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Shahwaiz Khan

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Shahwaiz Khan

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वरदान

वरदान

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ये भारत का स्वर्ण युग है, जहाँ हर तरफ़ खुशहाली की हवा चल रही है, हर हाथ को काम, हर फ़नकार को उसके फन की क़ीमत और इज़्ज़त यहाँ बराबर मिल रही है, किसान हो या मज़दूर सब के चेहरो पर चिंता की कोई लकीर नही है, ये भारत वर्ष का भरतगढ़ राज्य है जहां पर विख्यात राजा हरिसिंह के बेटे राजा गणेशमान राज करते हैं इनके राज में इन्साफ़ सर्वोपरि है,

  राजा हरिसिंह युवा राजकुमार गणेशमान को अपनी गद्दी सौंपकर ख़ुद संन्यास लेकर हिमालय पर्वतो में कहीं ध्यान मग्न हो गये थे, राजा गणेशमान स्वयं भी ऋषि मुनियों के संपर्क में सदैव तत्पर रहते थे उनके इसी सेवा भाव से प्रसन्न होकर महान तपस्वी ऋषि कार्तिकय ने अपने पूरे जीवन काल की तपस्या से जो मन्त्र मिला था वो उनको दे दिया था ताकि एक राजा होने के नाते वो उसका उपयोग मानवता के लिए कर सके,

  उस मन्त्र की विशेषता थी कि उसे पढ़कर किसी के भी मृत शरीर में अपनी आत्मा प्रवेश करा कर मृत शरीर को जीवित किया जा सकता था,

  राजा गणेशमान के इस रहस्य को उनकी पत्नी रानी केतकी और उनका प्रधानमंत्री भानू प्रताप सिंह के अलावा कोई नहीं जानता था, चुकीं भानू प्रताप सिंह प्रधानमन्त्री के अलावा राजा का बचपन का दोस्त भी था इसलिए राजा ने उसको भी ये मन्त्र सीखा रखा था,

  समय अपनी गति से गतिमान चला जा रहा था राज्य और राजा का परिवार सब सुखमय जीवन जी रहे थे, एक दिन राजा गशेषमान और भानू प्रताप सिंह अपने महल से आखेट पर निकले, बिना किसी सैनिको के दोनो अपने घोड़ो पर सवार जब जंगल में शिकार ढूँढ रहे थे तभी भानू प्रताप सिंह की नज़र एक मृत बंदर पर पड़ी और उसने ठिठक कर अपने घोड़े की लगाम खींचकर वही रोक दिया, राजा गणेशमान अचानक भानू प्रताप सिंह के रूक जाने से उन्हें भी अपना घोड़ा रोकना पड़ा,

   " क़्या हुआ भानू... रुक क्यूँ गए"

   भानू ने मरे हुए बंदर की ओर संकेत करते हुए कहा-

   " महाराज देखिए... कितना हष्ट पुष्ट और युवा बंदर है पता नहीं कैसे मरा होगा ये"

   " इसमें हैरानी की क़्या बात है... मृत्यु तो अटल है जो हर जीव को निश्चिंत आनी है... इसकी मृत्यु आ गई थी इसलिए ये मर गया"

   " आपके वचन सत्य है महाराज... मगर मेरी इच्छा है कि में इसे कुछ पल के लिए जीवित देख सकूं" राजा गणेशमान भानू की बात को जैसे समझ गए थे और वो मुस्काए फिर बोले-

   "तुम चाहते हो कि हम अपने प्राण से इसे जीवित करें"

   " महाराज कितने वर्ष हो गए हैं आपके इस चमत्कार को देखे हुए... आज मौक़ा भी है... आपसे सिर्फ़ विनती है"

   "नही भानू ऐसा ना कहो तुम हमारे सिर्फ़ प्रधान सेवक ही नहीं हमारे प्रिय मित्र भी हो.. पर तुम ख़ुद अपने प्राणों से इसको जीवित क्यूँ नही कर लेते हमने तुम्हें इस मन्त्र की इजाज़त दे रखी है"

    " परन्तू महाराज अगर में अपने प्राणों से इसको जीवित कर देता हूं तब में इसे अपनी आंखों से जीवित कैसे देख पाउँगा और वैसे भी इस मन्त्र को मेंने आपसे ही सीखा है तब आप मेरे गुरुवर हुए और गुरु के सामने होते हुए में स्वयं नही करना चाहता"

   "ओह-फिर ठीक है भानू" राजा गणेशमान अपने घोड़े से उतरते हुए बोले " हम स्वयं इसे कुछ पल के लिए जीवित करते हैं-पर तुम्हें याद है ना जब मेरे प्राण इस बंदर के मृत शरीर में प्रस्थान कर जाएंगे तब जब तुम इसे जीवित देख लो तब तुम्हें मेरे मृत शरीर की आँखों को अपनी दाहिनी हथेली से ढक लेना है ताकि में अपने प्राण फिर से अपने शरीर में वापिस कर सकूँ"

