मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Romance

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मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Romance

इज़हार अभी बाक़ी था (कहानी)

इज़हार अभी बाक़ी था (कहानी)

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"समीना से इसकी पहली मुलाक़ात बहुत बनावटी सी थी, एक दम ठण्डी। न इसमें कोई जोश था न उससे मिलकर कोई कशिश सी पैदा हुई थी कि दोबारा मिलने की ख्वाहिश होती। वैसे एक दोस्त की माँ अस्पताल में दाखिल थीं। उसकी की बहन के साथ ये भी तीमारदारी में थी। अब ऐसी जगह पर कोई खुशगवार मुलाकात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। समीना की उलझी - उलझी ज़ुल्फ़ें, अलसाई हुई आँखें साफ़ बता रहीं थीं कि ये रात भर जागीं हैं। वैसे भी समीना बहुत खूबसूरत तो नहीं थी। बस एक क़ुबूल सूरत सा चेहरा ही था। लेकिन, इसके चेहरे पर मोटे - मोटे चश्मे के लेंस से इसकी ज़ेहनियत झलक रही थी। दोस्त की माँ की तबियत में भी अब रवानी पर थी। शायद एक दो दिन में छुट्टी होने वाली थी। नईम ने थोड़ी देर बैठ कर उसकी अम्मी की ख़ैरियत दरयाफ़्त की और अस्पताल के इस प्राइवेट रूम से जब बाहर निकलने लगा तो इसकी दोस्त की बहन के बाद समीना ने भी नईम को एक फॉर्मल सा सलाम ठोक ही दिया था। जिसका नईम ने सर हिला कर इशारे से ही जवाब भी दे दिया था। अब इसमें नज़र मिलने या नहीं मिलने का तो सवाल ही नहीं था। 

नईम वैसे इस तरह की मुलाकातों का आदी था। उसकी खुद की पर्सनालिटी भी कोई बहुत इम्प्रेससिवे नहीं थी। न तो कोई किताबी सा चेहरा, न ही निकलती हुई हाइट, जैसी अक्सर लड़कों की होती है। लड़कियों को इम्प्रेस करने में हाइट बहुत अहम् रोल अदा करती है। वैसी भी लड़कों में हाइट के अलावा और कोई ऐसी खास बात नहीं होती जो उनको इम्प्रेस करे। सारे लड़के गधे-घोड़ों जैसे ही नज़र आते हैं। धूप में घूम-घूम कर उनके रंग तक़रीबन एक जैसे ही हो जाते हैं। नईम के सर की पेशानी के ऊपर बालों ने भी अब इसे एक के बाद एक अलविदा कहना शुरू कर दिया था। अगर शादी में दो चार साल रुकावट आती है तो शायद इसका तआरुफ़ एक गंजे लड़के की तरह किया जाना था। एक तो अक्सर लड़कों के बालों का झड़ना भी एक आम सी बात हो गई है। कई बार नईम सोचता था कि लडकियां गंजी क्यों नहीं होतीं? अब तो वह पहले से अहसासे-कमतरी का शिकार था। लेकिन उसको पूरी सख्सियत से एक ज़हीन और तेज़ इंसान निकल कर बाहर आता था। जो किसी भी मसले को हैंडल करने के लिए तैयार था। होता भी क्यूँ न, क्यूँकि ज़िन्दगी की तल्खियों ने उसके परसेप्शन को पुख्ता कर दिया था। जिसमें किसी भी शक-शुबह की गुंजाईश नहीं थीं। बला का कॉन्फिडेंस झलकता था उसके बात करने से।

 तो फिर क्या समीना ने कहीं इसी कॉन्फिडेंस को ही तो नहीं नोटिस कर लिया था? क्योंकि लड़कियां भी लड़कों की पर्सनालिटी एक नज़र में ही भांप लेतीं हैं। उन्हें किसी से सलाह मश्विरे की ज़रुरत नहीं होती। और इंसान की नज़रों की पहचान तो क़ुदरत इस क़दर देती है कि इनके दो आँखें आगे और दो पीछे होतीं हैं। अपने आस-पास होने वाली हर आहट का इनको इल्म विरसे में मिला होता है।

