कोरा कागज

कोरा कागज

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माँ के कमरे में घुसते ही शशांक को एक जोरदार धक्का लगा। कमरे के कोने में चश्मे के ऊपर रखे डायरी के पन्ने सफेद ही पड़े थे। एक भी अक्षर नहीं लिखा है, ऐसा क्यों ?

वहीं से आवाज लगाई माँ, माँ ....

आवाज सुनकर साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती हुई माँ ने कमरे में प्रवेश किया- "क्या हुआ शशांक..."

"यह क्या माँ, एक हफ्ते हो गए, मुझे यह डायरी पेन दिए हुए, कहा था न आपसे कि पापा के संग अपने खुशियों के पल इनमें संजो दीजिए। पापा को उनके जाने के बाद याद करके हमेशा ही रोती रहती हो। कुछ खुशियाँ लिखेंगी तो लिखते और पढ़ते समय थोड़ा तो खुशी मिलेगी आपको।"

माँ ने पल्लू से आँखें पोछते हुए कहा बेटा, "मेरा कोई वश नहीं हैं शब्दों पर..जो थोड़ी खुशियाँ लिखने की कोशिश की, वह आँसुओं से धुँधली पड़ गईं और आँसुओं को लिखने की कोशिश की तो लगा कि वह इतने पन्नों में समेट न पाऊँगी.....सब कुछ कोरा ही रह गया बेटा ....!"


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