"ईश्वर में आस्था या अंधविश्वास"
"ईश्वर में आस्था या अंधविश्वास"
आस्था पूर्ण समर्पण का भाव होता हैं.... लोग ना जाने क्यों इसे अंधविश्वास का नाम दे देते हैं। समर्पण का भाव किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकता हैं क्या उसे भी अंधविश्वास ही कहा जाएगा?
ईश्वर को याद करके हम अपना ध्यान एकाग्र कर पाते हैं क्योंकि ईश्वर के प्रति हमारे मन में पूर्ण समर्पण का भाव होता हैं। ये एक बहुत ही आसान तरीका हैं अपने ध्यान को एकाग्रचित करने का.... क्योंकि उस पल हमारे मन और मस्तिष्क में सिर्फ़ ईश्वर की छवि समाई रहती हैं।
कोई भी व्यक्ति कितने ही वेद पुराणों का अध्ययन क्यों ना कर ले अगर उसका मन शांत और एकाग्रचित नहीं हो पाएं तो वेद पुराणों का अध्ययन व्यर्थ ही चला जाता हैं।
भक्ति के नाम पर अगर मन में स्वार्थ के भाव होंगे तो हम अपने कर्त्तव्य मार्ग से दूर हो जाएंगे और इससे ना तो वह भक्ति किसी काम की रह जाएगी और ना ही जीवन में कभी सफलता प्राप्त कर पाएंगे।
उदाहरण के तौर पर बात करते हैं...
हमारे लिए हमारे माता–पिता ही सर्वोपरि होते हैं और हम पूरी तरह से अपने माता – पिता के प्रति समर्पित रहते हैं। लेकिन क्या कभी किसी भी व्यक्ति के मन में स्वार्थ का भाव आता हैं कि हमारे माता–पिता हैं तो वह ही हमारे लिए सब कुछ करे...?
क्या स्वयं के लिए किसी भी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हम पूरी तरह से अपने माता –पिता पर ही निर्भर हैं?
शायद इसका जवाब नहीं ही होगा....
क्योंकि हमारे माता –पिता ने हमें जन्म दिया और पाल–पोश कर बड़ा किया हैं तो उनके लिए हमारे मन में कभी भी स्वार्थ का भाव आ ही नहीं सकता हैं क्योंकि वह तो हमारे लिए पूजनीय हैं और कर्म करना हमारा कर्त्तव्य हैं।
बिल्कुल इसी तरह से ईश्वर की भक्ति हैं उन्होंने कभी भी किसी से नहीं कहा कि कोई मंदिर बनाओ या भोग लगाओ यह सारे रीति रिवाज मनुष्यों के ही बनाएं हुए हैं और अगर इन रीति रिवाजों को मनुष्य निभाता हैं तो फिर उसे सिर्फ़ आस्था का ही नाम दे ना कि अंधविश्वास का...
कभी भी किसी धर्म या धर्म को मानने वाले व्यक्ति का अपमान ना करें... उसकी भक्ति को अंधविश्वास का नाम ना दे...🙏🙏
