कौशिकी
कौशिकी


पति ने शाप देकर मुझे मानव से नदी बना दिया ! क्या कसूर था मेरा ? यही न कि मैं अन्य लड़कियों की अपेक्षा अधिक चंचल थी ! लड़कियों का अधिक चंचल होना कोई गुनाह होता है क्या ? पिता के घर में सबकी दुलारी चहकती, फुदकती मैं ‘सत्यवती’ के नाम से जानी जाती थी। परन्तु ससुराल आकर मैं चंचल होने के कारण छिनाल कहलाने लगी। इसी वजह से यहाँ कोई मुझे पसंद नहीं करता ! इसलिए मैं हमेशा दुखी रहती ! मैं दिन भर खटती हूँ, इनके लिए इधन-पानी जुटाती हूँ ...वो इन्हें दिखाई नहीं देता ! मैं चंचल हूँ सो इन्हें नहीं सुहाता ! अरे..मुझे चार दीवारी में कैद कर दोगे तो मर जाऊँगी! पर, बहू की पीड़ा को कौन समझता ! सभी गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं मुझे ! पर, मैं अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकती ! लक्ष्मी चंचला होती है, पर देखो, सब उन्हें पूजते हैं और मुझे...उफ़्फ़! यहाँ सब कुलटा समझते हैं! ओह!
धीरे-धीरे मैं पति के कोपभाजन का शिकार होती चली गई। उन्होंने शाप देकर... मुझे सुदूर उत्तर-पूरब हिमालय के कछेड़, अनार्य प्रदेश में ‘कौशिकी’ नदी बनाकर भेज दिया।
’आर्य कुल’ के ‘गाधि कौशिक’ ... मेरे पिता, बड़े प्रतापी राजा थे और मेरा भाई... ‘विश्वामित्र’ क्रांतिकारी ऋषि। माता-पिता की अचानक मृत्यु होने के पश्चात भाई से मुझे भरपूर प्यार मिला। दुलार से वह मुझे परी बहना कहते थे। उन्होंने मुझे माता-पिता की तरह ना केवल योग्य बनाया अपितु मेरे ख्वाहिशों को पूरा किया। व्यस्क होते ही भाई ने मेरी शादी संस्कारी कहलाने वाले आर्य ऋषि से कर दी। पर, काल के लम्बे हाथ से कोई अछूता कहाँ रहता ! शादी क्या हुई...जैसे मेरी किस्मत में ग्रहण लग गई !
“अरे...बहन तुम रोती क्यों हो ....मैं हूँ ना ...! मुझे जैसे ही पता चला, मैं भागा-भागा तेरे पास आ गया हूँ। अब यहाँ कोई तेरा बाल बांका नहीं करेगा। भला हुआ जो तुम अपने उस आततायी पति के चंगुल से मुक्त हो गई। उसे आर्य ऋषि होने का बहुत घमंड है। मैं प्रण लेता हूँ कि अपने बहनोई, अर्थात् तुम्हारे पति ... महर्षि भृगु के पुत्र ‘रिचिक’ का दंभ तोड़ कर ही चैन की सांस लूँगा। तू चिंता मत कर, अनार्य लोग अज्ञानी जरुर हैं, पर कुटिल नहीं। ये लोग दिल के बहुत भोले होते हैं।
इन अनार्यों को आर्य के समान मैं शिक्षित करूँगा ,उनको समाज में पूरा सम्मान दिलाऊँगा। तुम्हारे तट पर ही उनकी शिक्षा-दीक्षा संपन्न होगी। तुम्हारे जल से सभी परिमार्जन करेंगे। परित्यक्ता अनार्यों को और तुम्हें भी फिर कोई हेय दृष्टि से कभी नहीं देखेगा। इस धरा पर तुम्हारी पूजा होगी, वेदों ,शास्त्रों में तुम्हारी चर्चा होगी। इस तरह तुम हमेशा के लिए अमर हो जाओगी। “
अचानक...भाई की आवाज़ सुनकर मैं चौक गई। इस अनार्य प्रदेश में नदी के वेश में मुझे देखकर कौन बहना कहकर पुकार रहा है ? कहीं मेरे मन का भ्रम तो नहीं है ? पीछे मुड़कर देखी, भाई मेरे सामने पर खड़ा था।
हाँ..वह त्रिकालदर्शी है, इसलिए मुझे इस रूपांतरित वेश में भी पहचान लिया। ख़ुशी से मैं झूम उठी और झट उनके चरणों से जा लिपट गई। उन्होंने मुझे उठाया..हृदय से लगाया, फिर अंजुली में भरकर आचमन किया। तत्पश्चात पितरों का तर्पण करने लगे। मैं मौन एकटक सब देखती रही, मेरे मन से सारे दुःख, क्लेश अब मिट गये।
पहले की तरह मैं निडर होकर कल-कल, छल-छल करके फिर से मचलने लगी और पास बहते अपने नये मित्र ‘ब्रह्मपुत्र’ नदी से सारी बातें कहने के लिए उताहुल हो चल पड़ी।
फिर क्या था ! देखते-देखते ... अनार्य (किरात,मत्स्य,भील, कोच आदि ) जंगली समुदायों को आर्य की भांति सुसभ्य और संस्कारी बनाने का लिया गया प्रण विश्वामित्र द्वारा शुरू हो गया।
इस तरह कालांतर में जंगली समुदायों द्वारा उत्तर-पुरबी(पूर्णिया) बिहार से ब्रह्मपुत्र तक... ‘कौशिकी-मत्स्य’ संस्कृति खड़ी की गई। बस, उसी समय से मेरा भाई विश्वामित्र, ‘राजर्षि’ से ‘ब्रह्मर्षि’ कहलाने लगे।
और मैं,धीरे-धीरे खिसक कर पश्चिम (पुर्णिया-कटिहार ) की ओर बहने लगी। इसी क्रम में मेरी मुलाक़ात ‘गंगा’ नदी से हुई, मैं बहन ‘गंगा’ में समाहित हो गई। पति द्वारा अभिशापित ..आज मैं लोगों द्वारा पूजित हो रही हूँ। सच, मैं यह जीवन पाकर धन्य -धन्य हो गई।