बदलता मौसम
बदलता मौसम
☔ बदलता मौसम ☔
🤪 एक धमाकेदार हास्य-व्यंग्य 🤪
✍️ श्री हरि
🗓️ 12.12.2025
मौसम बदलता है—ये कोई नई बात नहीं।
नई बात यह है कि मौसम बदलने से पहले ही लोगों की नजरें बदल जाती हैं.
सर्दी आए या न आए,
पर रिश्तों में ठंडक,
बातों में कुहासा
और चाल-चलन में कोहरा अवश्य छा जाता है।
पहले मौसम देखकर लोग कहा करते थे
“कोट निकालो!”
अब विपक्षी दल संसद के सत्र से पहले कहते हैं
“सरकार की नीयत में खोट निकालो!”
और सरकार!
इतिहास की गर्त से शब्द चुन चुन कर
खानदानी विरासत का कीमा बना देती है
यह बदलते मौसम की आधुनिक व्याख्या है।
🌬️ सामाजिक मौसम
पहले मोहल्लों में मौसम बदलने से
मूंगफली भूनने की खुशबू आती थी,
अब सोशल मीडिया के मौसम में
जलते रिश्तों की गंध आती है।
लोग पहले पूछते थे—
“ठंड कैसी पड़ रही है?”
अब पूछते हैं—
“रील कैसी चल रही है?”
बदलते मौसम का असर ऐसा कि
पड़ोसी का कुर्ता देखो तो लगता है—
"अरे भाई, ये तो खानदान वाली पार्टी का झंडा पहन आया है!"
फैशन में भी मौसम बदल गया है—
अब ऊनी टोपी नहीं,
"चरण चाट प्रतियोगिता" चल रही है।
🌦️ ऐतिहासिक मौसम
इतिहास में मौसम बदलता था तो
राजवादी युग से गणतांत्रिक युग आता था।
आजकल चुनावी मौसम आते ही
दल बदलुओं का मौसम आता है—
जो शाम को किसी पार्टी का झंडा उठाते हैं
और अगले दिन किसी और दल के साथ बैठक करते हैं,
फिर किसी सुबह किसी और के झंडे में लिपटे नज़र आते हैं।
पहले इतिहास में "राजा" बदलते थे,
अब "नैरेटिव" बदलते हैं।
इतिहास में लिखा है—
"वसंत ऋतु में फूल खिलते थे।"
और आज लिखा जा रहा है—
"सत्ता मिलने पर चेहरे खिलते हैं।"
☔ जीवन-दर्शन का मौसम
जीवन दर्शन भी बदल गया है।
पहले लोग "सोच" बदलते थे
अब "पार्टनर" बदलते हैं।
पहले ऋषि-मुनि जंगल में तपस्या करते थे,
अब लोग टीवी चैनलों पर बैठकर
हेट स्पीच का जाप करते हैं।
पहले लोग "गम" खाते थे,
अब "गाली" खाते है।
वाकई! जमाना बदल गया है।
🌧️ सांस्कृतिक मौसम
संस्कृति में भी मौसम खूब बदल गया है।
पहले होली में रंग उड़ता था,
अब "रिश्ते" उड़ते हैं।
पहले घर में दादी कहती थीं—
“बेटा, ठंड लग जाएगी, मफलर पहन लो।”
अब नानी कहती हैं—
“मेरी नातिन विवाह नहीं करेगी
वह बिना विवाह के ही मां बनेगी"।
नवरात्री में पहले गरबे के चक्कर लगाए जाते थे,
अब शादी के बाद थाने और कोर्ट के चक्कर लगाए जाते हैं।
🌀 राजनीति का मौसम
राजनीति तो मौसमों की माँ है—
जहाँ मौसम एक ही रहता है:
“आज कौन किस पर बरसेगा?”
एक सत्ता पक्ष के नेता जी सुबह बोले—
“सर्दी बहुत है।”
शाम होते-होते विपक्ष बोला—
“गर्मी से हाल बेहाल हो रहा है!”
पहले संसद में परंपराएं चलती थीं
अब "हो हल्ला" चलता है।
पहले विपक्ष कहता था—
“हम रचनात्मक विरोध करेंगे।”
अब कहता है—
“सरकार को काम नहीं करने देंगे”
मौसम बदलते-बदलते
अब राजनीति में भी नया कैलेंडर आ गया है—
चार ऋतुएँ:
ईवीएम हैक
वोट चोरी
संविधान खतरे में
लोकतंत्र की हत्या
🌪️ समापन — बदलता मौसम या बदलता इंसान?
मौसम से तो हम हर साल लड़ लेते हैं—
कंबल ओढ़कर,
रेनकोट पहनकर,
या एसी चालू करके।
सबसे मुश्किल लड़ाई तो
बदलते इंसान के मौसम से है—
जो बिना पूर्व चेतावनी,
बिना मौसम विभाग की सूचना
कभी भी आ जाता है।
कभी गरज,
कभी धूप,
कभी आँधी,
कभी बाढ़,
कभी भावनाओं का भूस्खलन,
और कभी—
“भाई, मैं बदल गया हूँ!”
मौसम के बदलने की चिंता मत करो—
वह तो प्रकृति का स्वभाव है।
सच चिंता की बात यह है कि
इंसान मौसम से भी तेज़ी से बदल रहा है—
और उस बदलाव का ताप
अब धरती नहीं,
रिश्ते झेल रहे हैं।
यही बदलते मौसम का
सबसे बड़ा, सबसे कड़वा
और सबसे मज़ेदार व्यंग्य है! 🌦️🤣
