Amit Verma

Abstract

3.5  

Amit Verma

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वैचारिक आतंकवाद!

वैचारिक आतंकवाद!

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"वेेैचारिक आतंकवाद" इसे हम "लोकतांत्रिक आतंकवाद" की संज्ञा भी दे सकते हैँ क्योंकि आपको विचार अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता लोकतंत्र ही प्रदान कारता है। कोई "धर्म" के नाम पर तो कोई "जाति" के नाम पर और तो और कोई "यथार्थ" के नाम पर समाज में एसा आंतरिक विरोध उत्पन्न करने का प्रयास कर रहा है। जो अपने क्षणिक स्वार्थ कि अभिलाषाओं की पूर्ती के चक्कर में भूल जाता है की उसकी क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में "मानव,मानव से बँटता जा रहा है।" और जिस क्षण किसी के विचार, मानव में भेद ला देते हैँ उसे बाँट देते हैँ तो वो विचार सिर्फ विचार ना होकर "वैचारिक आतंवाद" का रूप स्वीकार चुका होता है। यह आतंवाद जैसे ही लोकतंत्र की सीमाओं को पार करता है की तुरंत ही उस पर तानाशाही हावी हो जाती है और अपना प्रभुत्व स्थापित करने की लालसा में वे हथियार उठाने में भी नहीं चूकते। ये आतंकवादी आपना उदेश्य चाहे जो भी बातलाएं और वे उसकी पूर्ती कर पा रहे हैँ या नहीं। इस पर तो अवश्य ही प्रशन चिन्ह लगा हुआ है परंतु उनकी क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में "मानवता" का अंत अवश्य ही होता जा रहा है। हिंसा-हिंसा को जन्म देती है और यह गुणनखण्ड तब तक चलता रहेगा जब तक मानव जाति का अंत नहीं हो जाएगा।



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