ज़मीर
ज़मीर
में अकसर दिल्ली आता रहा हूँ यहीं से मेंने अपने कैरियर की शुरूआत करके मुंबई का सफ़र तय किया, यहाँ के रास्ते और लोगो ने मेरे धूप छाँव के दिन देखे है कुछ दोस्त जिनसे मेरा आज भी संपर्क है उनसे मिलने को कभी कभार चला आता हूं!
रमेश- मेरा रूम मेट रहा है आज से बीस बाइस साल पहले, मे तो मुंबई में शिफ़्ट हो गया था रमेश अपने शहर को छोड़कर नही गया था और यही अपने बिजनेस में लगा रहा, अभी पिछले हफ़्ते उसका फ़ोन आया था
"अरे राईटर साब कभी भुले से याद भी कर लिया करो
हम भी तुम्हारी कहानी का हिस्सा है"
"अरे नही रमेश" मैंने कहा " में फ़ोन करने ही वाला था आजकल में. थोड़ा बिज़ी था बस..और सुना सब बढ़िया"
" हाँ भगवान की दया से सब ठीक है.... सुन मुझे तुझे कुछ बताना है"
"बता क़्या"
"मेंने दिक्षा की मंगनी तय कर दी है"
"दिक्षा.." मैंने कहा "कौन दिक्षा"
"अरे यार मेरी बेटी और कौन" रमेश झल्लाकर बोला
"सुन अपनी कहानिया रोककर अगले हफ्ते दिन सोमवार को चलें आना और कोई भी बहाना मत बनाने लगना अब... ओके"
" ओके.. में आ जाउँगा" इतना कहकर उसने फोन काट दिया था
में इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट से टैक्सी करके रमेश की भेजी गई करंट लोकेशन तक आ गया था,फ़ोन की बैटरी लॉ होने पर फोन सविच ऑफ़ हो गया मगर मेरे चाय की दुकान पर पता करने पर रमेश का एड्रेस कन्फ़र्म हो गया था जो यहाँ से पन्द्रह से बीस मिनट की पैदल दूरी पर था,मेरे पास सिर्फ़ हेंडबैग था इसलिये बिना किसी परेशानी के में घूमता हुआ चल पड़ा!
दस पन्द्रह साल पहले जब में और रमेश यहाँ रहने आये थे तब ये इलाक़ा इतना विकासित नही था जितना आज है,अब यहाँ पहले से ज़्यादा चहल पहल और रोनक़ हो गई है,कई बिल्डिंग और साफ़ सुथरे रॉड फैल गये है,कुछ रसूख रखने वाले लोगों के पोस्टर यहाँ वहाँ लगें थे जिनके चेहरो से क्या में उनके नामो से भी वाकिफ़ नही था जो यहाँ के लॉकल नेता थे, चलते चलते एक बैनर पर मेरी नज़र टिक गई जिसको में पहचान सकता था- ग़फ़्फ़ार सेठ ये आदमी जब में यहाँ रहता था तब मामुली गुन्डा था देखते ही देखते ये गुण्डागर्दी में तरककी करता चला गया मेरे यहाँ रहते टाइम ही ये यहाँ का कॉन्सलर बन गया था, प्लॉटो पे कब्ज़े से लेकर हफ़्ता वसूली फिरोती लेकर क्राइम करना इसका पेशा रहा था अब ये किसी राजनेतिक पार्टी में शामिल हैं,
ये सब देखते सोचते हुए में काफ़ी दूर आ गया था और अब मुझे रॉड क्रॉस करना था, में सर्विस रॉड के बराबर चलता हुआ जेब्रा क्रॉसिंग की तरफ़ बढ़ रहा था के मेरी नज़र सड़क किनारे खड़े एक बुज़ुर्ग पर गई जो सेहत से और हालात से बहुत कमज़ोर नज़र आ रहे थे और शायद आँखों की नज़र भी कम होने की वजह से सड़क पार करते हुए डर रहे थे, गाड़ियो के हॉर्न से कभी डरकर पीछे हटते कभी आगे बढ़ते पर सड़क पार नही कर पा रहे थे, में उनके पास गया और पूछा "बाबा सड़क पार करोगे"
"हाँ" उन्होने फ़ौरन कहा
मैंने उनका हाथ अपने हाथ में थाम लिया और हम दोनों सड़क पार कर गये
"कहाँ जाओगे" मैंने बाबा से पूछा
" भईया घर जा रहा हूं"
"घर में कौन कौन है बाबा तुम्हारे साथ"
"अब तो बेता बस मेरी बुढ़िया ही है" बाबा ये कहते हुए उदास लगे
" अब कहाँ से आ रहे थे"
" पीछे एक मस्जिद है वहाँ साफ़ सफाई करता हूं... ज़िंदगी चल रही है भईया"
"बाबा तुम्हारे कोई बेटा नही है"मैने पूछा
"एक है"
" कहाँ रहता है तुम्हारे साथ नही रखता"
"नही" बाबा के इस नही में बहुत कुछछुपा हुआ था
"रहते कहाँ हो बाबा तुम"
" ग़फ़्फार सेठ का नाम सुना है" बाबा ने पूछा मुससे, मेंने कहा "हाँ"
" उसकी कोठी के सामने जो बस्ति है उसमे खोली में रहता हूँ"
" गफ़्फ़ार सेठ तो गुन्डा आदमी है...तुम्हे वो परेशान तो नही करता" मैने ऐसे ही पूछ लिया
"नही..." बाबा थोड़े विचलित से दिखे " कौन कहता है ग़फ़्फार सेठ गुन्डा है... वो तो.. वो तो हर साल मुझे कंबल भी देता है"
बाबा की कंबल देते की बात पर मे अन्दर ही अन्दर मुस्कराया और सोचा शायद बाबा ग़फ़्फ़ार सेठ को ज्यादा नही जानते और मैने भी बहस नही की, अब में रमेश के घर के पास पहुँच चुका था और बाबा को मुझसे पहले दूसरे रास्ते पर मढ़ जाना था
"ठीक है भईया मुझे ईधर जाना है" बाबा ने कहा
"ठीक है बाबा"
बाबा जब चलने को मुढ़े मैने उनसे पूछा
"बाबा तुमने बताया नहीं... तुम्हारा बेटा कहाँ है"
"दरअसल.." बाबा बोले " ग़फ़्फार सेठ ही मेरा बेटा है" इतना कहकर बाबा अँधेरी गलियों में गुम हो गया और में गफ़्फ़ार सेठ के ज़मीर और किरदार को नीचता की कसौटी पर तौलता खड़ा रह गया !
