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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Comedy Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Comedy Classics

गले पड़ना

गले पड़ना

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🌸 गले पड़ना 🌸
 🌺 सास–बहू के रिश्ते पर एक प्रेरणादायक कहानी 🌺
✍️ श्री हरि
 🗓️ 20.12.2025

मुहावरा है— “गले पड़ना”। आम तौर पर इसका अर्थ होता है— ऐसा व्यक्ति या परिस्थिति, जो अनचाहे रूप से जीवन में बोझ बन जाए। लेकिन कभी-कभी वही “गले पड़ना” जीवन की सबसे सुंदर “माला” भी बन जाता है—बस दृष्टि बदलनी पड़ती है। यह कहानी है उसी बदली हुई दृष्टि की।

 1. अनचाहा रिश्ता सीमा की शादी को अभी छह महीने भी पूरे नहीं हुए थे कि उसे लगने लगा— “मैं तो सास के गले पड़ गई हूँ।” सास, शारदा देवी, पचपन की उम्र पार कर चुकी थीं। पति का देहांत दस साल पहले हो चुका था। एक बेटा—अजय—और वही सीमा का पति। शारदा देवी सीधी-सादी, कम बोलने वाली, सुबह चार बजे उठकर पूजा-पाठ करने वाली स्त्री थीं। घर में अनुशासन था, समय की पाबंदी थी और हर काम का एक तय तरीका। सीमा इसके ठीक उलट थी— शहर में पली-बढ़ी, देर से उठने वाली, मोबाइल और किताबों की दुनिया में रहने वाली, और रिश्तों में बराबरी चाहने वाली। शादी के बाद जब अजय ऑफिस चला जाता, तो घर में रह जातीं— एक बहू और एक सास, दो पीढ़ियाँ, दो सोच, दो संसार। सीमा को लगता— “माँ जी हर वक्त मुझे देखती रहती हैं।” “कब उठी, क्या बनाया, कैसे कपड़े पहने।” “मैं इनके गले पड़ गई हूँ।” और उधर शारदा देवी सोचतीं— “आजकल की बहुएँ… सब कुछ अपनी सुविधा से चाहती हैं।” “मेरा बेटा कहीं मुझसे दूर न हो जाए।” “ये लड़की मेरे गले पड़ गई है।” दोनों ही एक-दूसरे को बोझ समझ रही थीं।

 2. चुप्पियों की दीवार घर में झगड़ा नहीं होता था, लेकिन चुप्पी बहुत होती थी। सीमा काम करती, खाना बनाती, पर मन से नहीं। शारदा देवी सलाह देतीं, पर अधिकार से नहीं— डर से। अजय दोनों के बीच पुल बनना चाहता था, लेकिन ऑफिस की थकान और घरेलू चुप्पियाँ उसे भी खामोश कर देतीं। एक दिन सीमा ने अपनी माँ से फोन पर कहा— “माँ, लगता है मैं गलत जगह आ गई हूँ।” “यहाँ मैं बस निभा रही हूँ।” माँ ने बस इतना कहा— “बेटी, कभी-कभी रिश्ते गले नहीं पड़ते, हम उन्हें गले नहीं लगाते।” सीमा उस वाक्य को समझ नहीं पाई।

 3. बीमारी जो आई गले लगकर एक रात शारदा देवी को तेज़ सीने में दर्द हुआ। अजय उस समय ऑफिस के काम से बाहर गया हुआ था। सीमा घबरा गई। पहली बार उसे लगा— “अगर इन्हें कुछ हो गया तो…?” वह बिना सोचे समझे एम्बुलेंस बुलाती है, माँ जी को संभालती है, उनका सिर अपनी गोद में रखती है। शारदा देवी दर्द में कराहते हुए बस इतना कहती हैं— “बेटी… घबरा मत… भगवान है…” सीमा की आँखों से आँसू गिरने लगते हैं— उस स्त्री के लिए, जिसे वह अब तक बोझ समझ रही थी। अस्पताल में डॉक्टर कहते हैं— “समय पर ले आईं, नहीं तो खतरा बढ़ सकता था।” उस रात सीमा अस्पताल के गलियारे में बैठी रहती है। नींद नहीं आती। मन में एक अजीब सा डर है— खो देने का डर।

