कल्लु
कल्लु
उस दिन सूरज अपने चरम पर था, हवाओं ने भी कसम खा ही रखी थी नहीं चलने की। मैं भाप कर देने वाली ताप के बीच, एक असहाय मुर्दे की तरह, बांस के गेट से सट कर पड़ा हुआ था। उस दिन खुदा से बस यही दरख्वास्त थी कि मुझे पानी मिल जाए, इस गले में लगी आग को बुझाने के लिए बस पानी मिल जाए……!
पर हम सड़क पर रहने वाले कुत्ते का ऐसा नसीब कहां, यहां कचरे के डिब्बे में खाना मिलना तो आसान है लेकिन पानी मिलना तो ऐसा है जैसे नेता के भाषण में सच्चाई मिलना। यहां लोग हमें खाना देते तो है लेकिन उसमें भी उनका ही फायदा शनि खराब है तो कुत्ते को काला चना दो, राहु खराब है तो रोटी दो, शुक्र खराब है तो गुड़ दो लेकिन पानी देने के लिए कोई ग्रह नहीं बोलता।
पानी…..पानी….. करते - करते मैं कब सो गया या बेहोश हो गया पता नहीं चला।
गीली - गीली ठंडी - ठंडी बूंदें जब आंखों से टकराई तब मेरी आंखें खुली। मुझे लगा बारिश शुरू हो गई, मैंने जब खुदा को शुक्रिया कहने के लिए ऊपर देखा तो किरणों के क्रूर प्रहार से मेरी आँखें चौंधिया गई। वाह! खयाल - ऐ- पानी सोच खुद को कोष कर मैंने फिर आंखें बंद कर ली।
इस बार फिर कुछ बूंदों ने मुझसे मुलाकात की मैंने भी ख्याल- ऐ- पानी सोच आँखें खोली ही नहीं, अब बूंदों के साथ आवाज भी आने लगी कल्लु…. कल्लु…..
वाह! गजब था अब ख्याल - ऐ- आवाज़ भी, पर आवाज़ आना वो भी इंसानी ये तो हकीकतें मुमकिन नहीं। मैंने भी अपनी सुस्ताई आंखों से आवाज़ की ओर देखा वहां एक इंसानी लड़की थी जो मुझे बांस के गेट के उस पार से आवाज़ लगा रही थी। पहले तो मुझे
यकीन - ऐ- मुकमल नहीं हुआ लेकिन इस भरी दोपहरी में आवाज़ सुने को मेरे अलावा कोई और था भी तो नहीं। सो मैं भी ऊं....ऊं.... कर उसकी ओर चमकती हुई आंखों से देखने लगा शायद ये मुझ पर तरस खाए।
उसने प्लास्टिक का डब्बा बांस के गेट के नीचे खाली जगह में से मुझे दिया, उसमें पानी था! शायद खुदा ने मेरी सुन ली या इस लड़की ने मेरी आंखें पढ़ ली जो भी हो पर मुझे पानी दे दिया उस ने। उस परी ने। जब तक मै पानी पी रहा था वो वहीं पे बैठ के मुझे देखे जा रही थी। मैंने पानी पी लिया था, लेकिन अब भी वो वहीं पे बैठी थी, धूप में पसीने में लथपथ। मै भी फिर वही थोड़ी छांव में बैठ गया। किसी जादूगर जैसे उसने एक बिस्कुट का पैकेट मेरे सामने रख दिया वैसे ही। अब खुदा इतना मेहरबान था बंदे पर तो मैंने भी उनकी मेहरबानी आशीर्वाद समझ खा ही लिया बिस्कुट खाने तक वो लड़की वहीं पे बैठी थी माथे को कपड़े के एक लंबे टुकड़े में छुपाते हुए। उस दिन मुझे पता चला खाना देना और खाना खिलाना में कितना फर्क है।
अब मै रोज उस बांस के गेट के पास जाता हूं, मुझे देख कल्लु... कल्लु.... कह बुलाती है और गेट खोलती है। बांस के इस पार घास की मलमली चादर बिछी हुई है जिस पर मैं एक अलसाए आदमी की तरह पसर जाता हूं। वो मेरे लिए प्लास्टिक के डब्बे में पानी लाती है और एक बिस्टिक और मुझे बड़े ही प्यार से खिलाती है। हम घंटों बैठते है अंधेरा होने तक । जब चांद बादलों से बाहर निकालता है तब मैं गेट के बाहर निकलता हूं और वो गेट बंद कर लेती है कल फिर खोलने की लिए। हम कुछ बोलते नहीं और नहीं हम एक दूसरे की भाषा समझते है फिर भी हम जान जाते है एक दूसरे को।