नयना
नयना
कुदरत का नियम है कि वो हर ज़िंदगी के लिए रास्ता बनाती आ रही है, कहीं बुरा है अगर तो कुदरत उसी जगह कुछ अच्छा भी ज़रूर रख देती है और जहाँ अच्छा हो वहाँ थोड़ा बुरा सहा जा सकता है! मगर जब बुराई अपना परचम लहराने लगती है तब कुदरत अपना खेल दिखाती है और बुराई पर अच्छाई की जीत को अमर करती है।
बात 60s के दशक की है, उत्तर प्रदेश के दक्षिण में राजा दयाराज की अपनी ख़ानदानी रियासत थी दो बरस से बरसात ना होने की वजह से यहाँ सूखा पड़ गया था जिससे लोगों को दाना पानी मिलना दुर्लभ हो गया था राजा दयाराज अपनी रियासत को भुखमरी से बचाने के लिए हर भरसक प्रयास कर रहे थे। घर घर जाकर उनके आदमी लोगों की मदद कर रहे थे।।
राजा दयाराज भगवान सरीखे पूजे जाते थे, बच्चे बूढ़े सब उनके नाम से ख़ुश हो जाते थे।
राजा दयाराज के एक ही बेटा था रविराज जो विदेश से पढ़ाई पूरी कर इसी साल महल में आया था इसी साल वो अपने बेटे को अपनी रियासत की पगड़ी पहना कर अपनी गददी पर उसे बैठाने वाले थे।
राजा दयाराज ने सूखे से जूझ रहे लोगों की सलामती और वर्षा हो जाने के लिए एक यज्ञ का आह्वान किया था।
दूर दूर से संत इसमें शामिल थे, राजा दयाराम के कुलगुरू महंत श्री निर्मल दास ने यज्ञ शुरू किया और रात के तीसरे पहर तक यज्ञ सपन्न हुआ, सभी संत और भक्त गणो को विश्राम ग्रह में ठहराया गया और महंत श्री निर्मल दास जी राजा दयाराज के महल में ठहरे!
आम दिनों की तरह आज भी वैसे ही सुर्य अपने तय समयनुसार सुर्योदय लेकर हाज़िर था।
पूजा पाठ से निबटकर राजा दयाराज महंत श्री निर्मल दास जी से मिलने पहुंचे और दरवाज़े के पास जाकर ठिठक कर रुक गये,अंदर से वार्तालाप होने की आवाज़ आ रही थी
महंत किसी बहुत ही कुंठित और गुस्से वाली स्त्री से बात कर रहे थे, उस स्त्री का गला बैठा मालूम पड़ता था ऐसा लगता था जैसे वो कुछ देर पहले तक बहुत चीख़ी और रोकर आई हो
मगर राजा दयाराज की समझ में ये नही आ रहा था के ये औरत है कौन और महल मे कैसे आ गई अगर आ गई तो फिर महंत तक कैसे पहुँच गई
अभी दयाराज इसी कशमकश में अपनी सोचो में गुम थे। कि उन्हें अहसास हुआ कि अब आवाज़ आनी बंद हो गई है
राजा ने दरवाज़ें पर दस्तक दे कर महंत श्री निर्मल दास जी को पुकारा
"चले आओ दयाराज" ये महंत जी की आवाज़ थी
राजा दयाराज दरवाज़ा खोल कर अंदर आ गये मगर ये क्या
अंदर महंत तन्हा बैठे थे। कक्ष में कोई और नहीं था
दयाराज को इधर उधर देखता देख महंत श्री निर्मल दास जी ने पूछा
"क्या ढूँढ रहे हो दयाराज"
"क्षमा करें ..महाराज मेने अभी अभी दरवाज़े से किसी स्त्री के आपसे बात करने की आवाज़ सुनी थी मगर यहाँ तो कोई नही है"
"वो अभी भी यहीं है दयाराज इसी महल में"
"इसी महल में? पर मैंने कभी नहीं देखा महाराज... कौन है वो" दयाराज ने हैरत से पूछा
" तुम्हारी पत्नी"
"नयना..?..पर वो तो बीस साल पहले मर चुकी है महाराज"
"हाँ..बीस साल पहले उसका शरीर मिट चुका है दयाराज... मगर उसकी आत्मा आज भी यहीं भटक रही है .. तुमसे अपने बदले की ज्वाला को शांत करने के लिए।"
"बदला...कैसा बदला महाराज..ये आप क्या बोले जा रहे हो"
