कीमती विश्वास
कीमती विश्वास
अगर मैंने उस दिन उसे न चुना होता तो शायद आज बात कुछ और होती। आज इस माहमारी में मै अपनो के साथ होता, अपने गांव में, उस पुस्तैनी घर में होता जहां मां अब भैया के साथ रहती है, भाभी का लाड़ होता मां का आंचल होता, भईया की बाबा वाली डाट होती, फसलों की सोंधी खुसबू होती, बचपन के लगोटिये यार भी होते, और वो छूट गया समाज भी होता। अगर मैंने मनु को ना चुना होता तो शायद ये सब आज मेरे साथ होते या यू कहूं मै इनके पास होता। पर अब ऐसा कुछ नहीं है बालकनी की रेलिंग से सुनसान बिरान पड़ी सड़क को देख मै कुछ साल पीछे चला गया जब मांडवी से मेरी शादी हो चुकी थी। हमारी शादी के दो महीने बीत चुके थे, सब खुश थे मां को सुंदर - सुशील छोटी बहू मिल चुकी थी, भाभी को देवरानी, भईया खुश थे की मेरा भी घर बस चुका है, दोस्त खुश थे क्योंकि मै खुश था। सच कहूं तो मै बहुत खुश था मनु मेरी सपनों कि रानी थी। सरकारी नौकरी समझदार संगनी खूबसरत परिवार एक आम इंसान को और चाहिए भी क्या था ?
पर मांडवी खुश नहीं थी, इसलिए तो उस रात वो अचानक चली गई गहने, कपड़े और वो सारे सामान जो शायद उसे अपने लगे वो ले कर चली गई। पीछे छोर कर गई तो बस कली स्याही में सनी सफेद कागज़।
लिखा था ' मुझे माफ़ कर देना पर मै उसे अभी तक भुला नहीं पाई '
मै उसे गुस्सा नहीं था, बस दुखी था कि वो इतने दिनों तक क्यों सहती रही। मैं तब भी उसका ही साथ देता। पर शायद उसे यकीन नहीं था क्योंकि था तो मै अनजान ही। पर सबसे ज्यादा दुख इस बात का था कि उन जरूरी सामान में वो एक सामान लेना भूल गई थी, मुझे! जब मैंने उसकी मांग भरी थी तो सिंदूर के रंग के साथ मै उसका हो चला था। शायद वो भूल चुकी थी।
उसके जाने के बाद ज्यादा कुछ तो नहीं बदला था सूरज पूरब से ही निकलता था और पश्चिम में ही डूबता था। मै काम पर जाता था, खाना खाता था, सांस लेता था, और जिंदा भी था। बस मां दुखी थी, भईया - भाभी परेशान थे, दोस्त सांतवना देते रहते थे, समाज भी अपनी गति से रेंग ही रहा था। फिर उस दिन जब वो वापस आई दस महीने बाद अपना वो भुला सामान लेने तब शायद कुछ बहुत ज्यादा बदल चुका था। मां की आवाज भाभी का लाड़ भईया की बात सब कुछ बदल चुका था।
आवड़ी ! भगौड़ी! धोखेबाज! बदचलन!!.
..... और कितने ही शब्दों ने उसका घर की चौखट पे स्वागत किया था। मै उस दिन घर से नहीं निकाला था शायद डर था कि कहीं ये सपना तो नहीं, छत वाले कमरे की खिड़की से मै उसे देख रहा था। मैली साड़ी में लिपटे लकड़ी के बोझे जैसी वो वहीं दरवाजे के बाहर पड़ी थी।
उस दिन समाज जाग गया था भूखे कुंभकर्ण की तरह जो सामने परा था उसे चबाए जा रहा था, इस बार सामने मनु थी, कुत्तो से छुपती बिल्ली की तरह वो खुद को सीढ़ीयो पे सिकोड़ के बैठी थी। ना जाने कितने ही शब्दो से वो जगा समाज उस पर भौक रहा था, पर वो वहीं पड़ी रही। भोर से रात हो गई वो वहीं पे थी खून चूसने वाले मच्छरों और आत्मा कचोटने वाले शब्दो के बीच उसने रात भी काट दी थी सबेरा हो चला था।
वो जागा समाज, वो दोस्त, भईया, भाभी, मां सब बहुत कुछ कह रहे थे मेरे सामने भी और मेरे पीछे भी " गंदी हो चुकी है ये….. न जाने
किसके साथ रही होगी…. किस - किस के साथ सो… और भी बहुत कुछ।
पर मेरी लिए तो वो चौखट पे पड़ी मांडवी मेरी मनु ही थी। हा बस आंखो ने चमक खो दी थी, होठ टूटी टहनी की तरह सीधी और बेजान थी, गालो पर लाली की जगह अब गढ़ो ने ले ली थी, बदन पे चमड़ी बस नाम मात्र थी हडिया जहां - तहां से झाक ही रही थी। ये हालत उसके इस दस महीनों की कहानी चीख - चीख कर कह रहे थे। उस दिन मेरे पास दो रास्ते थे, दो बेस्किमती में से मुझे किसी एक को चुना था। चुनाव बड़ा कठिन था आखिर अपनो और मनु के बीच जो चुनना था।
फिर वही हुआ जो शायद नहीं होना चाहिए था मांडवी को चुनने के बाद सब कुछ खत्म हो गया। पर क्या करू कर्ज भी तो चुकाना था, एक दिन मनु ने अपना परिवार, अपना गांव, अपना समाज छोड़ा था मेरे लिए तो उस दिन मैंने भी अपना परिवार,गांव, समाज छोर दिया उसके लिए हिसाब बराबर! बस फर्क इतना है कि उसने एक अनजाने से विश्वास का धागा बांधा था और मैंने अपनी मनु के लिए उस धागे को पकड़ लिया
मुझे नहीं पता उन दस महीनों वो कहां थी या क्या हुआ मै जानना भी नहीं चाहता। और सच कहूं तो मै मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम भी नहीं हूं जो विश्वास को इतनी आसानी से किसी अनजान की बात पर छोर दे।
मैं इंसान हूं ! मैं खुश हूं ! वो भी खुश है ! और हमारे दो बेटे भी !