वो हँसी
वो हँसी
'गर्मी की छुट्टी' के अपने अलग ही मज़े होते हैं क्योंकि हम अपने सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होते हैं। और कही ना कही हम इंसानों की यह आदत भी है।
बचपन में गर्मी की छुट्टी पे हर बार मैं अपने मामा के गाँव जाया करता था। सारे गाँव में रामू काका मुझे सबसे अच्छे लगते थे क्योंकि उनसे घंटो भर बातें करना मुझे बहुत भाता था।
वैसे तो मेरे मामा के गाँव के होने के कारण मुझे उन्हें 'रामू मामा' कहना चाहिये था लेकिन मैं उन्हे रामू मामा न कहकर रामू काका कहा करता था जैसे कि गाँव के सभी बच्चे कहा करते थे। वे रेलवे में गार्ड की नौकरी करते थे और ट्रेन के आने जाने पर हरी-लाल बत्ती दिखाया करते थे क्योंकि वे रात के समय काम करते थे। रेलवे पटरी गाँव से कुछ ही दूर पर थी इसलिए मैं भी उनके साथ जाया करता था और रात में उनसे घंटो गप्पे लड़ाया करता था। इससे उनको किसी का साथ मिल जाता था और उनका समय भी कट जाता था।
मुझ से तो वे घंटो बातें किया करते थे। कभी मेरी पढ़ाई के बारे में पूछते, कभी मेरे घर के बारे में और कभी शहर के बारे में। यदि रामू काका को किसी बात से चिढ़ थी तो वह था मशीन युग। कभी-कभी वे चुप रहते और कहते की इस मशीन युग ने कितनों के हाथ काट दिये।
आज सुबह से रामू काका कुछ उदास थे, मैंने एक दो बार पूछा भी पर उन्होंने मेरी तरफ शायद ध्यान नहीं दिया। शाम हो गयी, रामू काका पटरी की तरफ जा रहे थे। मुझे कुछ काम था इसलिए मैंने उनको टोकना मुनासिब ना समझा। काम होने के बाद करीब सवा सात बजे मैं पटरी के पास गया। तो मैंने दूर से ही देखा एक ट्रेन खड़ी है और लाल बत्ती की रौशनी रामू काका के कमरे से आ रही है। वहाँ जाने पर मैंने देखा बत्ती रामू काका से कुछ दूर पर गिरी हुई है और रामू काका हँस रहें हैं। पर दुःख की बात यह है की मुझे आने में थोड़ी देर हो गया थी और शायद ट्रेन उनका इंतज़ार कर रही थी।
वह हँसी मेरे लिए थी या उन लोगों के लिए जो उनकी पोती को बाहर पढ़ने जाने की अनुमति नहीं दे रहे थे? शायद वह लाल बत्ती और उनकी हँसी मुझे आज भी दुःखी करती है।