कलमुँही
कलमुँही
जब से होश संभाला, एक रेखा सी खिंच ली थी मैंने अपने आस पास। अंतर्मुखी सी, मेहमानों के बीचजाने से कतराती थी।पढ़ाई मे अव्वल थी, खेल कूद में भी ख़ूब मैडल जीतकर घर लाती थी।अंशीका मेरीछोटी बहन चिढ़ जाती थी ;आए दिन मेरी किताबें छुपा दिया करती, लेकिन पापा मुझे ही दोषी ठहराते, कहतेखो दिया होगा संभाल कर रखा करो ;पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं किसी चीज़ का ढंग नहीं है तुम्हें “।त्योहारोंके लिए कपड़े ख़रीदने के लिए भी मेरी पसंद नहीं, अंशी की पुछी जाती थी। बहुत बुरा लगता था।काश ! मैं भी अंशी की तरह गोरी होती, तो मुझे भी पापा अपने साथ बाज़ार ले जाते। मैं कुंठीत, हीन भावना से ग्रसितहो गई थी।
।पापा को अक्सर मम्मी को कोसते सुना था, ” तुम पर चली गई है “कलमुँही “सारा क़सूर तुम्हाराहै”। पता नहीं कौन करेगा इससे शादी ?रंग भेद के संकीर्ण सोच से घिरी अपने ही घर में मैं ;”आइना सेकरती थी सवाल बार -बार“बताओ मेरा क़सूर क्या है ?”
अंशी ससुराल में ख़ुश है। मेरी तलाश जारी है, क्योंकि शादी के वक़्त मुझे ही देखने आए नील ने भी अंशीको चुना।आज जीवन मे सफल हूँ, भारत सरकार के पब्लिक सेक्टर की कंपनी में उच्च पद पर आसीन, मेरेअंतर्गत सैकड़ों स्टाफ़ काम करते हैं।
उस दिन तेज बारिश हो रही थी। गाड़ी ऑफिस के गैरेज में खड़ी कर हिम्मत जुटा रही थी, कि कैसे कार्यालय तक जाऊँ, छाता भी नहीं लाई थी ;कि तभी पीछे से छाता लिए प्रकाश, आफिस का सबसे सुंदर, गोरा औरस्मार्ट बैचललड़का जो मेरा जूनियर था ;बोला -“चलिए साथ चलते हैं।”
उस दिन का साथ सात फेरों में तब्दील हो कर जन्मों का हो गया।
