दुलारी का घर
दुलारी का घर
सोफे के एक कोने में दुबकी दुलारी देवी किसी बली पर जाने वाली बकरी से कम नहीं लग रही थी। उस पर से ये कोरी सफेद साड़ी, कंघी किए बाल, और सामने खड़ी पहिये वाली काली अटैची उसे रह - रह कर इस मनहूस दिन के आने का एहसास दिला रही थी। विदा लेती बेटी की तरह दुलारी घर के हर एक कोने को निहार रही थी। सोफे पर लगी चाय की दाग से लेकर दीवार से झांकती ईट सबको वो अपनी इन चार आंखो से कैद कर रही थी।
"मां…! अरे तुम यहां बैठी हो !"
लो आ धमके दुलारी देवी के बड़े सुपुत्र प्रहलाद हाथो में एक और काली बैग उठाए जिससे वो उस काली अटैची के बगल में बिठा देते है, और खुद सोफे के हेड सीट पर विराजमान हो जाते है।
वैसे तो दुलारी देवी के दो सुपुत्र है प्रहलाद कुमार और श्रवण कुमार और उनकी एक - एक पत्नी नीतू और जया इन दोनों से चार
पोते - पोतियां भी है । एक बड़ा ही छोटा - सा सुखी परिवार है। लेकिन ये सूख दुलारी को पिछले साल तक ही नसीब थी जब तक साहेब, उनके पति की सांसे चल रही थी। पिछले साल उनके साथ दुलारी की खुशियां भी बोरिया -बिस्तरा ले कर चल दी। अब तो बहूओं के ताने और छोटे घर के बहाने में ही दुलारी अपना दिन बचा - कुचा दिन काट रही थी। वैसे पांच कमरों वाला पुस्तैनी घर तो है लेकिन दुलारी के लिए एक भी कमरा नहीं। दुलारी ने कहा भी कोई नहीं हम बरामदे में गुजरा कर लेंगे लेकिन सुपुत्रों और उनकी देवियों ने एक ना सुनी कहां, "अम्माजी हम घर में और आप बरामदे में !!! ये हमें कतई भी सुवीकार नहीं । अरे ११ लोग क्या कहेंगे ? की दो पुत्र और बहुओं के होते आपकी ऐसी दशा बिल्कुल नहीं !!! हमारी जग हंसाई होगी सो अलग, इसलिए हमने सोचा है कि पास में ही एक वृद्धाश्रम है हम आपको वहां ले जाएंगे, वहा आपके उम्र की और अम्माए मिल जाएगी तो आपका मन भी लग जाएगा।"
अब तो फरमान जारी हो चला था तो वापसी कैसी दुलारी ने भी जैसा तुम ठीक समझो में सर हिला ही दिया।
और आज वो विदाई का दिन आ चुका था। चश्मे के भीतर दबी नम आँखों को वो सारी के एक सिरे से पोछती है। अब तक दूसरे सुपुत्र श्रवण, पत्नी जया और भाभी नीतू भी अपना स्थान पकड़ चुके थे। नीतू प्रहलाद के पीछे और जया श्रवण के पीछे खड़ी थी।
"मां तुझे और कुछ चाहिए तो बोल मै अभी ला देता हूं।" चेकलिस्ट देखते हुए श्रवण ने पूछा
हां..हां.. छुट्टीयों पे भेज रहा है न जो चेकलिस्ट देख रहा है दुलारी मन ही मन बोलती है।
"नहीं.. नहीं... बेटा तुम ने तो बहुत दे दिया, मुझ बुढ़िया को और क्या चाहिए!" दुलारी अपनी हिलती हुई मीठी आवाज में जवाब देती है
" अरे मां ऐसे क्यों कहती है, तेरी इच्छा पूरा करना हमारा कर्तव्य है।" अब प्रहलाद कुमार भी अपनी उच्च विचार वाली बानी लिए उतर गए।
हां हां घर से निकाल रहे हो और इच्छा पूछ रहे हो, बड़ा आया तुम्हरा कर्तव्य दुलारी मन में खिस्याती है।
वो अपने सिकुड़ी होठों को ऊपर उठा कर एक डिसेंट स्माइल देने कि कोशिश करती है । नीतू प्रहलाद को कुहनी से इशारा करती है जिस पे वो मुस्काता है " अरे मां नीतू तुम्हारी आखिरी इच्छा पूरा करना चाहती है ।"
" हां हां मां बोल न भाभी ही नहीं बल्कि मै, जया, भईया सब तेरी वो इच्छा पूरी करना चाहते है"
श्रवण भी जोर डालने की भीड़ में उतर जाता है।
फांसी पे जो चढ़ा रहे हो सो आखरी इच्छा तो पूछोगे ही ना, दुलारी बोलने ही वाली होती है कि कस के होठों को दबा लेती है।
"रहने दो बेटा तुमसे ना हो पायेगा!" व्यंग की मुस्कान लिए वो दौड़ती घड़ी की ओर नजर टिकाती है, और समय हो गया है मै चलती हूं कह कर वो अपनी बची -कुची आत्मा को समेट कर उठ जाती है, और उस इंतजार करती अटैची के पास जाने लगती है।
" ठहर मां हमसे ना हो पायेगा का क्या
मतलब ??" प्रहलाद पूछता है
" वहीं जो तूने समझा " वो अटैची को उठाने लगती है
तभी नीतू पति का साथ देते हुए बात को आगे खींचती है "इनसे ना हो पायेगा तो किसे हो पायेगा अम्माजी ? अब तो आप बोल ही दीजिए?!!"