"इसका जवाब खुद तुम्हारे पास है दयाराज...और इसका प्रायश्चित या सज़ा भी तुम्हें ही चुकानी होगी।"
इतना कहकर महंत श्री निर्मल दास जी यहाँ से जाने के लिए खड़े हो गए
राजा दयाराज हाथ जोड़कर बोले "ये कैसी दुविधा में डालकर जा रहे हैं महाराज... इसका कोई समाधान तो बताते जाइये शिष्य को"
"पहले अपना गुनाह कबूल कर लो...याद करो अपने हर एक गुनाह..फिर चले आना मेरे पास" इतना कहकर महंत श्री निर्मल दास जी महल के कक्ष से निकल गये और दरवाज़े पर जाकर रुक कर पलटे और बोले " ये सूखा जो आम जनता भोग रही है ये भी तुम्हारे गुनाह की सज़ा का हिस्सा है"
इतना कहकर वो तो चले गए मगर राजा दयाराज के लिए अजीब सा डर छोड़ गये,
राजा दयाराज बड़े से उस कक्ष में तन्हा बैठे थे, जिसकी दीवारों पर उनके वंशजो की तस्वीरे लगी थी, अंग्रेज़ी हुकूमत के जाने से लेकर आज़ाद हिन्दुस्तान के बनने तक ना जाने कितनी पुश्ते अपनी रियासतों पर राज करती आ रही थी,राजा दयाराज राजा मंगल सिंहँ का इकलौता बेटा था, कहते हैं मंगल सिंह बहुत क्रूर स्वाभाव और अय्याश थे।
उनके कितनी ही स्त्रीओं से नाजायज संबंध भी थे। उनकी पत्नी श्रीतारा थी।
" आपने मुझे बुलाया पिताजी" दरवाज़े पर राजा दयाराज का पुत्र धर्मराज था
"हाँ आओ" धर्मराज आकर पिता के सामने बैठ गया
कुछ देर की ख़ामोशी के बाद राजा दयाराज ने कहा
"धर्मराज हम चाहते हैं कि तुम वापस विदेश चले जाओ"
" क्यूं पिताजी... अब हम वहाँ रहकर क्या करेंगे"
"अभी तुम यहाँ के हालात देख ही रहे हो जब तक यहाँ के हालातों को हम ठीक ना कर ले तब तक के लिए तुम वही रहना"
"ठीक है" धर्मराज ने इसके आगे कोई सवाल नहीं किया
" अपनी जाने की तैयारी कर लो... तुम कल सुबहा ही निकल रहे हो" दयाराज ने कहा जिसे सुनकर धर्मराज सर हिलाकर चला गया!
स्याह रात में तीन साये पैदल ही चले जा रहे थे, एक के हाथ में लालटेन थी जो आगे चलता हुआ रास्ता दिखा रहा था, एक जगह जाकर वो रुक गये!
ये राजा दयाराज था जिसके साथ उसका वफ़ादार नौकर खड्ग सिंह और तीसरा व्यक्ति काले कपड़ों में कोई तांत्रिक था जिसके गले में कई प्रकार की मालाये और हाथों में तन्त्र मन्त्र का सामान था
खड्ग सिंह ने लालटेन एक पेड़ की टहनी पर टाँग दी जिससे वो रौशनी में अपना काम ठीक तरह से कर सके
"ये ही वो जगह है जहां उसको गाड़ा था" राजा दयाराज ने साथ में आये तांत्रिक को ज़मीन पर एक गडडे को दिखाते हुए कहा, तांत्रिक ने उस जगह को देखकर अपने साथ लाये सामान को जमीन पर रखा और अपने काम में लग गया, तांत्रिक ने गड्डे के पास एक बडा सा सफेद पाउडर से गोलाकार बनाया और उसमे कुछ नकश बनाते लगा तली उसको ऐसा लगा जैसे कोई चीज़ उसके सीने से टकराई और उसमे समा गई हो, वो धड़ाम से पीछे जा गिरा, पास सड़े राजा दयाराज और खड़ग सिंह कुछ समझ नही पाये के ये क़्या हुआ,
"आ गया तू" तांत्रिक बोला, जबकि वो आवाज़ तांत्रिक की नहीं थी वो किसी औरत की थी "अब तू कुछ नही कर पायेगा मुझे बरसो से इसी पल का इंतजार था, तेरे पापों का घड़ा भर चुका है कर्ण सिंह, अब तुझे में इस पवित्र वंश दाग़ नहीं लगाने दूंगी"
दयाराज की आँखें ये सब सुनकर फैलती चली गई,वो इस आवाज़ को भलीभाँति समझ सकता था!