   " जी महाराज ये सारी प्रकिया में जानता हूं"

   "फिर ठीक है" कहकर राजा गणेशमान बंदर के मृत शरीर के पास लेट गए और मन्त्र का उच्चारण आरम्भ कर दिया, कुछ ही पल में राजा गणेशमान के प्राण बंदर के मृत शरीर में चले गए और मृत बंदर जीवित होकर उठ बैठा,

  मगर प्रधान सेवक भानू प्रताप सिंह के दिल में कुछ और ही चल रहा था जैसे ही बंदर सजीव हुआ उसने अपने म्यान से अपनी तलवार खींच कर बंदर को मारने चल पड़ा बंदर के शरीर में वास कर रहे राजा के प्राण समझ गए कि भानू प्रताप सिंह ने उसके साथ विश्वासघात किया है और वह अपने प्राण बचाने हेतू पेड़ पर चढ़ गया,

  नीचे खड़ा भानू प्रताप सिंह ठहाके लगा रहा था

  " बेवकूफ़ राजा अब राजा तू नही में बनूगाँ- इसी दिन का मुझे इंतज़ार था- तूने एक नही दो ग़लती की है- एक मुझे अपना प्रधान सेवक बनाकर और दूसरी ये मन्त्र सीखाकर- अब इसी मन्त्र से अपने प्राण तेरे शरीर में प्रविश्ट करके अपने शरीर को नष्ट कर तेरे नाम से तेरे शरीर के साथ राज करुगाँ " 

   भानू प्रताप सिंह ने ऐसा ही किया और प्राण मन्त्रो से राजा गणेशमान के मृत शरीर में प्रवेश करके अपने शरीर को नदी में बहा दिया, बंदर बना राजा बस उसे देखता ही रह गया!

  राज्य में जाकर राजा बना भानू प्रताप सिंह ने एक झूठी कहानी गढ़ दी हमारे प्रधान सेवक को जंगल में शेर मारकर खा गया और उनकी जगह अपने प्रिय को अपना प्रधान सेवक घोषित कर दिया और सबसे पहले यह हुक्म दिया कि हमारे राज्य में जितने भी बंदर है उन सभी को कैद कर मौत के घाट उतार दिया जाए ताकि बंदर बना राजा भी उनके साथ मरकर खत्म हो जाए,

  अब राजा बना भानू प्रताप सिंह अपनी इच्छाओ के अनुरूप जीवन जीने लगा और महल में अब नर्तकियों का नाच गानें मदिरा के जाम छलकने लगे, प्रजा पर लगान बढ़ा दिया गया और सवाल करने वालों या किसी प्रकार की शिकायत करनें वालों पर कार्रवाई की जाने लगी, महल में किसी ऋषि या महात्मा पुरुष के आने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया, प्रजा में यह चर्चा अब आम होने लगी थी कि राजा गणेशमान अब ऐसा नहीं रहा जैसा पहले कभी हुआ करता था,

  रानी केतकी भी हैरान थी और उसके हाव भाव में फ़र्क देख रही थी पर किसी निर्णय पर नही पहुँच पा रही थी कि ऐसा क्यों हो रहा है,

  आखेटक भैरों सिंह- जो भरतगढ़ का प्रसिद्ध शिकारी था जिसकी वीरता और प्राक्रम ने कितनी ही बार भरतगढ़ को नरभक्षी जानवरों से बचाया था आज भी वह जंगल में ही अपने शिकार की तलाश में था, दोपहर थी और सूरज सिर पर चढ़ा था, भैरों सिंह प्यास से व्याकुल होकर नदी किनारें पानी पीने पहुँचा, जैसे ही उसने पानी पीने के लिए अपने घुटने टेक कर हथेलियों में पानी भरकर उठाया उसकी नज़र पानी में तैरती एक लाश पर पड़ी, उसकी वेशभुषा देखकर भैरों सिंह को ये समझने में बिल्कुल भी देर नहीं लगी कि मृत व्यक्ति का किसी राजघरानें से ताल्लुक़ है और उसने उसे बाहर खीचने के लिए अपने कमर पर बँधी रस्सी को खोलकर लाश को पानी से बाहर खींचा और फिर मृत व्यक्ति को देखकर चौंक गया, क्योंकि यह लाश प्रधान सेवक भानू प्रताप सिंह की थी जिसे ख़ुद भानू प्रताप सिंह ने नदी में बहा दिया था,

और भैरों सिंह सोच रहा था कि उसने तो राज्य में ये चर्चा सुनी थी कि प्रधान सेवक को शेर खा गया जबकि इसके शरीर पर तो घाव की एक लकीर भी नहीं है फिर राजा गणेशमान ने झूठ क्यूँ बोला,