" हां अम्माजी बोलिए !" जया भी बोलना शुरू कर देती है, पत्नी का साथ देते हुए श्रवण और प्रहलाद भी जोर डालने लगते है
अब फिर शुरू हो गई इन की मच - मच भूखे भेड़िए की तरह अधजीवित शीकार पर बरस पड़े। दुलारी से अब सहा नहीं गया एक तो मनमानी और अब ऊपर से तानाशाही। वो अटैची को धका दे देती है । धम्मम्म्म…….. के साथ वो जमीन पर परस जाती है। इसकी धम से मछी बाज़ार बना घर अब अस्पताल की तरह शांत हो जाता है।
" मेरी इच्छा जननी है न तो सुनो….."
दुलारी सबकी ओर देख कर चिलती है "मुझे मेरे चालीस साल वापस कर दो!?!??"
वो सुपुत्रों की और तीरती आंखो से बोलती है।
" चालीस साल..... " नीतू के होठ दोहराते है।
" हां चालीस साल ! मेरे चालीस साल जो मैंने इस घर को दिए है, क्या तुम में से कोई इससे वापस कर सकता है??" वो आगे बोलती है
"नहीं न! अरे तुम में से कोई दे ही नहीं सकता। क्योंकि तुम तो वो अभागे हो जिसके पास अपनी मां को देने के लिए एक कोना भी नहीं"
ये कहते हुए वो अटैची को उठा कर खड़ा करती है।
" मां….." श्रवण बोलता है लेकिन दुलारी की आंखो की आग देख वो फिर सभी की तरह मुक पुतला बन जाता है।
"मैंने अपनी जिंदगी के चालीस साल इस घर को दिये। ब्याह तो मैंने साहेब से किया था लेकिन समर्पण मैंने इस घर को दिया। थी तो मै साहेब की अर्धांगिनी पर मै इस घर की गृहस्वामिनी ज्यादा थी। इस ईंट से बनी इमारत को मैंने घर के धागों से बांधा। हां भले ही कीमत ईटो की होती है लेकिन उससे संजोए रखने वाले की मेहनत कोई कम कीमती नहीं होती। और तुम….."
वो अब सोफे के उसी कोने में वापस बैठ चुकी जाती है, मुंह को पल्लू से छिपाय वो अपनी बहती दशा को इन बेदर्दो को नहीं दिखाना चाहती
" और तुम लोग मुझे मेरी आत्मा से अलग कर मेरी इच्छा पूछते हो !"
दुलारी देवी खुद को और सिकोड़ कर बैठती जाती है।
छे महीने बीत चुके है उस मनहूस दिन के। दुलारी देवी के घर के मेन गेट पर कुमार निवास ही विराजमान है। घर के अंदर कदम रखते ही सोफे से भेंट हुई वहीं सोफा जिस पे दुलारी जाने से पहले बैठी हुई थी। दीवार में से एक ईट और झाक रही थी। ईटों के अलावा कुछ भी बदला नहीं दिख रहा।
तभी रसोई से नीतू की आवाज दौड़ती है "अम्मा जी चाय के साथ कौन सी बिस्कुट लाऊ मीठी या नमकीन ।"
"अरे नमकीन लाना.." ये कहते हुए साड़ी बांधते हुए दुलारी देवी बरामदे से पधारती है और सोफे के हेड सीट पे किसी सेठानी की तरह बिराजती है।
शायद बहुत कुछ बदल चुका था अब कुमार निवास दुलारी का घर हो चला था।