 नईम रोज़ की तरह ऑफिस से आकर सूरज डूबने के बाद अँधेरा होने पर अपने घर के क़रीब छोटी सी झील के किनारे बने पार्क में चहल क़दमी करने आया था। यहाँ एक छोटा सा बोट क्लब भी था। जहाँ दिन में सैलानी बोटिंग करने आया करते थे। लेकिन शाम को सूरत ढलने के बाद वाच टावर के आस-पास ही शमसुद्दीन सारी बोट्स को मोटी सी ज़ंजीर से बाँध दिया करता था। जितनी देर शमसुद्दीन बोट्स बाँधने में मसरूफ़ रहता उतनी देर वाच टावर का गेट भी खुला रहता था। नईम जब ऊपर चढ़ने लगता तो शमसुद्दीन कभी तो मना कर देता। कभी के ये सोच कर की अभी उसको ऑफिस और बोट्स का टिकिट काउंटर बंद करने में टाइम लगेगा, ऊपर जाने की इजाज़त इस हिदायत के साथ देता कि बाबू जी 10 - 15 मिनिट लगेंगे, मुझे। आप जल्दी उतर आना। तब ऊपर चढ़ते वक़्त शमसुद्दीन से माचिस भी माँग लेता।

वाच टावर पर खड़े होकर झील का नज़ारा चारोँ तरफ की लाइट जल जाने से बहुत खूब सूरत लगता था। आसपास की ऊँचीं-ऊँचीं बिल्डिंगों की फैलती सी परछाइयां झील के पानी में उठने वाली लहरों पर तैरती नज़र आतीं। इनको देखकर पता नहीं नईम को क्या सुकून मिलता था? चारों तरफ वीरानी और झींगुरों की तेज़ होती हुई आवाज़ें तो इंसान को डरावनी सी लगतीं हैं। लेकिन नईम इस में भी ज़िन्दिगी ढूँढता फिरता था।

पार्क के बाहर वाली गुमठी से एक सिगरेट खरीदता और शमसुद्दीन की माचिस से जला कर लम्बे कश खींच कर हवा में गोल छल्ले बना कर उड़ाने में शायद उसकी दिन भर की थकान दूर हो जाती। सिगरेट जैसे ही ख़त्म होती नीचे उतर कर शमसुद्दीन की माचिस वापस कर हलके क़दमों से वापस घर की तरफ चल देता। न कोई दोस्त न दुश्मन, बस हर एक से काम की बात उसकी ज़िन्दगी का दस्तूर बन गया था। खाला-खालू ने जिनके यहाँ वह रुका था, इसके मिज़ाज को समझ कर, इसे इसके ही हाल पर छोड़ देते दिया था। नई-नई नौकरी थी। खाला अम्मी इसी शहर में कोई अच्छी सी लड़की की तलाश में थीं। लेकिन जब भी इस से ज़िकर करतीं ये टाल देता था। पता नहीं इसे औरत ज़ात से कोई उन्सियत सी नहीं थी। 

 आज तो शमसुद्दीन भी अपना काम जल्दी से निपटा कर जब ऊपर चढ़ा तो उसके हाथों में ऑफिस की कुर्सी थी।

"बाबू जी, बैठ जाइये।"

"नहीं, बैठकर झील का वह नज़ारा नहीं दिखेगा जो रेलिंग के पास खड़े होकर दिखता है।"

"बाबूजी आपको क़ुदरत के नज़ारे लगता है, बहुत अच्छे लगते हैं। हाँ, होते भी बहुत खूबसूरत हैं। आप सुबह भी आया करिये न। बहुत लोग ताज़ी हवा लेने सुबह-बह आते हैं।"

हाँ, कोशिश करूँगा। वैसे मुझे लिखने-पढ़ने का शौक है। अक्सर कोई नावेल हाथ लग गई या फिर कुछ लिखने बैठ गया तो देर रात सोना होता है। इसलिए अलसुबह उठना थोड़ा मुश्किल भी है।

अब तक दोनों एक दूसरे से मानूस भी हो चुके थे। शमसुद्दीन ने मौका पाकर पूछा, "आप लिखते भी हैं क्या?" 

"हाँ, क्यों नहीं।"

अब शमसुद्दीन को क्या पता, नईम का लिखने का कहने का क्या मतलब था?

वह तो गाँव का एक अनपढ़ आदमी था जिसे चौकी दारी के लिए रखा गया था। नईम से कोई 8-10 साल बड़ा होगा। मौका पाकर कहने लगा। "तो फिर बाबूजी एक खत लिखवाना था? आप लिख दोगे?"