  भैरों सिंह भरतगढ़ के जंगलों में ही वास करता था उसके परिवार में उसकी पत्नी गौरी और एक पुत्र धरम सिंह था, धरम सिंह अचूक निशानेबाज था, तीर कमान और सुमूराई में उसने महारथ हासिल कर अपने पिता भैरों सिंह को भी कहीं पीछे छोड़ दिया था,

  भैरों सिंह जब अपने निवास स्थान पर पहुँचा तो उसकी पत्नी उसके घोड़े की टाप की आवाज़ पर अपने लकड़ी के बने घर से दौड़ती हुई उसके पास आई, भैरो सिंह अपने घोड़े से उतरा और अपनी पत्नी गौरी को देख कर बोला-

  " क़्या बात है गौरी- क्या कोई जानवर से डर गई थी जो इतना घबराई हुई लग रही है"

   " नही वो बात नहीं है" गौरी बोली

   "फिर क़्या बात है- जो तु मेरे आने पर ऐसे घबराई हुई लग रही है"

   " दरअसल धरम सिंह को जंगल में एक बंदर मिला है"

   " बंदर- तो उसमे क्या नई बात हो गई- ये तो जंगल है और जंगल जानवरों का बसेरा है"

    " मगर वो बंदर इंसानों की ज़ुबान में बात कर रहा है"

    " क्या बक रही है- पागल तो नहीं हो गई है- भला कोई बंदर बोल कैसे सकता है"

    "मेरे भी कुछ समझ नहीं आ रहा है मगर धरम सिंह से वो बहुत देर से बात कर रहा है- आईये आप भी देखिए"

    "चल ज़रा में भी तो देखूँ"

    भैरों सिंह ने जब अपने निवास स्थान में प्रवेश किया तब देखा कि एक बंदर बिलकुल एक सभ्य मानव की तरहा तख्त पर बैठा है और उसके सामने धरम सिंह भैरो सिंह का बेटा बैठा है और दोनो आपस में बात कर रहे हैं, ये दृश्य देखकर भैरों सिंह भी कुछ देर के लिए चक्कर खा गया कि आखिर ये माजरा क्या है, बंदर इंसानी ज़ुबान में कैसे बात कर सकता है, पिता को देखते ही धरम सिंह बंदर के पास से उठकर अपने पिता के पास आया और बोला- "पिता जी जो बंदर आप देख रहे हैं असलियत में वो बंदर के शरीर में हमारे महाराज राजा गणेशमान है इनके साथ छल हुआ है, हमारे महाराज को महान ऋषि कार्तिकय ने वरदान में एक मन्त्र दिया था जिसके जाप करने से अपने किसी दूसरे मृत शरीर में प्रवेश कर सकते हैं पर वापिस अपने शरीर में लौटने के लिए किसी को अपने छोड़े गए शरीर की आँखों को हथेलियों से ढकना होता था"       

   धरम सिंह ने सारी कथा अपने पिता को कह सुनाई और ये भी बताया कि आज जंगल में उसने महाराज की जान एक तेंदुए से बचाई जो इन्हें बंदर समझ अपना शिकार बनाने वाला था, मगर इनका इंसानी आवाज में शोर सुनके मैंने इनको बचा लिया उसके बाद जब इन्होने अपना परिचय मुझे दिया तो मै इनको घर ले आया,

  ये सब सुनकर भैरों सिंह ने राजा को हाथ जोड़कर नमसस्कार किया और बोला-

  " में आज नदी में प्रधान सेवक भानू प्रताप सिंह की लाश देख कर ही समझ गया था कि कुछ ना कुछ रहस्य है जबकि उसने राज्य में ख़ुद की मौत की ख़बर शेर से हुई बताई है जबकि उसकी लाश पर कोई ज़ख्म का निशान तक नहीं था"

   " तुम ठीक कह रहे हो भैरों सिंह" बंदर बने राजा ने कहा " वो हमारे राज्य को तबाह कर रहा है अब हमें उसे रोकना होगा- इसके लिए हमें तुम्हारी और तुम्हारें बेटे की आवश्यकता होगी"

   " हमारी जान भी हाज़िर है आपके लिए महाराज कहिए क़्या करना है"

   " हमें अपना शरीर फिर से वापिस पाना है और उस पापी को उसके किए की सज़ा देने के लिए एक सान्ग रचना होगा- उस छलिए को छल से ही काबू में किया जा सकता है" 

   फिर राजा ने तरकीब बताई जिसे भैरों सिंह और उनके बेटे धरम सिंह ने बहुत ध्यान से सुना,

