खेत में बंदर
खेत में बंदर
"खेत मां बांदर आएगे हैं जल्दी जाओ। सब नास किहे डार रहे हैं। "फोन पर यह संदेशा मिलता है। फोन पर यह बात बताने वाला गांव के पड़ोस में रहता था। घर के सभी सदस्य अभी-अभी खेत में खून निचोड़ (अत्याधिक परिश्रम) कर, आए ही थे और खाने का समय भी हो चुका था। पता है आज कढ़ी भी बनी थी साथ में बरा (मट्ठा के बड़ा) भी थे। चूंकि घर में भैंस 6 साल से नहीं थी, इसलिए दूध दही और मट्ठा के लिए भी सब तरसे हुए थे। बड़ी मुश्किल से 50 रु खर्चा करके मट्ठा आया था। खाने की सुगंध और मट्ठे की खुशबू 45° की गर्मी में पंखे वाली छत के नीचे बैठ कर खुशबू कुछ ज्यादा ही महसूस हो रही थी। पंखे को भी ऐसी खूशबू घुमाने का मौका भला रोज़ रोज़ कहां मिलता था। इसलिए वो खुशबू से कह रहा था 'आज जाने की ज़िद न करो'। खाने की खुशबू तो कमरे में रहने वाली थी पर किसी को तो तपती हुई दोपहर में बंदरों से फसल को बचाने के लिए जाना ही पड़ेगा।
खैर ये लोकतांत्रिक फैंसला तो न था परंतु भावनात्मक प्रबलता में छिपी त्याग का फैसला जरुर था। घर के सभी लडके आंखे चुराने की कोशिश कर रहे थे कि काश वो बच जाएं! इस ऊहापोह को 70 वर्ष की दादी जिनकी कुछ दिन पहले ही आंखे खुलवाई गईं थी (गांव में मोतियाबिंद के आपरेशन को आंखे खुलवाना कहते हैं)। उन बूढ़ी आंखों को हरित क्रांति के पहले का दौर आज याद है जब अनाज का कमी के कारण कई रातें सिर्फ भूखें सपनों में बीती थी। साथ ही साथ जब महामारी अपना प्रकोप दिखाती तो उन तड़पती लाशों की याद मात्र से ही दादी के कंपकपाते हाथ और ज्यादा कांप उठते थे और आंखों से आंसुओं की धारा सीधी ही होंठों के पास से गुजरना चाहती थी पर अफसोस उन आंसुओं को चेहरे पर इठलाती झुर्रियों के सहारे धूमते-झूमते होंठों के पास गुजरना पड़ रहा था कि तभी एक मुलायम सा हाथ आंसुओं को पोंछ देता है। वो मुलायम सा हांथ 8 साल के पर-पोते का था। वो दादी से कहता है। दादी-दादी-ओ-दादी काहे रोऊतु है? अबहईने हम जाईत है और बांदरन का खेद के आईत है। तब तुम सब जने खाना वाना खाओ।
इतना कहते ही वो छोटा बच्चा दनदनाते हुए बीच दोपहर में बंदरों को भगाने के लिए खेत पहुंच जाता है। बंदरों ने खेत को चारों ओर से घेर रखा था। बंदरों को वहां से भगाना आसान नहीं लग रहा था पर वो लड़का दादी से वादा करके आया था अौर अब उसे पूरा कर दिखाना था। खेत में पड़े मिट्टी के ढेलों को उठा कर बंदरों पर वार चालु कर दिया पर बन्दरों की फूर्ती इतनी ज्यादा थी की इस डाल से उस डाल, उस डाल से इस पर इतनी जल्दी छलांग लगा लेते की ढीले उन को न लगते। लड़कों ने अनेक तरह की आवाजें निकालना चालु कर दिया। आईये अब सुनते हैं उन्हीं की जुबानी।
"ऐ जात है जात है जात है जात है जात है जात है ••••••••••• ऐ यहु गवा, ऐ यहौ गवा। ढ़ीला मार ससुरेक। यहु वाला सार ज्यादा कूदत है। जान परत, यहु महंता आए ( महंता मतलब बंदरों के समूह का नेता)। ला रे गुर्रा ला। मार ससुरेक। मार मार मार मार मार। ऐ यहु गवा ये यहु गवा। ऐ चला है चला है चला है चला है। ऐ गवा ऐ गवा। ला नाल ( नाल पटाखे दगाने के लिए) ला। उल-हा उल-हा उल-हा। "
बंदरों को खेत से भगा कर बच्चा कूदते फांदते घर पहुंचता है।
दादी:- 'खेद आऐओ भईया?
लड़का:- "हाँ खेद आऐन। "
दादी:- "सब जने खाए पी के आराम कर रहे हैं जाऔ तुमहु खा लियो जाय। अच्छा पहिले नहाए लिओ जाए। फिर खाओ मनअई बनिके। "
लड़का:- "ठीक है दादी। मम्मी ते कह दियौ खाना निकारें हम अब्बै नहाऐक आईत है।"
दादी:- "तुम पहले नहाऊ जाए। बातें न बगारौ (हँसते हुए)।"
लड़का नहा कर आता है।
लड़का:- "मम्मी खाना लै आऔ। जल्दी लाओ आंतै कलहरी जाती।"
मम्मी:-" लाईत है बच्चा। तनिक गर्माऐ देई पहले। "
माता जी जब खाना गर्म करने चौके में जाती है तो वहां का हाल देख, दुखी हो जाती हैं!
लड़का:- "मम्मी लाऔ भूख लाग है हमका।"
मम्मी:- "लाईत है भईया।"
मम्मी खाना गर्म करके ले आती हैं।
लड़का:- "अरे वाह बड़े दिनन के बाद कढ़ी खाऐक मिली है। आजु तौ मज़ा आ जाई। अरे मम्मी बरा (मट्ठे का बड़ा) तो लै आऔ जाए। जनतु नहीं हमका कत्ता पसंद है। माटा थोड़ा ज्यादा लाऐओ।"
मम्मी:-" (दुखी मन से) अरे भईया बिलरईया आई रहै और बरा वाली बटुई पलट दिहिस और खाईबो नहीं भै। माटी सब माठा सौंकइ गए और बरा सब माटी मा लसलसा रहैं। बिलरईया सब गांजि दिहिस।
"लड़का अपने आंसुओ को नहीं रोक पाता है।