हाँ, लिखने को तो मैं लिख दूंगा, लेकिन किस को लिखवाना है, क्या लिखवाना है, किस पते पर लिखवाना है? ये सब भी तो मालुम होना चाहिए न।  

मैं बताऊंगा न, साहब।

अच्छा तो फिर एक पेन - काग़ज़ चाहिए होगा।

हाँ साहब सब है न, ऑफिस में, चलिए न।

और ऑफिस की लाइट जलाकर नईम के हाथ में एक पेड में काग़ज़ लगाकर पेन हाथ मैं देते हुए बोला, "आप लिखिए साहब,

जाने- मन,

तुम्हें ढेर सारा प्यार, 

उम्मीद है तुम वहां खैरियत से होगी। एक आध चक्कर अम्मा के पास भी लगा लिया करो। उनकी खैर-खैरियत लेती रहो। घर में चच्चा-चच्ची कैसे हैं? उनका भी ख्याल रखना। अब की ईद के चाँद में तारीख निकलवा लेंगे। तुम अपना भी ध्यान रखना। तुम्हारी बहुत याद आती है। 

फ़क़त तुम्हारा 

शमसुद्दी

बस इतना ही लिखना है। 

हाँ साहब, इस लिफाफे पर पता लिख दो। 

किस का पता ?

"हमारी अम्मा का। अब्बा तो अब इस दुनिया में हैं नहीं।"

अरे, तो खत तो, तुमने अपनी, "उसके" लिए लिखा है न। 

"अम्मा भी तो इसी से पढ़वाएगी। ऊ कौन सी पढ़ी-लिखी है।" 

अरे वाह, तुम तो बहुत अक्लवाले हो। 

नईम ने उसके बताए मुताबिक पता पाने वाले और भेजने वाले का पता लिख कर शमसुद्दीन को ये कहते हुए दे दिया कि सुबह पार्क के बाहर, जो लाल डब्बा लगा है, इसमें डाल दे।

नईम आज जब ऑफिस से जैसे ही बस स्टॉप पर पहुँचा तो उसने देखा कि उसके आगे वाली बस पर समीना जैसी लड़की चढ़ी। लेकिन वह पूरी तरह से देख नहीं पाया। सोचा, हो सकता है समीना भी इसी इलाके में किसी ऑफिस में नौकरी करती हो। दूसरे दिन थोड़ा और जल्दी आया इस तअक्कुब में कि कल वाली लड़की समीना ही थी कि नहीं।  

देखा, तो समीना स्टॉप पर बस के इन्तिज़ार में खड़ी थी। 

"अरे, आप?"

"जी, आदाब। आप भी यहीं सर्विस में हैं?"

"जी, सिंचाई विभाग की जो बिल्डिंग है न उसमें।" 

और आप?

"मैं सामने जो आयकर भवन है न। उसी में। अभी तीसरा महीना ही तो है ज्वाइन किये हुए।" 

समीना कुछ कहती इसके पहली ही बस आ गई और वह उसमें बैठकर चली गई। 

सोचने लगा, मैं ने अपनी तरफ से कुछ ज़्यादा ही तार्रुफ़ दे दिया। हर बार पता नहीं क्यूँ? एक ही गलती दोहराता हूँ। "उसको भी तो कुछ बोलने देना चाहिए था?"

अब अगर कल फिर टाइम मैच कर के आऊंगा तो कहीं ये न समझ जाए कि "मैं उसका पीछा कर रहा हूँ।" 

खैर जाने भी दो, कौन पड़े इन लड़कियों के चक्कर में। ये भी औरों जैसी नाज़- नखरे वाली निकली तो ... 

इस से तो अपन अकेले ही सही हैं। वैसे इस बार भी उस से मिलकर कोई वस - वसा तो उठा नहीं। 

एक खाला हैं कि लड़की ढूंढ कर ही दम लेंगी, शायद। अम्मी ने जो बहुत बड़ी ज़िम्मेदार उनपर सौंपी है। 

आज फिर शमसुद्दीन बहुत खुश दिखाई दे रहा था। खुद से जेब से माचिस निकल कर दे दी थी। "आप चलिए ऊपर मैं आता हूँ।" 

नईम को समझते देर न लगी कि लगता है उसकी "जाने-मन" के खत का जवाब आ गया है।

"प्यार भी क्या बला है? खत लिखो फिर जवाब का इन्तिज़ार करो। इस से पढ़वाओ तो उस से लिखवाओ। मुझ से ये सब इन्तिज़ार-विनतिज़ार तो होने से रहा???"

