इसलिए हम आम आदमियों जैसे ही रहते हैं और वैसे ही बात भी करते हैं।
तभी बाहर से एक एंबुलेंस की आवाज़ आयी और सभी चौकन्ने हो गए, कुछ लोगों ने एक स्ट्रेचर निकाला और एक्सीडेंट में घायल एक इंसान को जल्दी-जल्दी लाने लगे। डॉक्टर ने अपनी भाषा में ही उसका खेद जाहिर किया और जल्दी इलाज की तैयारी करने को कहा। उस इंसान की हालत बहुत नाज़ुक थी, सबकी प्रार्थना एक पल को अपने घर वालों से हटकर उसके लिए होने लगी। मुझे बहुत अचरज हो रहा था क्योंकि मैंने आज तक डॉक्टरों को बस केबिन में ही बैठे देखा है ना कि ऐसे नौकरों के साथ भाग-भाग के काम करते। वो लोग फरिश्ते से कम नहीं थे।
इधर प्रार्थनाओं का जोर अभी कम नहीं हुआ था कि एक और एंबुलेंस तेज आवाज़ करती हुई आ गयी। इस बार एक महिला का केस था, शायद उसको दिल का दौरा पड़ा था, बेचारी कितनी बदकिस्मत थी, उसके साथ उसके घर से कोई भी नहीं आया था।
डॉक्टर साहब को अभी इस बात की भनक नहीं लगी थी, और मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि बाकी के लोग डॉक्टर से कुछ छिपा रहे थे। मैंने जाकर पूछा कि बात क्या है। पता चला वो महिला डॉक्टर साहब की माँ थी, और उन्होंने कहा था कि ओपरेशन के वक़्त उनको कोई परेशान ना करे। वो लोग कुछ नहीं कर रहे थे, मैंने सोचा मै ही कुछ करता हूँ नहीं तो इलाज के आभाव में उस महिला की जान जा सकती थी। मैं सीधा डॉक्टर के पास ओपरेशन थिएटर में घुस गया और उनके ग़ुस्से को सहते-काटते उनको उस महिला के बारे में बताया पर ये नहीं की वो उनकी माँ थी। वो कुछ परेशान हुए पर फिर से ओपरेशन में लग गए और मुझे फ़ौरन वहाँ से निकल जाने को कहा। मैंने जाते-जाते उनके कान में ये बात डाल ही दी कि वो उनकी माँ थी, फिर भी वो जड़ रहे और एक घंटे बाद बाहर निकले।
उनको लगा था कि कोई ना कोई डॉक्टर उनकी माँ की देख भाल करेगा लेकिन उस दिन उनको छोड़कर बाक़ी के दोनों डॉक्टर छुट्टी पर थे। फिर भी उनके चेहरे पर मैंने अफसोस की रेखा नहीं देखी। उन्होंने नब्ज़ देखी और कुछ दवा लिखकर केमिस्ट को दे दिया और नर्स से माँ को एक कमरे में ले जाने को कहा। आकर मेरे बगल बेठे, शांत। मै सोच रहा था फ़र्ज़ बड़ी चीज़ है मगर इतनी भी बड़ी क्या कि अपने घर वाले भी उसके सामने छोटे पड़ जाए। मैंने पूछ ही दिया कि आपने आकर एक बार भी अपनी माँ को देखा क्यों नहीं। उन्होंने एक लंबी साँस ली और कहा, ' आज मैं जिस अस्पताल में हूँ वो सोच है मेरी माँ की, जिस कारण मैंने अपने पिता को खो दिया था मेरी माँ नहीं चाहती थी कि कोई वैसे अपनो को खोए। उसने मुझे कसम ली थी मेरे डॉक्टर बनते ही कि किसी भी हाल में अगर उसमे और किसी और मरीज़ में मुझे किसी एक को चुनना पड़ा तो मैं जज़्बात को थोड़ी देर काबू कर दूसरे मरीज़ को चुनूँगा। मैं चाहता तो उसकी वो कसम अपने माथे मत लेता पर जिसने इस काबिल बनाया उसकी एक मांग भी पूरी ना कर सको तो काबिलियत किसी काम की नहीं। आज वो बचेगी या नहीं पता नहीं पर मैं उसका इलाज भी किसी अन्य मरीज़ जैसे ही करूँगा। अगर आप लोगों के होठों पर कभी मेरी वजह से मुस्कान आयी हो तो मेरी माँ के लिए दुआ कर दीजियेगा। '
ये कहकर वो ओपरेशन थिएटर की ओर भागे। और मेरी आँखें नम और चेहरे पर मुस्कान छोड़ गए। अब क्या करूँ दुआ तो करनी ही पड़ेगी।
ऐसा प्यार देखकर एक बार सवाल उठा मन में कि क्या यही प्यार है ? फिर फ़ौरन जवाब भी मिल गया अरे हाँ यही तो सच्चा प्यार है।