बटुए की सार्थकता

बटुए की सार्थकता

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''अरे ओ शारदा, वो आज का तुमने दस हजार कहा था ना ,वो दे देना जरा। ''

'' अच्छा अभी लाती हूँ, एक दिन चलकर मेरा वो पायल बनवा दीजिये सोनार के यहाँ से। ''

'' अरे तुम तो बिल्कुल पीछे ही पड़ गयी हो, एक पल को यहाँ फुर्सत नहीं है और तुम हो कि पायल की पड़ी है। ''

हर वर्ष लगभग मिलता जलता वार्तालाप शारदा और उसके पति राम सहाय के बीच दिवाली के एक दिन पहले तक होता है और दिवाली के दिन भाई कौन लड़ना चाहेगा, यानी अगले दिन सब कुछ भूल जाता है और ज़िंदगी फिर से उसी पुरानी पटरी पर आ जाती है।

शारदा एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका है और अपना काम बखूबी तो नहीं पर पूरी लगन से करती है, उसे आज की मॉडर्न चीज़े आए या न आए पर बच्चों को अपनी नैतिकता और फ़र्ज़ सिखाना नहीं भूलती। हर महीने 3-5 तारीख के बीच उसका वेतन आ जाता है और उसपर पहला हक शारदा के हिसाब से उसके पति सहाय का बनता है, क्योंकि उसकी ही बदौलत आज वो एक इज्जतदार नौकरी कर रही है। परंतु उसके विद्यालय में कुछ शोरगुल मचाने वाले सामान भी हैं। बगल के गाँव की एक बहू उसके विद्यालय में साथ पढ़ाती है, और आए दिन उससे घर के मामलों में नारद बनना चाहती है। परंतु आज तक उसके कोई भी शब्द शारदा की आत्मा-शक्ति को हिला नहीं पाए।

राम सहाय की एक छोटी सी दुकान है जो दिवाली के दिनों में अपने पूरे जोर पर रहती है। वो स्वाभिमानी बहुत है और उसका पत्नी के लिए प्यार भी आँखें बंद कर लेने पर फैले प्रकाश की तरह है ,जो होता तो हर वक़्त है मगर दिखता नहीं। दिखता नहीं से तात्पर्य है कि वो दुनिया की तरह कोई दिखावा करने में बिल्कुल विश्वास नहीं करता बल्कि उसके लिए अकेले में कविताएँ लिखता और उसे सुनाता है।

हर वर्ष वो पत्नि से पचास हजार रुपए उधार मांगता है और दिवाली से हुई कमाई से ही लौटाता है।

इस बार भी उसकी कमाई अच्छी ही हुई थी और घर वापस आने पर पत्नी ने पहले ही प्रश्न दाग दिया कि "इस साल मेरा पायल बनने वाला है या नही?"

उसने ऐसा मज़ाक देखकर मज़ाक से ही कह दिया कि "नहीं बनने वाला।"

फिर क्या था पत्नी मुंह फुला कर बैठ गयीं, और जो आज तक सहाय ने नहीं किया था वो किया उसे मनाया और अगली सुबह जाकर फ़ौरन दूसरा पायल लेकर आया।

लाकर सबसे पहले देने पर ये ही पूछा कि "किसने उसे भड़काया था कल?" तो उत्तर मिल "आपने।" वो आश्चर्य से पत्नी की तरफ देखने लगा और बिना कुछ बोले व्याख्या की मांग करने लगा। पत्नी ने बताना शुरू किया, ' "आज तक मैंने आपसे किसी चीज़ को लेकर जिद नहीं की थी, सिवाय इस पायल के, मुझे आपको परेशान करने का कोई शौक नहीं आप तो इन दिनों व्यस्त ही रहते हैं, मगर आज मेरी माँ को मरे सात साल हो गए और उसका दिया ये पायल टूटा का टूटा है। "

उसने दो चीज़े सोची, एक, ''मतलब मैंने नया पायल लाकर गलत किया। ''

दूसरी, '' ये माँ के सात साल और पायल टूटने का क्या संबंध है। ''

उसने लंबी चौड़ी बहस करने से अच्छा अपनी गलती मान लेना ही मुनासिब समझा। फिर क्या था बेचारा फिर से पुराना पायल लेकर दुकान के चक्कर काटता फिरता रहा, दो घंटे बाद कहीं सफल हुआ और घर आया। पत्नी ने देखते ही कहा "इसकी क्या जरूरत थी जब आप नया पायल ले ही आए थे तो।"

सहाय के मन में लावा सा फूटा, उसने सोचा अब शायद माँ के मरने का कोई गम नहीं।

पत्नि से लेकिन कोई भी पूछे तो वो अपनी पूरी तनखाह पति का बताती है और खुद को उनके आधीन मानती है। शायद उसके मन की बाल-प्रवत्ति थी जिसने कभी प्यार और हँसी मज़ाक कम नहीं होने दिया और ज्ञान और नीति थी जिसने कभी दूसरे को अपने रिश्ते में अँधेरा नहीं पैदा करने दिया।

उसका मानना था कि पत्नी जैसा वो कितना भी कमा ले उसका हक पैसों पर पति के बाद ही बनता है क्योंकि पति ही घर की रीढ़ होता है। हाँ ,मगर पति कमाता होता तो उसके सारे पैसों पर पहला हक उसका होता क्योंकि पति का पैसे संभाल कर पत्नी ही रख सकती है। उसकी बहुत सी अवधारणाएँ थी जो हँसी भी दिलाती थीं और चुप भी कर देती थीं।


बटुआ घर में हमेशा पति का ही होना चाहिए, यदि पत्नि कमाती है तो उसको अपने घमंड और शोरगुल के सामानों से दूर ही रहना चाहिए, यदि पति कमाता है तो पत्नि का हक हक से बनता है।


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