"साहब एक बात कहूँ?"

हाँ, बोलो। 

आप अच्छे - भले घर के लड़के लगते हो। "ये सिगरेट विग्रेट छोड़ दो। बुरी आदत हहाँ , शमसुद्दीन बहुत जल्द छोड़ दूँगा। "तुम बताओ जवाब आया कि नहीं?"  

सिगेरट जैसे ही ख़त्म हुई शमसुद्दीन ने जेब से लिफाफा निकाला। बड़े सलीके से चिपकाया हुआ था। जैसे बहुत ही प्राइवेट खत हो। 

लेकिन जब नईम ने बेदर्दी से लिफाफे का एक हिस्सा फाड़ा तो शमसुद्दीन को लगा, कहीं उसके अन्दर रखा परचा न फट जाए। 

पढ़ कर सुनाइए साहब, "क्या लिखा है।" 

अरे सब्र तो करो सुनाता हूँ

मेरे सरताज,

बहुत, बहुत आदाब 

हमारी दुआ है, आप हमेशा सलामत रहें। आप का खत पढ़ कर ख़ुशी हुई। अम्मा को भी बता दिया था आप खैरियत से हो। मैं दिन में दो चार-चक्कर लगा लेतीं हूँ। आप बिलकुल फ़िक्र मत करना। अम्मा हमारे घर भी आईं थीं। मेरी अम्मी से कुछ शादी-वादी की बात कर रहीं थीं। मैं तो वहां से चली गई थी। छोटी बहन सितारा बता रही थी। ईद के चाँद में तारीख बताना है। अपना ख्याल रखना। 

सिर्फ तुम्हारी

किश्वर

एक साँस में सारा कुछ पढ़कर सुना दिया। खत का मज़मून सुनकर शमसुद्दीन की आँखों में एक अलग किस्म की चमक पैदा हो गई थी। शायद किश्वर के प्यार की चमक थी। उस अनजाने ख्वाब की ताबीर के हल होने की चमक थी, जो उसने अपनी खुली आँखों से देखे थे। बिना सवाल किये नईम उसे वह लिफाफा पकड़ा कर चलता बना। 

प्यार में एक तड़प तो है। जो दूरी से और बढ़ जाती है। आज क़दम कुछ भारी लग रहे थे। एक तो दिमाग़ थोड़ा शमसुद्दीन की तरफ माइल था। उसकी मेहबूबा तो पढ़ी लिखी है। जिस तरह से उसने लिखा है। "मेरे सरताज"!!! 

क्या वास्तव में लड़कियाँ भी ऐसे ही चाहतीं हैं?, सोचने लगा। आग दोनों तरफ से बराबर की हो तब तो जलने में वाक़ई मज़ा है। कम पढ़ी लिखी लड़कियाँ अपने जज़्बात का इज़हार बेबाकी से कर देतीं हैं। लेकिन ये ज़्यादा पढ़ी लिखी लड़कियाँ? इनको समझ पाना तो बड़ी टेढ़ी खीर है। मैं इसीलिए इस लफड़े में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन तेरे अफ़सानों की किरदार तो प्यार मुहब्बत की बड़ी डींगे हांकते हैं। खुद से ही सवाल-जवाब किये जा रहा था।  

"तो क्या? कभी उनका अंजाम पढ़ा है तुमने?"

हमेशा मायूसी, उदासी, बेवफ़ाई। कितनी ही मुहब्ब्तें तो तहज़ीब की भेंट चढ़ जातीं हैं!!! और जो अंजाम तक पहुंचतीं भीं हैं तो उन्हें समाज जीने नहीं देता। 

 आज के न्यूज़ पेपर में एक अदबी नशिश्त (गोष्ठी) की इत्तिला थी। कहकशाने-अदब की जानिब से शाम 7 बजे कम्युनिटी सेंटर में। नईम भी ये सोचकर पहुँच गया कि चलो आज शनिवार भी है कल की तो छुट्टी है ही। कुछ वक़्त भी गुज़र जाएगा और दिल भी बहल जाएगा। 