 4. पहली बार “माँ” सुबह होश आने पर शारदा देवी की आँखें खुलती हैं। वह सीमा को सामने बैठा देखती हैं— थकी हुई, लाल आँखों वाली, लेकिन जागती हुई। धीमी आवाज़ में शारदा देवी कहती हैं— “बेटी… तू सारी रात यहीं रही?” सीमा का गला भर आता है। वह पहली बार उनके हाथ पकड़कर कहती है— “हाँ… माँ।” उस एक शब्द में छह महीने की सारी दूरियाँ पिघल जाती हैं। शारदा देवी की आँखों से आँसू बह निकलते हैं। वह सीमा के सिर पर हाथ रखती हैं— “मुझे लगा था तू मेरे गले पड़ गई है…” “पर असल में तो भगवान ने मुझे तेरे गले लगा दिया।”

 5. दृष्टि का बदलना घर लौटने के बाद सब कुछ वैसा नहीं रहता। अब शारदा देवी सलाह देती हैं— लेकिन थोपती नहीं। सीमा घर के काम करती है— लेकिन बोझ समझकर नहीं। सुबह की चाय अब साथ बनती है। कभी सीमा मोबाइल पर रेसिपी दिखाती है, तो कभी शारदा देवी अपने अनुभव सुनाती हैं। एक दिन सीमा कहती है— “माँ, आज मैं देर से उठूँगी, रात को पढ़ाई की थी।” शारदा देवी मुस्कुराकर कहती हैं— “ठीक है बेटी, मैं बना लूँगी।” सीमा हैरान रह जाती है। उसे समझ आने लगता है— रिश्ते तब बिगड़ते हैं जब हम उन्हें गले पड़ना समझते हैं, और सुधरते हैं जब हम उन्हें गले लगाना सीख लेते हैं।

 6. समाज की सीख पड़ोस की औरतें कहती हैं— “आपकी सास तो बड़ी सख्त लगती थीं।” सीमा मुस्कुराकर जवाब देती है— “सख्त नहीं थीं, अकेली थीं।” शारदा देवी सहेलियों से कहती हैं— “मेरी बहू आधुनिक है।” फिर जोड़ती हैं— “पर संस्कारों में मुझसे आगे।” अजय घर में हँसी लौटते देखता है। उसे लगता है— उसका घर अब सच में घर बन गया है।

 7. मुहावरे का नया अर्थ एक दिन सीमा अपनी डायरी में लिखती है— “गले पड़ना बोझ नहीं, जिम्मेदारी है। और जिम्मेदारी अगर प्रेम से निभाई जाए तो वही रिश्ता जीवन की सबसे बड़ी शक्ति बन जाता है।” वह डायरी शारदा देवी को पढ़ने देती है। शारदा देवी कहती हैं— “बेटी, अब समझ आया— सास बहू का रिश्ता अगर गले पड़ जाए तो समाज डराता है, पर अगर गले लग जाए तो पीढ़ियाँ सँवर जाती हैं।”

 8. अंतिम सच्चाई इस कहानी में न कोई खलनायक था, न कोई विजेता। बस दो स्त्रियाँ थीं— एक अनुभव से भरी, एक संभावनाओं से। दोनों ने एक-दूसरे को बोझ नहीं, आशीर्वाद समझ लिया। और तभी “गले पड़ना” मुहावरा नहीं रहा, संवेदना बन गया।

 🌼 संदेश 🌼

 हर रिश्ता जो हमें “गले पड़ता” लगता है, असल में वह हमें जीवन जीना सिखाने आता है। बस हमें तय करना होता है— हम उसे बोझ बनाएँ या प्रेम की माला।


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