इमोशनली योर्स

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आज मुम्बई में सुबह से ही मूसलाधार बारिश हो रही थी। सुविख्यात लेखिका मोहिनी जी ने एयरपोर्ट पर पहुँचकर यह पाया कि खराब मौसम के कारण आज की सारी फ्लाइटें कैंसिल हो गई हैं। अपने ट्रैवेल एजेंट को फोन लगाया तो पता चला कि दिल्ली पहुंचने के लिए अब सिर्फ राजधानी एक्सप्रेस का ही भरोसा है। अब उनकी जैसी जानी-मानी लेखिका, जो इस वर्ष की 'साहित्य शिरोमणि' की विजेता है, और पुरस्कार प्राप्त करने हेतु ही जिन्हें दिल्ली जाना पड़ रहा है, वह आम लोगों की तरह ट्रेन में सफर करेंगी ?? तो उनकी क्या इज़्ज़त रह जाएगी? मोहिनी जी अपने ट्रेवेल एजेंट पर फोन में ही चिल्ला पड़ी। पर अब दूसरा चारा भी तो न था कोई! कल शाम के कार्यक्रम में पहुंचना जरूरी था और अगली सुबह तक मौसम के खुलने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। उनके एजेंट ने दिलासा दिया,"मैडम, अगस्त क्रांति के फ्रर्स्ट एसी के कूपे में रिज़र्वेशन करा दिया है आपका। सिर्फ रात भर की ही बात है। आपको कोई तकलीफ़ न होगी। सुबह ही दिल्ली पहुंच जाइएगा।"


और क्या करती मोहिनी? अपना सामान लेकर पौने चार बजे शाम को मुम्बई सेंट्रल पहुंच गई। फर्स्ट एसी का कूपे देखकर कुछ संतोष हुआ उसे क्योंकि कूपे दो बर्थों वाला था। इसलिए ज्यादा भीड़-भाड़ की गुंजाईश न थी। आश्वस्त होकर वह लोयर बर्थ पर आराम से पसर गई और अपनी सहकर्मी विनोद की हाल ही में प्रकाशित कविता-संग्रह खोलकर पढ़ने लगी। पढ़ते-पढ़ते उसे न जाने कब हल्की-सी झपकी आ गई थी। एक पूर्वपरिचित आवाज़ सुनकर जब उसकी तंद्रा भंग हुई तो उसने अभी-अभी कूपे में दाखिल हुए अपने सहयात्री को कूली के साथ बातचीत करते हुए पाया। उसका सहयात्री छः फूट ऊँचे कद का सूट और टाई, पहने कोई विदेशी जैसा लग रहा था! लेकिन उसकी आवाज़! उसकी आवाज़ सुनकर आज भी उसकी हृदयगति मानो थोड़ी देर के लिए रुक-सी गई! यह आवाज़ आशु से कितनी मिलती-जुलती है! पर आशु यहाँ कैसे आ सकता है? वह तो कई साल पहले ही विदेश में सेटल हो गया था।


"बाॅनजूर मादाम।" उस शख्स ने अपनी ओर लगातार घूरते हुए मोहिनी को हौले-से फ्रांसीसी भाषा में 'हैलो मैडम' कहा। मोहिनी अपने विचारों के उथल-पुथल में इस तरह खोई हुई थी कि उत्तर देना भी भूल गई। कुछ देर तक उत्तर की प्रतीक्षा करने के बाद वह व्यक्ति एक गहरी साँस लेकर अपना सनग्लास उतारकर बगल की सीट पर बैठ गया। अब मोहिनी को उसका चेहरा साफ नज़र आ रहा था। यह आशुतोष ही था, स्कूल में उसका पहला क्रश ! आशु ने अब चुहल भरे आवाज़ में हिन्दी में पूछा, " पहचानने में दिक्कत हो रही है क्या, मोहिनी?"। " आशु, तुम? तुम यहाँ ?" मोहिनी खुशी से चहक कर पूछ बैठी।"सही पहचाना आखिर आपने, मैडम!" कहकर आशुतोष ने धीरे से मुस्करा दिया।

मोहिनी के लिए कितनी परिचित मुस्कान थी वह! बीसीयों बार देख चुकी थी स्कूल में पढ़ते समय! कई बार सामने से तो कई बार छुप-छुपकर! इतने वर्षों के बाद भी वह मुस्कान ज्यों की त्यों बनी हुई है। उनके क्लास की सारी लड़कियाँ आशु के इस एक मुस्कान पर फिदा थी पर मोहिनी सबसे ज्यादा मोहित रहती थी। आशु आज भी उतना ही आकर्षक लग रहा था!! बल्कि, विदेश में रहने के कारण उसका रंग और भी निखर आया था।


"तुम कहाँ तक जा रही हो?"आशुतोष ने पूछा। " दिल्ली" मोहिनी का संक्षिप्त उत्तर था, " और तुम?" उसने पलटकर पूछा। " फिर तो, कल सुबह तक तुम्हें मुझे झेलना पड़ेगा। किस्मत से इस बार हमारी मंज़िल और सफर दोनों एक है।" शरारती स्वर में आशुतोष कह रहा था।