जब नईम पहुंचा तो गोष्ठि  शुरू हो चुकी थी। संचाल"अब मैं एक ऐसी आवाज़ को आवाज़ दे रहा हूँ। जो इस शहर की जानी पहचानी सख्सियत हैं। आपने बहुत कम वक़्त में मक़बूलियत हासिल की है। ज़ोरदार तालियों से इस्तक़बाल कीजिये। मोहतरमा समीना फरहत का।" 

"अरे, ये तो लिखतीं भी हैं। नईम को ताज्जुब तो हुआ लेकिन ज़्यादा नहीं।" 

समीना के कलाम में भी जुदाई, उदासी, मायूसी, इन्तिज़ार, इज़्तिराब, बेबसी लाचारी ही थी। लेकिन दाद भी खूब मिल रही थी। जिस से मालूम होता था कि अक्सर लोगों का हाले-दिल भी वही था। 

गोष्ठि ख़त्म होने के बाद सबका तार्रुफ़ भी हुआ। एक बार फिर समीना से मुख़ातिब होने का मौका मिला। 

"आपको भी अदब से उन्सियत है? कुछ लिखते भी हैं क्या?"

एक साथ दो दो सवाल !

"हाँ, उन्सियत भी है और लिखता भी हूँ।"

"तो फिर पढ़ा क्यूँ नहीं?"

मुझे शेरो-शायरी सुनना अच्छा लगता है। 

तो फिर लिखते क्या हैं?

कहानी, अफ़साने ?

अरे ये तो बहुत अच्छी बात है। अफ़साने पढ़ने का तो मुझे भी शौक़ है। लेकिन लिखा कभी नहीं। 

आप इतनी अच्छी ग़ज़ल जो कह लेतीं हैं?

"आप पढ़वाइयेगा कोई अफसाना?"

ज़रूर।

"इसकी शुरुआत कैसे हुई?" समीना ने पूछा। 

दरअसल डायरी लिखने की आदत थी। 

"फिर?"

फिर डायरी से लफ़्ज़ निकल कर फड़फड़ाने लगे। जैसे उन्हें अब कुएँ की नहीं बड़े से तालाब की ज़रुरत थी। तो कुछ मैगज़ीन के लिए लिखना शुरू किया। 

अरे, तो यूँ कहिये न कि, आप अफसाना निगार हैं। 

कोई ऐसा अफसाना जिसने आपकी नुमाइंदगी की हो?

हाँ, "हाँ, वह मिल गई" बहुत सी मैगज़ीन में छप चुका है। 

अरे ये तो बहुत अच्छी बात है। "मुझे भी दीजिये वह मैगज़ीन, मैं भी पढूंगी।" 

"तो क्या आपको भी किसी की तलाश थी?" समीना अब थोड़ा खुल रही थी।

नहीं, अरे ... वह तो मन - गढंत बना डाला। बस यूँ समझिये कि एक ख्याली पुलाव है, बघार दिया। अब किसी को अच्छा लगा, किसी को नहीं भी।

बहरहाल, समीना से इसकी मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू हो चुका था। इसकी वजह दोनों के ऑफिस जाने के रास्ते एक ही थे। जब ऑफिस आते-जाते, टकराते तो दोनों के दरमियान बहुत हलकी सी मुस्कान, वह भी ऐसी, जिसे कोई पढ़ न ले, फैल जाती। जो फ़िलहालहाँ... . एक बात ये ज़रूर हुई कि दोनों अदबी और समाजी प्लेटफॉर्म पर भी टकराने लगे। जब सोशल प्लेटफॉर्म पर होते तब समाज में फैली बदअमनी की बात होती।"हम कैसे आने वाली नस्लों को एक अच्छा मुआशरा विरासत में देकर जाएं?", इस पर तबादलए ख्याल किया जाता था।

 . .लेकिन जब अदबी हलकों पर मिलते तो अदबी सरगर्मियों से बात शुरू तो होती मगर बीच-बीच में शेर और शायरी का दौर भी चल पड़ता। हालाँकि अभी साहिर लुधयानवी और परवीन शाकिर इनके जज़्बात की नुमाइंदगी करने के लिए काफी थे। कोई नया नग़मा न इन्हें लिखने की ज़रुरत थी न कोईं नया गीत ये अपनी ज़ुबान पर लाना चाहते थे। व्हाट्स ऐप और फेसबुक ने भी अब तक सोशल मीडिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। और मोबाइल पर बाक़ायदा दिलकश शेर-शायरी और सदाबहार कोट्स एक दूसरे को भेजने का रिवाज क़ायम हो चुका था।

