जीवन की सांझ
जीवन की सांझ


आज कई दिनों के पश्चात तबीयत में सुधार आया तो सोचा जरा खुली हवा में सैर कर लूँ।वैसे भी इस बुखार ने शरीर को तोड़कर रख दिया है,बहुत कमजोरी महसूस कर रही हूँ, और ये उम्र ही ऐसी है थोड़ा चल फिर लो तो थकान हो जाती है अब पैंसठ की हो ही गई हूँ। एक बात ये भी है कि तन स्वस्थ हो तो खाना पीना भी रूचिकर लगता है पर अस्वस्थ शरीर में खाना खाने की भी इच्छा नहीं होती, सो कमजोरी तो होनी ही थी।खैर थोड़ी हिम्मत जुटा कर घर से निकल ही आई।
रास्ते में जो भी मिलता टोक ही देता है, सबसे हंस कर बतिया लेती हूँ और आगे बढ़ जाती हूँ, मैंने सोचा जरा देर के लिए सबिता से मिलती हुई चलूँ , अंदर जाने पर पता चला कि वो तो अपने बेटे के यहाँ गई है, उलटे पाँव लौट आई,अब थोड़ी थकान भी हो रही है, तो घर लौटना ही सही रहेगा।वैसे भी इनके घर आने का वक्त हो रहा है।
थोड़ी देर बाहर जाकर घर लौट आई, क्या करूँ अकेले में मन भी नहीं लगता है।इतना बड़ा सा घर है, घर नहीं पुश्तैनी हवेली कहना ज्यादा उचित रहेगा।मैं पुराने दिनों की यादों में खोने लगी।जब ब्याह कर आयी थी तब कितना बड़ा परिवार था ददिया सास, दादा ससुर,एक बुआ दादी भी थीं,सास-ससुर ननदों ,देवर और नौकर- चाकर से भरा पूरा खानदान, कुल मिलाकर अठारह लोगों का खाना बनाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही डाल दी गई।घर की बड़ी बहू बनकर जैसे ही आई ,घर गृहस्थी के जंजाल में उलझ कर रह गई। जितने सपने देखे थे कुछ पूरे हुए कुछ अधूरे ही रह गए, खैर अब वह समय बीत गया उसके लिए क्या सोचना है।
सारे घर की बागडोर सासु माँ के हाथों में होती, जो आदेश दिया जाता उसका पालन करना पड़ता। मजाल है कि एक सूई भी इधर से उधर हो जाए, धीरे-धीरे ननदें ब्याह कर अपने अपने घरों की हो गईं। इस घर से अपनत्व भी समयानुसार बढ़ता रहा और मायके से खिंचाव भी,वैसे भी माँ बाबा के बाद मायका पराया हो जाता है , भाई-भाभियों द्वारा स्नेह और सम्मान कम हो जाता है, सब अपने अपने परिवार में व्यस्त हो जाते हैं।बड़ों का साया भी समय-समय पर सिर से उठता रहा।देवर की भी शादी हो गई,वह भी नौकरी के कारण दूसरे शहर में रहता है,अब तो कोई पारिवारिक कार्यक्रम में ही सबसे मिलना हो पाता है।
मेरे भी बाल बच्चे हुए और उनके पढ़ाई-लिखाई के बाद विवाह के फर्ज से भी मुक्त हो गई। बेटियां अपना घर सम्हाल रही हैं बेटे भी दूसरे शहरों में नौकरी करते हैं भरा पूरा परिवार है मेरा लेकिन यहाँ गाँव में हम पति पत्नी ही रह गए हैं एक दूसरे को देखने के लिए,बच्चों से छुट्टियों में ही मिलना हो पाता है। दो,चार दिनों के लिए ही आते हैं उन्हें अपने अपने ससुराल भी जाना होता है बहुओं को अपने माता-पिता से मिलाने के लिए,कभी-कभी हम भी उनके यहाँ चले जाते हैं पर ज्यादा दिन रहा नहीं जाता है, इस घर में रहने की आदत पड़ गई तो और कहीं भी मन नहीं लगता, यहाँ एक एक कोना अपना सा लगता है, बेटों के किराए के मकान में वह खुलापन चाह कर भी नहीं मिलता,फिर यहाँ आस-पड़ोस भी अपना है घर से निकलते ही सब हाल चाल पूछने लगते हैं, बहुत अच्छा लगता है यहाँ पर।
बेटियों के यहाँ भी मुश्किल से ही कुछ दिनों के लिए जाती हूँ, बस यही घर मेरी दुनिया है जहाँ चैन की नींद सो पाती हूँ। हाँ बुढ़ापे से थोड़ा डर लगता है लेकिन हम दोनों ही एक दूसरे का सहारा बनकर रहेंगे। जो भी परिस्थिति आ जाए तब भी साथ ही रहना है। अब ज़िन्दगी की सांझ आ गई ,ना जाने कब किसके जाने की बारी आ जाए पर तबतक जीना है और एक एक क्षण का आनंद लेकर जीना है।
अरे कितना समय हो गया अब तो ये दुकान बंद करके आते ही होंगे और मैंने शाम का दिया जलाने के लिए पूजाघर की ओर कदम बढ़ा दिए।