जैसी करनी वैसी भरनी
जैसी करनी वैसी भरनी
🌺 जैसी करनी, वैसी भरनी 🌺
🌹 एक प्रेरक कथा 🌹
✍️ श्री हरि
🗓️ 20.12.2025
प्रयासनगर अपने नाम के विपरीत धीरे-धीरे जड़ता का नगर बनता जा रहा था। बाहर से देखने पर यह एक साधारण-सा कस्बा लगता—संकरी गलियाँ, पीपल के पुराने वृक्ष, चबूतरों पर बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाते बुज़ुर्ग और सुबह-शाम मंदिर की घंटियों की परिचित ध्वनि। पर भीतर ही भीतर यह नगर एक अदृश्य बीमारी से ग्रस्त था—उत्तरदायित्व से भागने की बीमारी।
इसी नगर में रहता था हरिशंकर वर्मा। नगर पालिका में लिपिक था—न ऊँचा पद, न बहुत अधिक वेतन; पर अधिकार इतने कि छोटे-छोटे कामों के लिए लोग उसके सामने हाथ जोड़े खड़े रहते। जन्म से साधारण, पर परिस्थितियों ने उसे चतुर बना दिया था। चतुर नहीं—चालाक।
हरिशंकर का सिद्धांत स्पष्ट था—
“जब व्यवस्था ही टेढ़ी है, तो सीधा चलकर क्या मिलेगा?”
फाइल बढ़ानी हो, तो “चाय-पानी”
नक्शा पास करना हो, तो “सम्मान”
किसी ग़लत काम पर आँख मूँदनी हो, तो “अपनों का खयाल”
धीरे-धीरे यह सब उसे सामान्य लगने लगा। उसे कभी अपराध-बोध नहीं हुआ। वह अपने मन को यह कहकर समझा लेता—
“मैं अकेला थोड़े ही हूँ। सब करते हैं।”
उसकी पत्नी सरला कई बार चुपचाप देखती रहती। वह सीधे टोकती नहीं थी, पर कभी-कभी बस इतना कह देती—
“हर काम का हिसाब ऊपर कहीं लिखा जाता है।”
हरिशंकर हँस देता—
“तुम भी न, पुरानी कहावतों में जीती हो। आजकल जैसी करनी, वैसी भरनी नहीं होती—जैसी पहुँच, वैसी भरनी होती है।”
समय बीतता गया। हरिशंकर का घर बड़ा हो गया, मोटरसाइकिल कार में बदल गई, और उसके बेटे अभिनव को अंग्रेज़ी माध्यम के महँगे विद्यालय में प्रवेश मिल गया। समाज में मान बढ़ा। लोग कहते—
“वर्मा जी बड़े समझदार आदमी हैं।”
पर जिस दीवार को गलत ईंटों से ऊँचा किया जाता है, वह भीतर से खोखली ही रहती है।
एक दिन नगर में बाढ़ आ गई। वर्षों से नाले की फाइलें हरिशंकर की मेज़ से गुज़री थीं। उसने हर बार ठेकेदार से “समझौता” कर लिया था। काग़ज़ों में नाला चौड़ा था, वास्तविकता में संकरा।
पानी बस्तियों में घुस गया। घर उजड़ गए। लोग रोते-चिल्लाते नगर पालिका पहुँचे।
पहली बार हरिशंकर ने अपने सामने वही चेहरे देखे, जो वर्षों से उसके सामने हाथ जोड़े खड़े रहते थे—आज आँखों में आग थी।
जाँच बैठी। अख़बारों में नाम छपे। फाइलें खुलीं। हर दस्तख़त गवाही देने लगा।
हरिशंकर निलंबित कर दिया गया।
उस दिन वह घर लौटा तो सरला ने कोई प्रश्न नहीं पूछा। केवल इतना कहा—
“आज बहुत देर हो गई।”
यह वाक्य तीर की तरह लगा।
आज सचमुच बहुत देर हो चुकी थी।
निलंबन के बाद आय का स्रोत बंद हो गया। समाज, जो कल तक सम्मान देता था, आज दूरी बनाने लगा। फोन की घंटियाँ बंद हो गईं।
अभिनव, जो पिता को आदर्श मानता था, एक दिन चुपचाप बोला—
“पापा, स्कूल में सब कह रहे हैं कि आप… ग़लत काम करते थे।”
हरिशंकर के पास उत्तर नहीं था।
रात को वह देर तक जागता रहा। पहली बार उसे लगा—उसने केवल फाइलें नहीं, भविष्य भी उलट-पलट दिए थे।
कुछ महीनों बाद न्यायालय का निर्णय आया। सज़ा कठोर नहीं थी, पर कलंक स्थायी था।
हरिशंकर ने नौकरी छोड़ दी। शहर से दूर, एक छोटे से गाँव में जाकर रहने लगा। वहाँ वह किसी को नहीं जानता था—और कोई उसे नहीं जानता था।
उसी गाँव में एक वृद्ध शिक्षक रहते थे—गोविंदाचार्य। वे हर शाम बच्चों को निःशुल्क पढ़ाते थे। हरिशंकर पहले तो दूर ही रहा, पर एक दिन उनके पास बैठ गया।
गोविंदाचार्य ने बिना परिचय पूछे कहा—
“मनुष्य अपने कर्म से भाग सकता है, उनके फल से नहीं।”
हरिशंकर की आँखें भर आईं। उसने पहली बार अपनी पूरी कहानी किसी को सुनाई।
वृद्ध ने शांत स्वर में कहा—
“बेटा, संसार का सबसे न्यायपूर्ण नियम यही है—जैसी करनी, वैसी भरनी। यह दंड नहीं, संतुलन है।”
उन शब्दों ने हरिशंकर के भीतर कुछ बदल दिया।
अगले दिनों वह गोविंदाचार्य की सहायता करने लगा। बच्चों को पढ़ाने में, गाँव के कामों में, बिना किसी स्वार्थ के। पहली बार उसने कर्म किया—फल की अपेक्षा के बिना।
समय लगा। बहुत समय।
पर भीतर का बोझ हल्का होने लगा।
एक दिन अभिनव मिलने आया। उसने पिता को बच्चों के बीच बैठा देखा—साधारण, शांत, बिना किसी दिखावे के।
उसने कहा—
“पापा, अब लोग आपको अलग तरह से देखते हैं।”
हरिशंकर मुस्कराया। यह मुस्कान वर्षों बाद सच्ची थी।
उस रात उसने सरला से कहा—
“तुम सही थीं। देर हो गई थी… पर शायद सब खत्म नहीं हुआ।”
सरला ने दीपक जलाते हुए कहा—
“कर्म सुधर जाएँ, तो भरनी भी बदल जाती है।”
प्रयासनगर आज भी वैसा ही है।
पर एक व्यक्ति के जीवन में यह कहावत केवल सुनी नहीं गई—भोगी गई।
और यही इस कथा का मौन सत्य है—
जैसी करनी, वैसी भरनी कोई डराने वाली कहावत नहीं,
बल्कि मनुष्य को सही दिशा में लौटाने वाला सबसे भरोसेमंद दीपक है।