कच्ची सड़क पर एक रोल्स-रॉयस फैंटम कार दौड़ते हुए अपनी मन्जिल की ओर अग्रसर थी, कार खडग सिंह चला रहा था और पीछे चेहरे पर ज़माने भर की परेशानी लिये राजा दयाराज बैठा था,
कार एक आश्रम के गेट के पास जाकर रुक गई, राजा दयाराज खड्ग सिंह को गाड़ी में छोड़ ख़ुद ही अकेले आश्रम में गया, ये आश्रम महंत श्री निर्मल दास जी का था,
राजा दयाराज महंत के सामने पहुँच कर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, बिना कुछ बोले
महंत ने उसको देखा और पूछा-
"पता कर आये...अपने गुनाह का" राजा अब भी चुप था
" चुप क्यूँ हो कर्ण सिंह"
"क्या बताया तुम्हें नयना की आत्मा ने" राजा महंत को घूर कर बोला
"यही के तुम राजा दयाराज नहीं हो... बल्कि मंगल सिंह के नाजायज बेटे कर्ण सिंह हो जिसकी माँ एक वैश्या थी" महंत बोल रहे थे। और राजा कुटिल मुस्कान से सब सुन रहा था" तुम्ही ने राजा दयाराज की हत्या कर उसका क्रिया क्रम किया था...और उसकी जगह लेकर महल में आ गए थे।...तुम जीत गए थे। पर तुम्हें राजा दयाराज की पत्नी ने पहचान लिया था जिसकी तुमने अपने हाथों से गला दबाकर कर हत्या की थी जो गर्भ से थी... तुमने प्रजा के सामने दूसरा ब्याह कर अपने गंदे वंश को आगे बढ़ाया पर बीस साल तक इंतजार करके नयना की आत्मा अपने परमात्मा से इतनी शक्ति प्राप्त करने में करने में कामयाब हो गई है जो वो तुम्हें सज़ा दे सकती है... तुम्हारा खेल ख़त्म होने को है पापी।"
"वो कुछ नहीं कर पायेगी मेरा" कहते हुए कर्ण सिंह ने छुपी हुई कटार निकाली "मेरे बारे में सब जानकर तूने बड़ी गलती की है बुड्ढे...अब तेरा भी वही अंजाम होगा जो में दूसरों के साथ करता आया हूं" कर्ण सिंह ने कटार महंत के सीने में भौंक दी, महंत लड़खड़ाकर ज़मीन पर गिर पड़े!