आशु और मोहिनी जब दसवी कक्षा में पढ़ते थे तो एकबार दोनों की किसी बात पर जमकर लड़ाई हुई थी। आशुतोष अगर शरारती था तो मोहिनी अपनी अहंकारी प्रवृत्ति के लिए मशहूर थी। आशु ने उसके बाद उससे बदला लेने के लिए एक बेनाम प्रेमपत्र उसके बैग में डाल दिया था जिसे अगले दिन सुबह मोहिनी ने जाकर क्लास-टीचर को दे दिया था, लिखावट जब आशु का निकला तो उसके पैरेंट्स बुलवाये गये थे और टीचर ने उस दिन उसकी भरपूर शिकायत की थी। इसके बाद घर पर आशुतोष की अच्छी तरह धुनाई हुई थी जिसके कारण वह एक हफ्ता स्कूल नहीं आ पाया था। इस घटना के बाद दोनों की आपस में बोलचाल बंद हो गई थी। उस घटना के बाद आशु के स्वभाव में कुछ बदलाव आ गया था। वह काफी शांत हो गया था और पढ़ाई में ज्यादा से ज्यादा ध्यान लगाने लगा था।


मोहिनी ने जब उस दिन आशु का उतरा हुआ चेहरा देखा तो बाद में उसे अपनी ज्यादती का अहसास हुआ। अपने किए पर पछतावा होने लगा। अपराध बोध से उपजी करुणा और उससे कब उसके मन में प्रेम-भावनाओं ने जन्म ले लिया--यह मोहिनी न जान सकी। उसे इसका एहसास तब हुआ जब अगले दो साल उसने अपने-आपको रात-दिन मन में आशुतोष के नाम की माला जपते हुए पाया। आशु को एक झलक देख पाने-से उसका दिन बन जाया करता था। उसे कई बार ऐसा लगा कि एकबार चलकर आशु से माफ़ी मांग लेनी चाहिए पर स्वाभिमान से भरे होने के कारण उससे यह काम न हो सका कभी। वह पहल न कर सकी।


वही आशु आज उसके सामने उपस्थित था। कूपे में एकांत भी था। मन में एक बार फिर से इच्छा हुई कि--उस दिन के सारे अपमान के लिए एकबार माफ़ी मांग ले। उसने आशु की ओर देखा। वह खिड़की से बाहर देख रहा था। कितना आकर्षक दिखता है आज भी वह ! मोहिनी एकटक उसे निहारे जा रही थी। यह सचमुच कोई चमत्कार से कम न था कि आज इतने वर्षों बाद, अपने शादीशुदा होने के बावजूद भी आशु का जादू उस पर सर चढ़कर बोल रहा था।


बाहर अब भी बहुत तेज बारिश हो रही थी। उनकी ट्रेन अब गुजरात राज्य से गुजर रही थी और किसी अज्ञात कारण से पिछले आधे घंटे से रुकी पड़ी थी। कुछ देर बाद यह घोषणा हुई कि दो-दिन के लगातार बारिश के कारण आगे की पटरियां डूब गई हैं। अतः ट्रैन आगे न जा सकेगी। ड्राइवर किसी तरह धीरे-धीरे ट्रेन को चलाकर वलसाड् स्टेशन तक ले गया और इंजन खोल दिया। मोहिनी जी ने अपनी सारी प्रभाव और जान-पहचान के बदौलत अपने लिए होटल का एक रूम बुक करवा लिया। आशुतोष ने मोहिनी के साथ जाने का आग्रह किया। वह करीब बीस साल बाद हिन्दुस्तान लौटा था और यहाँ किसी को जानता नहीं था।


होटल पहुँचकर वहाँ की व्यवस्था देख मोहिनी जी ने अपने नाक-भौंह सिकोड़ लिए। होटल में कदम रखने की जगह न थी। एक-एक कमरे में दस-दस लोगों को ठहराया गया था। ये अधिकतर उनके ट्रेन के सहयोगी ही थे। गनीमत यह थी कि मोहिनी का कमरा सबसे बड़ा था। परंतु आशुतोष के साथ उसे शेयर करना पड़ रहा था। कैसी विकट परिस्थिति थी! जिसके साथ अपनी पूरी जिन्दगी बिताने का कभी वह सपना देखा करती थी ,आज उसी के साथ कमरा शेयर करने में झिझक हो रही थी। शादीशुदा जीवन की मर्यादा से जो बंध चुकी थी वह अब। उसका उल्लंघन न कर पा रही थी। उसे इस तरह असमंजस में देखकर आशु बोला, " तुम चिंता मत करो मोहिनी, मैं इस सोफे से काम चला लूँगा।"


