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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Comedy Classics Inspirational

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Comedy Classics Inspirational

जंगल राज

जंगल राज

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😛 जंगलराज 😛
🤪 हास्य व्यंग्य : लोकतंत्र का सर्कस, जनता का तमाशा 🤪
✍️ श्री हरि
🗓️ 9.12.2025

पप्पू रोज भौंकता है आजकल
"यह देश अब कोई लोकतांत्रिक गणराज्य नहीं रहा,
यह एक चलता-फिरता राजनीतिक चिड़ियाघर है—
जहाँ केवल तानाशाही का बोलबाला है
और वोट चोरी का खेल है।"

लेकिन अफसोस ,
कि उसकी बात कोई नहीं सुनता
न विपक्षी दल, न उसका पालतू मीडिया और न जनता।

जनता जानती है जंगलराज को
उसने इसे देखा नहीं बल्कि भोगा है
डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय ।

कभी इस जंगल में लालू नाम का एक चरवाहा था,
जिसने शासन को गौशाला नहीं,
सीधा चरागाह बना दिया।
रेल की पटरियाँ थीं, पर दिशा नहीं थी।
कानून की किताबें थीं,
पर न्याय का कोई पन्ना खुलता ही नहीं था।
अपहरण रोज़ का अख़बार था,
और अपराध “सामाजिक न्याय” की
नैतिक छाया में आराम से ऊँघता था।
वह जंगलराज था—
जहाँ शेर भी डरता था

और अपराधी सत्ता के साथ रोज डिनर करते थे
मासूम लोगों का शिकार करके।


फिर आया एक ऐसा काल
जिसमें शोर कम था,
या तो कहें कि "मौन" का साम्राज्य था।
पर फ़ाइलों की धूल बहुत मोटी थी।
मनमोहन नाम के एक पालतू चूहे को
शेर की खाल पहनाकर आगे कर दिया था
पर असल में राज
"भूरी लोमड़ी" कर रही थी।
कहने को "मौनी बाबा" सिंह कहलाता था,
पर दहाड़ कहीं और से आती थी।
देश में योजनाएँ लापता थीं,
रोज समझौते थे,
घोटालों की गिनती नहीं थी,
और  निर्णय ?
कहीं खर्राटे ले रहे थे ।

इसे जंगल में कहा गया—
“नीति-जड़ता ऋतु”।
जहाँ शासन चलता तो था,
पर दिखता नहीं था।
इस सरकार  के पहिये जाम थे।
भ्रष्टाचार शोर नहीं मचाता था,
वह शालीनता से फ़ाइलों में सोया रहता था।

इधर आकाश में एक और जंगल उग आया—
हवाई जंगल!
जिसका राजा कोई शेर नहीं,
हवाई जहाज़ और उसके किराए थे।
इंडिगो वहाँ का भेड़िया बना—
कभी टिकटों पर दाँत गड़ाता,
कभी यात्रियों पर।
उड़ान देर से हो तो मौन,
कैंसिल हो जाए तो मौन,
यात्री तड़पे तो भी मौन।
नियम वहाँ किताबों में थे,
और मनमानी रनवे पर
वह गुर्राता भी था
और सरकार थी लाचार।

पूर्व के जंगलों में
दो अलग-अलग मगर एक-सी छायाएँ हैं—
एक का नाम स्टालिन,
दूसरी का नाम ममता।
दोनों अपने-अपने भूभागों में
लोकतंत्र नहीं,
तानाशाही चलाते हैं।
यहाँ विरोध एक अपराध है,
और सवाल एक षड्यंत्र।
मतदान होता है,
पर मत का सम्मान नहीं होता।
सत्ता के चारों ओर
इतनी ऊँची दीवारें हैं
कि जनता केवल नारे सुनती है,
निर्णय नहीं।

और राजधानी के जंगल में
एक अलग ही प्रजाति पाई जाती है—
नौटंकीनुमा शासक।
जिसका मंच विधानसभा है,
और संवाद टीवी कैमरा।
कभी धरना, कभी उपवास,
कभी आँसू, कभी आरोप।
शासन कम,
अभिनय अधिक।
हर समस्या पर विज्ञप्ति,
हर विफलता पर किसी और की गलती।
यह वह जंगल है
जहाँ मुख्यमंत्री कम,
कलाकार ज़्यादा शासन करता है।

इन सब जंगलों के बीच
एक साझा प्राणी है—
जनता।
वही घोड़ा जो हर बागडोर खींचता है,
वही गधा जो हर बोझ ढोता है,
वही भेड़ जो हर पाँच साल
क़साई चुनने जाती है।

यह नया जंगलराज
डंडे से नहीं,
डेटा से डराता है।
खुली गोली से नहीं,
बंद फाइलों से मारता है।
यहाँ तानाशाही वर्दी में नहीं,
लोकतांत्रिक मुखौटे में घूमती है।
यहाँ राजा बदलते हैं,
पर जंगल की आदत नहीं बदलती।

और तब हर सत्ताधारी
एक ही घोषणा करता है—
“हमने जंगल साफ कर दिया है।”
पर जनता देखती है—
सिर्फ़ जानवरों की प्रजातियाँ बदली हैं,
शिकार आज भी वही है
क्योंकि ,
जंगलराज शाश्वत है ।



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