दो घोड़ों से जुड़ा रथ सरपट दौड़ा जा रहा था, उसमें सवार था धर्मदास जो अपने पिता के कहे अनुसार विदेश जाने के लिए दिल्ली जा रहा था, अचानक रथ का पहिया निकल गया और रथ पलट गया घोड़े हिनहिनाते हुए खाई में लुड़कते चले गए, सारथी का सर किसी पत्थर से टकराया और वो बेहोश हो ग्या, धर्मदास जख्मी हालत में लुढ़कता हुआ खाई की घाटियों में बने मन्दिर की सीढ़ियों पर जा गिरा,
कर्ण सिंह अब महल में था, उसने अपने पास नंगी तलवार और बंदूक रख रखी थी और बैठा हुआ महामृत्युजय मन्त्र का पाठ कर रहा था,
कर्ण सिंह को अपना अतीत रह रह कर याद आ रहा था
उसके जीवन की सारी पटकथा उसकी वैश्या माँ ने लिखी थी, मंगल सिंह के पुत्र दयाराज और कर्ण सिंह का जन्म दो महिने के अंतराल पर हुआ था और कुदरत ने दोनों को एक जैसी ही शकलें दी थी, यही से कर्ण सिंह की माँ ने ये साजिश रची थी, जवान होने पर कर्ण सिंह से दयाराज को मरवाकर कर्ण सिंह को दयाराज बना कर महल में भेज दिया था, कर्ण सिंह ने ही अपने पिता मंगल सिंह को शराब में ज़हर डालकर उन्हें मार डाला था, ये सारा खेल दौलत के लिए खेला गया था मगर उसके सारे गुनाह का कोई भी गवाह इस दुनिया में नहीं था मगर नयना की आत्मा कैसे उसके राह में आ गई, वो सोचने लगा अतीत के पन्नों पर नयना की छवि उभरने लगी-
राजा दयाराज की पत्नी देवी दुर्गा माँ की भक्त और पतिवृता नारी थी, एक शाम कर्ण सिंह गाँव की किसी औरत को हवेली में अपनी हवस का शिकार बना रहा था वो चीख रही थी, मगर कोई उसकी मदद करने वाला वहाँ नहीं था, उसी हवेली के पास माँ दुर्गा के मन्दिर में नयना पूजा कर रही थी जब उसके कानों में ये चीखे आई और चीखों का पीछा करती हुई हवेली में आ पहुँची, वहाँ का नज़ारा देख वो सकते में आ गई जिस राजा दयाराज को भगवान का दर्जा देती आ रही है वो शैतान कैसे हो सकता है
"दयाराज" नयना गरज कर बोली "वही रुक जाओ...तुम इतने वहशी जानवर हो ऐसा मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था"
नयना को वहाँ देखकर कर्ण सिंह चौक गया और उस औरत को छोड़ दिया, वो औरत रोती हुई वहाँ से भाग गई
और कर्ण सिंह तलवार लेकर नयना पर टूट पड़ा, नयना खुद को बचाकर वहाँ से निकल गई, कर्ण सिंह कन्हैया संग उसका पीछा करने लगा, नयना जान बचाकर माँ दुर्गा के मन्दिर में आकर छुप गई, कर्ण सिंह भी वहां पहुंच गया
" खड़ग सिंह" कर्ण सिंह बोला "नयना मेरे लिए ख़तरा बन गई है इसे अभी ढूँढकर मारना होगा"
वो दोनो मन्दिर में उसे ढूंढने लगे और आख़िर कर्ण सिंह ने नयना को ढूँढ ही लिया
" बेवकूफ़ औरत शैतान को भगवान समझ रही थी" कर्ण सिंह नयना के बाल पकड़ कर घसीटते हुए मन्दिर के बाहर लाकर पटकते हुए बोला, नयना मन्दिर की सीढ़ियो से लुड़कती हुई नीचे जा गिरी, जहाँ पहले से खड़े खड़ग सिंह ने नयना को पीछे से दबोच लिया
"पापी...तू मेरा पति नहीं हो सकता"
"सही पहचाना... हम है कर्ण सिंह... तेरे पति का हम शक्ल सौतेला नाजायज भाई...और अब राजा दयाराज" इतना कहकर कर्ण सिंह शैतानी ठहाके से हँस पड़ा
"मुझे छोड़ दे ज़ालिम... हम माँ बनने वाले हैं... देवी से डर... तू देवी की चौखट पर खड़ा है"
" तुझे सिर्फ़ इसलिए नहीं मारूंगा के तू हमारे अन्दर के शैतान को देख चुकी है बल्कि इसलिए मारगाँ क्यूकि तू दयाराज के वंश को पैदा करने वाली है"
"हुकुम" खड़ग सिंह की आवाज़ पर कर्ण सिंह अतीत से निकलकर वर्तमान में आ गया "जो सारथी धर्मराज को लेकर गया था वो आया है... रथ पलट गया..."