गुजराती बड़े ही धार्मिक और दयालु होते हैं। इस आपात् स्थिति में भी उनकी मेहमाननवाज़ी देखने लायक थी। खुद तकलीफ़ में थे परंतु इस तरह फंसे हुए लोगों की मदद करने में उन्होंने कोई कसर न छोड़ी थी। बाढ़ जैसी परिस्थिति में भी इतने सारे लोगों को खिलाने-पिलाने की व्यवस्था होटल वालों की तरफ से था। स्थानीय लोग भी उसमें काफी मदद कर रहे थे।

आधी रात को कुछ आवाज़ सुनकर मोहिनी ने आँखे खोली तो उसने पाया कि आशुतोष को तेज बुखार है और वह कुछ बड़बड़ा रहा था। इतनी रात को डाक्टर नहीं मिल पाया तो मोहिनी ने उसे अपने पास रखे बुखार की गोली निकालकर दे दिया और उसके सिरहाने बैठकर जलपट्टी लगाने लगी। दिमाग बार-बार यह सवाल पूछ रहा था कि क्या वह जो कर रही है वह ठीक है? तभी दिल ने दिलासा दिया कि आखिर आशु उसका सहपाठी था, इस नाते दोस्त हुआ, क्या बीमार दोस्त की मदद नहीं करनी चाहिए? अपनी इंसानीयत को भी तो जवाब देना होगा?


रात भर वह आशु की सुश्रुषा करती रही। आशु का चेहरा उसके बहुत करीब था। यहाँ तक कि वह उसकी दिल की धड़कनों को साफ सुन पा रही थी और सांसों के आवागमन को भी महसूस कर रही थी। पर वह अचेत अवस्था में था । मोहिनी को बार -बार यही लग रहा था कि यह सब पहले क्यों नहीं हुआ? काश , इसी तरह एकबार शादी से पहले दोनों मिले होते तो वह कभी किसी और से शादी नहीं करती। उसे अपने शादी वाले दिन याद आते हैं जब उसे बार-बार लग रहा था कि ज़रूर कोई चमत्कार होगा और दूल्हे के वेश में आशु उसके सामने खड़ा होगा--जैसा कि अक्सर उसकी कहानियों में हुआ करता है। असली जिन्दगी में संयोग के ऐसे मौके कितने कम होते हैं! और आज जब संयोगवश दोनों मिलें भी तो उनकी दुनिया कितनी अलग-अलग हो चुकी थी।


अगले दिन शाम को आशु का बुखार उतरा तो दोनों एकबार फिर आपस में सहज रूप से बोल रहे थे। उन्होंने एक-दूसरे को अपनी-अपनी जिन्दगी से रू-ब-रू कराया। आशु ने अपनी फ्रांसीसी पत्नी के बारे में, अपने बिजनेस के बारे में बहुत कुछ बताया था। मोहिनी ने भी अपने भारतीय पति और बच्चों के बारे में उसे अवगत कराया। अपनी साहित्य-लेखन और इस पुरस्कार के विषय में भी बताया।

आशु तब एकाएक मोहिनी से बोला कि वह स्कूल में रहते मोहिनी को बहुत पसंद करता था। इसलिए वह उसे घूरा करता था। इसी कारण उन दोनों का झगड़ा भी हुआ था। आज पैंतीस साल बाद उनका यों अचानक मिलना किसी सपने से कम न था। मोहिनी को लग रहा था कि यह उन दोनों की अतृप्त इच्छाएं ही थी जो उनको यूं दुनिया के दो अलग-अलग कोनों से खींचकर आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया था!!


अगले दिन बारिश रुक गई। यातायात के सभी माध्यम भी पहले जैसे हो गए । सभी अपने-अपने गंतव्यों को लौटने लगते हैं। जाने से पहले आशुतोष मोहिनी को उसकी देखभाल करने के लिए' थैंकस' कहता है और इसके बदले मोहिनी से कोई गिफ्ट भी लेने का आग्रह करता है। मोहिनी उससे हमेशा याद रखने का वादा लेती है। साथ ही यह भी बताती है कि वह हमेशा से ही उसकी रहेगी मन ही मन। कहती है---

"आई विल बी इमोशनाॅली योर्स ऑलवेस। कर्म से और वचन से भले ही अपनी पति की रहूं पर मेरे मन में तुम्हारे प्रति प्रेम किसी अंतःसलीला नदी की भांति सदा बहती रहेगी। जिसे बाहरी दुनिया के लोग कभी देख नहीं सकेंगे। हमारी यह मुलाकात किसी दैव का ही अभीष्ट रहा होगा। "इतना कह चुकने के बाद दोनों अपनी-अपनी दुनिया में वापस लौट जाते हैं।


रास्ते में एक बात याद आती है तो आशुतोष के चेहरे पर एक बड़ी-सी मुस्कान बिखर जाती है-- स्कूल में कभी-कभी मोहिनी ग़ालिब का यह शेर दोहराया करती थी-


ख्वाहिशें  इतनी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले।

बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले।।



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