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Vibha Rani Shrivastava

Abstract

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Vibha Rani Shrivastava

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"खंडहर का अंत"

"खंडहर का अंत"

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तन पर भारीपन महसूस करते अधजगी प्रमिला की आँख पूरी तरह खुल गयी। भादो की अंधेरिया रात और कोठरी में की बुझी बत्ती में भी उसे उस भारी चीज का एहसास उसके गन्ध से हो रहा था, "कौन है ?" सजग होकर परे हटाने की असफल प्रयास करती पूछी।

"मैं ! मुझे भूल गई ?"

" तुझे इस जन्म में कैसे भूल सकती हूँ.. तेरे गन्ध को भली-भांति पहचानती हूँ.. !"

"फिर धकिया क्यों रही है ?"

"सोच-समझने की कोशिश कर रही हूँ, तुझे मेरी याद इतने वर्षों के बाद क्यों और कैसे आई ?"

"मैं तेरा पति हूँ !"

"तब याद नहीं रहा, जब दुनिया मुझे बाँझ कहती रही और मेरा इलाज होता रहा.. तेरे इलाज के लिए जब कहती तो कई-कई इल्ज़ाम मुझपर तुमदोनों माँ-बेटे लगा देते !"

"इससे हमारा रिश्ता तो नहीं बदल गया या तुझपर से मेरा हक़ खत्म हो गया ?"

"हाँ ! हाँ.. बदल गया हमारा रिश्ता.. खत्म हो गया मुझपर से तेरा हक़..," चिल्ला पड़ी प्रमिला,"जब तूने दूसरी शादी कर ली और उससे भी बच्चा नहीं हुआ तो तूने अपना इलाज करवाया और उससे बेटी हुई।"

"तुझे भी जरूरत महसूस होती होगी ?"

"जिस औरत को तन की दासता मजबूर कर देती है, वह कोठे पर बैठी रह जाती है।"

"तुझे बेटा हो जाएगा ! तेरा ज्यादा मान बढ़ जाएगा.. !"

"तेरी इतनी औकात कि तू मुझे अब लालच में फँसा सके.. !" पूरी ताकत लगा कर परे धकेलती है और पिछवाड़े पर पुरजोर लात लगा कमरे से बाहर करती हुई चिल्लाती है, "दोबारा कोशिश नहीं करना, वरना काली हो जाऊँगी.. !"


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