रोज़ सुबह समीना गुड मॉर्निंग और गुड नाईट के साथ कुछ न कुछ ज़रूर भेजती। इसी तरह नईम भी उनके रिप्लाई कर देता। नईम बहुत सोच समझ कर और सब्र से काम लेने का आदि हो चुका था। जज़्बात भी होश के काबू में थे। लेकिन दिल में तो कुछ-कुछ होता था। रेतीले मैदानों के टीले रोज़ बनते बिगड़ते थे। लेकिन इन पर से होकर गुज़रने वाली हवाओं में कुछ वह अच्छी तरह जनता था कि अपने जज़बात और अहसासात के इज़हार की भी एक उम्र होती है। जो अन्जाम से बेखबर होती है। थोड़ा सी ज़िम्मेदारी हो तो जज़बात और अहसासात मानी नहीं रखते, मानी रखता है तो सिर्फ अन्जाम। "क्या करने से क्या हासिल होगा? " और "जो हासिल होगा उसकी तुम्हें ज़रुरत है क्या?"

बहुत सारे तरह के सवाल पूछता है दिमाग़। जिसके सही-सही जवाब दिल के पास नहीं होते। वह तो शायद, लेकिन, किन्तु,परन्तु, में फस जाता है और दिमाग़ सारी शख्सियत पर हावी होता चला जावैसे भी नईम जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखता, इसके पहले ही इसकी सोच को बुढ़ापे ने अपनी गिरफ्त मैं क़ैद कर लिया था। किसी शादी ब्याह हो या कोई तक़रीब, जब सब लोग इकट्ठा होते तो नईम को अपने से बड़ों की शोहबत रास आती थी। बस इसी बात का इसके हम-उम्र मज़ाक भी बनाया करतहाँ ...... लेकिन एक बात ज़रूर थी, इनकी पसंद और न पसंद एक जगह जाकर कहीं मिलती ज़रूर थी। ये वह रेल की पटरियाँ नहीं थीं जो साथ-साथ तो चलतीं हैं, पर मिलती कहीं भी नहीं . . ....... इनकी दोस्ती तो एक कश्ती पर सवार, शाँत झील के पानी में इस तरह आगे बढ़ रही थी कि किसी को पता तक न था। वे ख़ुद दोनों एक दूसरे के हमक़दम तो थे, पर इस बात का अहसास भी नहीं कराना चाहते थे।

"समीना और नईम की नज़रें मिलतीं तो थीं लेकिन दोचार होने के बजाए झुक जातीं थीं जैसे एक दूसरे की चोरी पकड़ी जा रही ।खैर, ये सिलसिला भी बहुत दूर तक चला। ये कश्ती झील के बीचों बीच ऐसे ही पड़ी रही, या यूँ कहें कि अब तो माझी भी चप्पू चलाना भूल गया था। फिर एक और अजब बात हुई , पहले तो उस्तादों के शेर ऐसे पढ़े जाते जैसे बैत - बाज़ी (अन्ताक्षरी) चल रही हो। नईम को भी शायरी में दिलचस्पी बढ़ने लगी। और शेरों की इस्लाह समीना से करवाने लगा। इधर समीना नईम के अफ़साने पढ़कर उसकी दिमाग़ी कैफियत को जानने की कोशिश करती नज़रहद तो ये हुई कि अब खुद के तख़लीक़ करदा शेर एक दूसरे के जज़बात की नुमाइन्दगी करने लगे थे। दोनों के शेरो-शायरी से इज़्तिराब की कैफियत ख़त्म हो गई थी। बेवफाई और न उम्मीदी की बंद कोठरियों में सूरज की किरणें पहुँच चुकीं थीं। खुद के शेरों और उनके काफियों पर बहश मुबाहिशों का सिलसिला शुरू होने लगा। अफसानों के किरदार अहदो वफ़ा के पैमाने झलकाने लगे। साथ जीने और मरने की क़समें खाने लगव्हाट्स एप पर सुबह मुबारक और शब्-बखैर कहना भी ज़िन्दगी का एक मामूर बन चुका था। लेकिन ...... 

......... " लेकिन फिर भी इज़हार अभी बाक़ी था।

जिसे आज अंजाम देना था



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