Bindiya rani Thakur

Inspirational

4.8  

Bindiya rani Thakur

Inspirational

जी लो जीभर के ज़िंदगी

जी लो जीभर के ज़िंदगी

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सोमवार की व्यस्त सुबह,सोकर उठी तो सिर बहुत भारी था, ये रात को देर तक जागने का परिणाम था, इन्होंने कहा भी इतनी देर तक मत जागो,सुबह उठने में दिक्कत होगी,पर मैं तो मैं ही हूँ ना! आजकल कुछ ज्यादा ही जिद्दी बन रही हूँ, जो ठान लिया वही करना है,अगर रात को देर तक जाग कर फिल्म देखने का मन है तो देखना है,कोई कहानी रात को पढ़कर खत्म करनी है तो करनी है,या फिर कुछ लिखने का मन है तो उसे पूरा करने का यही वक्त है, चाहे इसमें सारी रात ही क्यों न लग जाए।

लेकिन आज से दो वर्ष पहले तक मैं ऐसी नहीं थी,बस काम,काम और सिर्फ काम ही मेरी ज़िंदगी का ध्येय था,पहले मैं जिम्मेदारियों के बीच ही उलझी हुई रहती थी,ना मुझे अपने नाश्ते का ध्यान रहता ना ही खाने का,हाँ घर के बाकी सभी सदस्यों के खान-पान में कोई कोताही नहीं बरतती थी,लेकिन अपना कोई ध्यान नहीं,बिखरे बाल और बेतरतीब कपड़ों में सारा दिन गुजर जाता,और ऐसे ही ज़िंदगी टुकड़ों में गुजरती चली जा रही थी। इसी सबके बीच एक दिन इत्तेफ़ाक से मेरी मुलाकात मेरी बचपन की सहेली से हुई, सालों बाद उससे मिलना जैसे कोई कीमती खजाना हाथ लग गया हो। उसका तबादला हमारे ही शहर में हुआ और संयोग से एक दिन बाजार में हम टकरा गए,उसे अगले दिन अपने घर आने का न्यौता देकर मैंने विदाई ले ली ।

अगले दिन नियत समय पर वह आ गई और मैं पहले की तरह अपने पुराने हुलिये में थी, उसे टिप टाप और खुद को उसके मुकाबले देखा तो अपने आप पर मुझे बहुत झुंझलाहट हुई । नीरजा ने मुझे देखा और वह समझ गई उसने कहा "शीतल कोई बात नहीं कुछ मत सोचो मैं ही तो हूँ ना।"

"आओ आराम से बैठो और अभी कुछ देर चाय-नाश्ता और औपचारिकता की बातों को परे रखकर दोनों सहेलियां दिल खोलकर बीते दिनों की बातों को याद करें।"

अब मैं भी कुछ सहज हो गई और कहा "अरे कुछ नहीं बस चाय बना रही हूँ और थोड़े नमकीन हैं कल ही बाज़ार से लाई थी।"

फिर हमने ख़ूब सारी बातें की और पुराने समय को याद किया,"नीरजा ने घर आकर जैसे मुझे फिर से जिंदा कर दिया मैंने पंद्रह साल पहले की शीतल से एक बार फिर साक्षात्कार कर लिया,अपनी पसंद-नापसंद, अपनी शौक,सबकुछ जैसे एक ही पल में मेरे सामने आ गए। इतने सालों से मैं तो किसी मशीनी मानव की तरह बस जी रही थी जिसके अंदर उसके कामों की सूची को भर दिया गया था और खुद के लिए भी कुछ करना या समय देना ये सब उस सूची में शामिल ही नहीं था।"

बस बहुत हो गया और आगे इस तरह मुझे नहीं जीना है।ये ज़िंदगी एक ही बार मिलती है,इसे अब बोझ समझ कर गंवाना नहीं है।ठीक है! घर में बहुत से काम होते हैं तो क्या हुआ काम के साथ थोड़ा सामंजस्य स्थापित कर के अपने लिए कुछ वक्त तो निकाल ही सकती हूँ ना।

वैसे भी छोटी सी ज़िंदगी है जो जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी है और सारा दिन इन्हीं कामों में बीत जाता है, बस एक रात ही है जो अपनी है,तो इसीलिए मैं रात को जाग कर अपने हिस्से की छोटी-छोटी खुशियाँ हासिल कर लेती हूँ।

दिन में भी जब कुछ फुर्सत के पल मिलते हैं तब भी अपनी पसंद की कोई किताब और चाय की एक प्याली या फिर अपनी डायरी या कलम लेकर बैठ जाती और अपने लिए थोड़ा सा जी लेती हूँ।

काम तो उम्रभर करना ही है और हमारा जन्म ही कर्म करने के लिए हुआ है,पर खुद को काम में ही डूबा देना और मशीन बन जाना कहाँ की समझदारी है!

अब मैं पहले से ज्यादा खुश रहने लगी हूँ और मेरे इस बदलाव से परिवार भी खुश है।


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