  " भैरो सिंह हमें कागज़ कलम दो हमें रानी केतकी को पत्र लिखना है क्योंकि रानी केतकी के साथ आए बिना हम कुछ नहीं कर सकते" और फिर राजा गणेशमान ने रानी केतकी के नाम पत्र लिखा जिसमें उन्होंने सारा क़िस्सा लिख डाला और अब आगे क्या करना है वो सब भी पत्र में लिख दिया, पत्र धरम सिंह को देते हुए राजा ने उसको कहा-

  "महल के पश्चिमी भाग में कमल के फूल वाली जो जाली दिखती तुम्हें दिखाई देगी वही रानी केतकी की आरामगाह है, तुम्हें ये पत्र अपने तीर से वहाँ तक पहुँचाना है और उनके जवाब का इंतेज़ार करना है"

   "वो मुझे जवाब कैसे देगीं" धरम सिंह ने पूछा

   " मैने इस पत्र में लिख दिया है- जब वो ये पत्र पढ़ लेगीं तब वो अपनी आरामगाह से एक मशाल जलाकर दिखा देगीं तुम समझ जाना कि पत्र उन्हें मिल गया है और फिर हम आगे कि कार्यवाही पर काम करना आरम्भ कर देगें"

  पत्र लेकर धरम सिंह अपने घोड़े पर सवार होकर चला गया,

  रात हो चली थी, चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था, राजा के महल चारों ओर से सैनिक टुकड़ियो से घिरा था,धरम सिंह राजा के महल की पश्चिम दिशा के ठीक सामने वाली पहाड़ी पर पहुँच गया था और अब उसके सामने राजा की बताई हुई कमल के फूल वाली जाली साफ़ नज़र आ रही थी जो कि रानी केतकी की आरामगाह थी,

  धरम सिंह ने राजा के दिए हुए पत्र को अपने तीर के मुख पर लगा कर उसको अपनी कमान से रानी केतकी की आरामगाह की तरफ़ छोड़ दिया, तीर जाली छेदता हुआ अन्दर जाकर एक स्तम्भ मे जा गढ़ा, तीर आवाज़ पर आराम कर रही रानी केतकी अपनी शय्या से उठ बैठी और जब उसने आवाज की दिशा में देखा तो स्तम्भ मे तीर के साथ आए पत्र पर उसकी नज़र पड़ी, रानी ने तीर से निकालकर पत्र पढ़ना आरम्भ किया, जैसे जैसे वो पत्र पढ़ती जाती वैसे वैसे मारे हैरत और परेशानी के उसकी आँखे फैलती जा रही थी, पत्र में अपने राजा का हाल जानकर रानी केतकी की आँखें भर आई फिर कुछ पल बाद राजा के पैग़ाम में जो कहा गया था उसे वो याद आया और उसने अपने आँसू पोछ लिए,

  रानी केतकी ने अपने महल की जाली से मशाल जलाकर पत्र लाने वाले को इशारा दिया ताकि अब वो यहाँ से जा सके,

   जलती मशाल देखकर धरम सिंह समझ गया कि रानी तक पैग़ाम पहुँच गया है और उसे अब यहाँ से चलना चाहिए,

   इधर रानी केतकी अपनी शय्या से निकल कर राजा के दरबार की ओर चल पड़ी जहाँ अब दिन हो या रात महफिले सजी रहती थी, दरबार के गेट पर पहुँच कर रानी ने दरबारी से कहा कि "राजा को जाकर संदेशा दो कि हम उनसे अभी मिलना चाहते हैं- हम उनका बगीचे में इंतज़ार कर रहे हैं" इतना कहकर रानी बगीचे में पहुंच कर राजा का इंतेजार करने लगी, कुछ ही देर में राजा नशे में लड़खड़ाता हुआ आ गया और बोला "क्या बात है रानी केतकी यूँ अचानक हमें क्यूँ बुलाया" रानी को एक पल के लिए जहाँ भर का गुस्सा आया मगर उसने खुद पर नियत्रण कर स्नेह से कहा-

   " शायद आप भूल रहे हैं कि कल हमारा जन्मदिन है" रानी केतकी बोली " और हमेशा की तरह इस बार भी आप हमारी मुँह माँगी एक कामना पूरी करेगें"

  राजा ने सुना और सोचा कि शायद हर बार होता आया होगा " हाँ हाँ क्यूँ नही, बोलो क्या चाहती हो"

  " हमें आप पिछली बार की तरहा इस बार भी बन्दर का तमाशा दिखा दीजिए, उसे देखकर हमें बहुत प्रसन्नता हुई थी"

  " बन्दर का तमाशा" राजा अचरज से बोला

" रानी हमें तो लगा तुम कोई आभूषण मांगोगी मगर ये बन्दर का तमाशा देखना चाहती हो, हमें हेरत है"

  कुछ देर यूॅ ही बात चलते चलते राजा मान गया कि जन्मदिन पर दरबार में बन्दर का तमाशा होगा!


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