कौशिकी
कौशिकी
मेरे पति ने शाप देकर मुझे मानव से नदी बना दिया ! क्या कसूर था मेरा, यही न मैं अन्य लड़कियों की अपेक्षा अधिक चंचल थी ? लडकियों का अधिक चंचल होना कोई गुनाह है क्या ? पिता के घर में मैं , सबकी दुलारी चहकती, फुदकती ‘सत्यवती’ के नाम से जानी जाती थी और पति के घर में आकर मैं छिनार हो गई | जो शापित कर ,मुझे सुदूर उत्तर-पूरब हिमालय के कछेड़ में... अनार्य प्रदेश में कौशिकी का नाम देकर बहा दिया।
माना की मेरे पति आर्यऋषि हैं, समाज में उनकी बहुत प्रतिष्ठा है, पर, मेरे पिता...आर्य कुल के ‘गाधि कौशिक’ बहुत ही बड़े प्रतापी राजा थे और मेरा भाई ‘विश्वामित्र’ बहुत ही क्रांतिकारी ऋषि है। माता-पिता की अचानक मृत्यु के पश्चात भाई ने मुझे उन दोनों का प्यार दिया। उनके लिए मैं परी थी , मुझे लगा ही नहीं कि मेरे माता-पिता नहीं हैं...उन्होंने मुझे पढाया-लिखाया। मेरी हर ख्वाइशों को पूरा किया। इतना ही नहीं संस्कारी कहलाने वाले आर्य ऋषि से मेरी शादी कर दी. पर, उनका क्या कसूर ...शादी क्या हुई...मेरी किस्मत में ग्रहण लग गई !
“अरे...बहन तुम रोती क्यों हो ....मैं हूँ न...! जिस अनार्य क्षेत्र में तुम शापित होकर बहने आयी हो ...मैं भी उसी क्षेत्र में रहने आ गया हूँ। यहाँ कोई तेरा बाल बांका नहीं करेगा। भला हुआ जो तुम उस अत्याचारी पति के चंगुल से छुट गई. उसे अपने आर्यऋषि होने का बहुत घमंड है। मैं अपने बहनोई....अर्थात् तुम्हारे अत्याचारी पति ,महर्षि भृगु के पुत्र ‘रिचिक’ का दंभ तोड़ दूंगा।
मेरी बहना, तू चिंता मत कर... ये अनार्य लोग अज्ञानी जरुर हैं, पर कुटिल नहीं , ये लोग दिल के बहुत अच्छे होते हैं। मैं, इन अनार्यों को आर्य की तरह शिक्षित करूँगा ...उनको समाज में पूरा सम्मान दिलाऊँगा। तुम्हारे तट पर उनकी शिक्षा-दीक्षा संपन्न होगी, तुम्हारे जल से परिमार्जन होगा।फिर उन्हें और तुम्हें भी कोई हेय दृष्टि से नहीं देखेगा।
इस धरा पर हमेशा तुम्हारी पूजा होगी , वेदों ,शास्त्रों में तुम्हारी चर्चा मिलेगी, इसतरह तुम हमेशा के लिए अमर हो जाओगी। “
अचानक से जानी पहचानी आवाज सुनकर मैं चौंक गई , पीछे मुड़कर देखी, मेरे भाई खड़ा था , मैं बहुत खुश हो गई ...दौड़कर उनके समीप गई। वो ,तुरंत मेरे जल से आचमन कर , पितरों का तर्पण करने लगे।
भाई को देखकर, मैं पहले की तरह निडर हो गई, कल-कल, छल-छल करके मचलने लगी और पास बहते मित्र ब्रह्मपुत्र से जाकर कहने को उताहुल चल पड़ी।
फिर क्या था, देखते-देखते ...किरात,मत्स्य,भील कोच आदि जंगली समुदायों को आर्य की भांति शिक्षित,सुसभ्य और सांस्कृतिक बनाने का प्रण मेरे भाई विश्वामित्र द्वारा शुरू हो गया , कालांतर में जंगली समुदायों ने उत्तर-पुरबी बिहार से ब्रह्मपुत्र तक कौशिकी-मत्स्य संस्कृति खरी हो गई। तभी से मेरे भाई को विश्वामित्र राजर्षि से ब्रह्मर्षि कहलाने लगे।
लगभग तीन हजार साल के बाद आज मैं, कोसी के नाम से जानी जाती हूँ , कालांतर में ब्रह्मपुत्र और पूरब खिसकती गयी और मैं भी पश्चिम की ओर आने लगी, तो मेरी मुलाक़ात गंगा से हुई, फिर मैं अपनी बहन गंगा के साथ मिलकर बहने लगी।
पति द्वारा प्रतारित और श्रापित मैं, आज कोसी के रूप में गंगा के साथ मिलकर अपने को धन्य समझ रही हूँ। हमारे देश की सबसे बड़ी परम्परा है, सर्वांगीन पवित्रता का भाव। यहाँ मुझ जैसे सभी नदियों की पूजा होती है , हमारे देश की संस्कृति इन्हीं नदियों के तटों पर विकसित हुई हैं।