भ्रष्टाचार, बनती एक संस्कृति !

भ्रष्टाचार, बनती एक संस्कृति !

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भ्रष्टाचार, भ्रष्ट-आचरण रगों में समा चुका है। अधिकांशतः, व्यक्ति भ्रष्ट आचरण को जीवन की एक सामान्य और अनिवार्य प्रक्रिया या उसका पयार्य मानते हैं। ये भावना, स्वभाव और आचरण का निर्माण क्षणिक प्रक्रिया से नहीं हुआ है बल्कि इसका निर्माण अनुवांशिक पीढियों व सामाजिक-व्यवाहारिक-ज्ञान में खुद की सहजता से चालाकी के साथ निर्माणोस्पर्श कर, हुआ है। यूँ भी कह सकते हैं कि रक्त में भ्रष्ट-आचरण अवतरित हो चुका है। जिसका खात्मा मानव स्वभाव के "हृदयात्मक परिवर्तन" से ही संभव जान पड़ता है। मानवीय स्वभाव से भ्रष्टाचार का दमन, एक "क्रांतिकारी कदमताल सैल्यूट" साबित होगा।

अपने-अपने सामाजिक परिवेश में, अगर हम नज़र डालें तो निष्कर्ष अत्यंत हतोत्साहन पूर्ण होता है। व्यक्ति अपने भ्रष्टाचारिक स्वभाव का गुणगान बड़ा गर्वांवित होकर करता है, "जैसे उसने नीम के पेड़ पर आम का फल उगा लिया हो।" सरकारी नौकरी की प्राप्ति के लिए, जैसे हर कोई घूस देने को तैयार सा बैठा है और उसे सामाजिक परिवेश में घूस से प्राप्त नोकरी का षड्यंत्रकारी खेल बताने में, वो इतना गर्वांवित हो जाता है कि जैसे उसने "कशमीर की समस्या का स्थाई हल निकाल लिया हो।"

ड्राईविंग लाइसेंस बनवाने में घूस का सहयोग उतना ही आवश्यक है, "जितना बंदूक से दुश्मन को मार गिराने के लिए ट्रिगर का दबाया जाना।" थाने में रिपोर्ट लिखाने गए व्यक्ति से पुलिस वाला इतने सहज स्वाभाव में कहता है, "कभी होली की मिठाई खिलाई, दिवाली के पटाखे भेजे, नए साल की मीठी बधाईयाँ दी।" जैसे घूस का अधिकार, संविधान के मौलिक अधिकारों में व्याख्यित किया गया हो।

मिठाई वाला खोये में मिलावट कर रहा है, गन्ने का जूस वाला बर्फ ज्यादा मिला रहा है, परचून वाले भईया भी दाल में कंकड़ मिला रहे हैं, कूलर की घास लगाने वाला भी कम घास लगाता है, गाड़ी बनाने वाला भी अपने चंद मुनाफे के लिए लोकल पार्ट लगा देता है, कम्पनी से आया मैकेनिक पार्ट रिपेयर नहीं करता सीधे बदल ही देता है, डॉक्टर साहब बीमारी सही होने के बाद भी परामर्श पर इलाज करते रहते हैं, अध्यापक अपना कर्त्तव्य सही से पूर्ण नहीं करते और दोष छात्रों का ही देते हैं और वहीं छात्र भी कम नहीं, पढ़ाई तो करते नहीं पर सारा दोष टीचर का ही देते हैं, नकली नेताओं, ठेकेदारों की तो बात करना ही बेकार है, क्या पता, वो उठवा लें।

( अधिकतर लोगों की बात की गई है, सब की नहीं)

जब भ्रष्टाचार १०% या १५% हो तब तो वो भ्रष्टाचार है, परंतु जब भ्रष्टाचार की सीमा ८०% तक पहुँच जाए, तो वह भ्रष्टाचार नहीं रह जाता अपितु उसे संस्कृति कह सकते हैं। भ्रष्टाचार को तो खत्म किया जा सकता है पर शायद संस्कृति को नहीं।


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