"और मेरा बेटा"
"मैंने बहुत ढूँढा पर मुझे कहीं नही मिला शायद वो नीचे खाई में जा गिरे हो" जख़्मी सारथी बोला
कर्ण सिंह को टूटे रथ के टुकड़े और तड़पते घोड़े तो दिख गये पर बेटा कहीं नही नज़र आ रहा था, तभी खाई में बने मन्दिर की सीढ़ियो पर खड़ग सिंह की नज़र गई जहाँ उसे धर्मराज पड़ा दिखाई दिया-
"हुकुम वो देखो"
दोनों नीचे की तरफ़ जाने वाले पहाड़ी रास्तो से मन्दिर की ओर लपके,
मन्दिर की सीढ़ियों पर पहुँचते ही दोनों ठिठक कर रुक गये, क्यूँकि अचानक मन्दिर की घंटियाँ अपने आप बिना हवा चले हवा में लहराकर बजने लगी इतनी ज़ोर ज़ोर से कि गाँव के लोग भी उधर आने लगे और फिर अचानक धर्मराज मुस्कराता हुआ उठ बैठा और बोला-
" पहचाना कर्ण सिंह...ये वही जगह है जहाँ तूने मुझे आज से बीस साल पहले... आज ही के दिन मारा था" धर्मराज के मुँह से नयना की आवाज निकल रही थी, गाँव के लोग भी धीरे धीरे बहुत जमा हो गए थे। जो ये सब सुन रहे थे। "मेरे गर्भ पर भी रहम नहीं किया था तूने... आज मैं तुझे तेरे वंश के साथ देवी की असीम शक्तियों का आशीर्वाद लेकर तेरे पापो का अंत करूँगी"
इससे पहले कि कर्ण सिंह कुछ समझता के धर्मराज ने ख़ुद अपने गले पर कटार रख ली
"नहीं... नहीं... नयना मेरे बेटे को छोड़ दें"
"बता तू कौन है" धर्मराज के शरीर पर काबिज नयना बोली
" बताता हूं..." और फिर वहाँ खड़े हर आदमी ने कर्ण सिंह की सच्चाई को जान लिया वहाँ खड़ी भीड़ सच्चाई जानकर आग बबूला हो उठी वो अपने दयावान राजा के इस शैतान हमशक्ल को सज़ा देने को दौड़ पड़ी कर्ण सिंह जान बचाने को दौड़कर मन्दिर परिसर में घुस गया और दरवाज़ा अन्दर से बंद कर लिया, भीड़ के हाथो खड़ग सिंह लग गया और कुत्ते की मौत मारा गया,
कर्ण सिंह मन्दिर में देवी के चरणों में गिरकर क्षमा की विनती करता हुआ बोला " माँ मेरी रक्षा कर" वो गिड़गिड़ा रहा था तभी उसने अपने पीछे आहट सुनी और वो पलटा पीछे सफ़ेद साड़ी में लिपटी हुई नयना खड़ी थी जिसके हाथों में देवी का त्रिशूल था, बाल खुले हुए आँखो में बदले की ज्वाला-"जिस देवी से क्षमा दान तू माँग रहा है उसी ने मुझे तुझे मारने की शक्ति दी है महिषासुर... आज तुझे तेरे अंजाम से कोई नही बचा सकता" मन्दिर के घंटियों की आवाज़ें बुलंद होने लगी देवी दुर्गा के सिंह की गर्जन की आवाज मन्दिर के बाहर जुटी भीड़ ने साफ़ सुनी थी और साथ में कर्ण सिंह की आखिरी चीख भी,
कुछ देर बाद जैसे सबकुछ शांत हो गया, मन्दिर का दरवाज़ा अपने आप खुल गया जब लोगो ने अन्दर जाकर देखा तो कर्ण सिंह के सीने में त्रिशूल
गड़ा था, वो मर चुका था, धमराज कर्ण सिंह का बेटा बच गया था, देवी दुर्गा की प्रतिमा अपने सिंह पर सवार शांत भाव से मुस्करा कर ये संदेश दे रही थी के जब जब महिषासुर पैदा होगा तब तब उसका वध करने वो प्रकट होगी,
आज भी राजा दयाराज का महल यूँ ही खड़ा है आज भी लोग नयना की पूजा करने की आवाज़ें सुनते हैं।

