होली की वो डरावनी रात
होली की वो डरावनी रात


आज होली है,सबके हाथ गुलाल से भरे है, सबकी रंग बिरंगी हथेलियाँ और चेहरे पर ख़ुशियाँ फैली हुई थी।
मेरी भी हथेलियाँ गुलाल के रंग बिरंगे रंगों से अछूती नहीं है, पर इसके साथ साथ मेरा मन भी भरा हुआ है एक पुराने अतीत से। जो उस रात के डर को हर साल होली पर मेरे मन को घेर लेती है।
जब भी ये होली वापस आती है, तो वो अपने साथ उस मनहूस रात की यादें भी लेकर आती है, होली में सब खुश होते है सिवाय मेरे, मैं भी क्या करूँ, वो रात भुलाये नहीं भूलती।
आज से तीन साल पहले की बात है, बिजधारा गाँव में रहता हूहूँ हमारे गाँव में जीवन यापन का कोई अच्छा साधन तो है नहीं, तो लोग नौकरी की तलाश में दूर दूर शहर की तरफ चले जाते थे। मेरे गाँव के करीब एक छोटा सा शहर था, भवानीपुर ...
वो हमारे गाँव से तक़रीबन 7 किलोमीटर दूर रहा होगा, मैं उसी शहर के एक दुकान में नौकरी करता था, मेरा घर जैसे तैसे चल जाता था। कभी कभी गाँव के लोगो के जरूरत का सामान भी शहर से खरीद कर उनके घर पहुंचा देता था, उसमे भी कुछ पैसों की आमदनी हो जाती थी।
मैं रोज पैदल ही शहर आना जाना करता था, इस एक तरफ के सफर में एक घंटा लग जाता था, पर करता भी क्या। एक ही बस चलती थी गाँव में, सुबह 11 बजे फिर वही बस शाम को 4 बजे।
होली से एक दिन पहले की बात है, गाँव के लोगो ने कुछ रंगों और पिचकारियों का आर्डर दिया था, मैं अपने दुकान का काम खत्म होने का इंतज़ार कर रहा था, आज बाजार में होली के कारण चहल पहल ज्यादा थी इसलिए हमारे दुकान पर भीड़ भी बहुत थी दुकान बंद करते करते करीब 10 बज गए।
अब मुझे कुछ रंग और पिचकारियां भी खरीदनी थी, इसलिए मैं बाजार में ही रुक गया, और सामान की खरीदारी करने लगा। ज्यादा देर होने की वजह से कई दुकान बंद भी हो गई थी, पर ख़ुशी की बात ये थी कि मुझे मेरा सारा सामान मिल गया। आज मैं बहुत लेट हो गया था, लगभग 11 बजे मैं बाजार से घर की तरफ निकला, रात ज्यादा हो जाने के कारण सड़क एक दम वीरान पड़ी थी। ये वही रास्ता था जिसपर मैं रोज़ ही आया जाया करता था, पर आज एक अलग ही बेचैनी थी, डर था, सड़क सुनसान थी। दोनों तरफ पेड़ो और जंगलों की कतारे, गाँव की सड़को पर तो स्ट्रीट लाइट होती नहीं है, पर गनीमत ये था कि आज पूर्णिमा की रात थी। इसलिए सड़क साफ़ नजर आ रही थी, कभी कभी जब चमगादड़ चीखते हुए करीब से नि
कल जाते तो मेरी हालत ख़राब हो जाती। झींगुरों की करकर्राहट एक शांत डर पैदा कर रही थी, पर कहते है न कि इंसान जब मुसीबत में हो तब चलने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होता है। इसलिए मैं भी चलता जा रहा था, मैं गाँव के करीब पहुंच गया अब मेरा गाँव ३०० मीटर होगा, यही पर एक रेलवे फाटक था।
मैं इसी रेलवे फाटक को पार कर रहा था कि वहां मुझे एक बच्चा रोता हुआ दिखाई दिया करीब एक साल का बच्चा होगा। मुझे लगा गाँव के ही किसी का बच्चा होगा, या जिसका भी हो कल सुबह पता चल जायेगा। ऐसे उस बच्चे को वहां छोड़कर आने का मेरा मन नहीं हुआ। मैंने उसे गोद में उठाकर घर की तरफ चल दिया। पांच मिनट ही चला हूँगा कि मुझे वो बच्चा भारी लगने लगा, पर मैंने सोचा कि पास में सामान है, शायद इसलिए भारी लग रहा है।
अगले पांच मिनट में बच्चा और भारी लगने लगा, अब मुझे कुछ अजीब लगा, पर मैं घर पहुंचने की जल्दी में ध्यान देना जरुरी नहीं समझा। फिर कुछ ही मिनट बाद मेरे पीछे कुछ घिसटने की आवाज़ आने लग, ये आवाज़ लगातार मेरे कानों में आ रही थी। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो उस बच्चे का पैर इतना लम्बा हो गया था कि वो जमीन पर घिसटने लगा था। मेरी तो डर से हालत ख़राब हो गई, डरते डरते मैंने उस बच्चे की शक्ल की तरफ देखा, तो उस बच्चे ने एक शैतानी मुस्कान दी। ये देख कर अब मेरी हिम्मत ने जवाब दे दिया, मैं सब सामान और बच्चे को वहीँ फेंक कर बेतहाशा भागने लगा।
मैं पीछे मुड़कर भी नहीं देख रहा था, मैं भागे जा रहा था, मैं अपने घर से थोड़े ही दूर रहा हूँगा कि एक सफ़ेद साड़ी में एक औरत अपनी बाहे फैलाये मेरे रास्ते में खड़ी हो गई। वो करीब मुझसे 50 मीटर की दूरी पर होगी, मैं बेतहाशा दौड़ता रहा, और उस चुड़ैल के करीब पहुंचने से पहले मैं भागकर दूसरे के घर के आंगन से पहले की दीवार जोकि 4 फिट ऊचाई की होगी उसे कूदकर मैं दूसरे के घर में चला गया। दरवाज़ा खुलवाकर वही पूरी रात रुका, गाँव में तो सब एक दूसरे को पहचानते ही है, सुबह मैं अपने घर गया , ये बात सारे गाँव में फ़ैल गई, सबने कहा कि रेलवे ट्रैक पर कई छलावे होते है, हमें सावधान रहना चाहिए।
तब से ये होली रंगों और ख़ुशियों के साथ साथ मेरे लिए डर भी लेकर आती है ......