Mukta Sahay

Abstract

3.8  

Mukta Sahay

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हमसफ़र और प्रेरक -तुम

हमसफ़र और प्रेरक -तुम

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हेम दीदी का बाल मनोविज्ञान पर प्रकाशित लेख पढ़ते ही मेरे विचारों का कारवाँ साठ साल पीछे की ओर दौड़ गया। पति के स्थानांतरण के कारण मैं और बच्चे सभी रायपुर आ गए थे, हेम दीदी के पड़ोस में। हेम दीदी के स्वभाव के कारण हम सब उनके और उनके परिवार के साथ जल्द ही घुल मिल गए। हमें अहसास ही नहीं हुआ कि हम नए शहर में आए हैं। हेम दीदी मुझसे शायद दो या तीन वर्ष ही बड़ी होंगी इसलिए हम दोनों में अच्छी बनती थी। दीदी जितना अच्छा खाना बनती उतना ही अच्छा गाती भी थी। साथ ही सिलाई बुनाई में तो वह पूरे मुहल्ले में सभी की गुरु माँ थी।

उस दिन मैं बेटे के स्वेटर के लिए ऊन लाई थी। कैसे बनाऊँ पूछने हेम दीदी के पास गई तो उन्होंने कहा मेरी परीक्षा चल रही हैं, मैं अब तीन दिन बाद ही कुछ मदद कर पाऊँगी। मैंने पूछा अच्छा केशव की परीक्षा शुरू होने वाली है क्या! केशव हेम दीदी का बेटा हैजो दसवीं में है और मेरे बेटे का दोस्त है। मेरे बेटा अभी आठवीं में है । हेम दीदी ने कहा नहीं मेरी परीक्षा है। मैंने वयस्कों के रात्रि शिक्षा में दाख़िला ले रखा है और दो महीने बाद मेरी दसवीं की परीक्षा है इसलिए अभी तैयारी की परीक्षा चल रही है। मुझे कुछ समझ ही नहीं आया मैंने फिर पूछा मतलब आप दसवीं की पढ़ाई कर रही हैं। दीदी ने कहा हाँ बाबा हाँ। फिर कहती हैं, अच्छा बैठ बताती हूँ। मुझे पढ़ने का बड़ा शौक़ था, लेकिन सातवी के आगे का स्कूल घर से बहुत दूर था सो पढ़ाई छूट गई। बाबूजी दोनों भाइयों को साइकिल से स्कूल तक ले जाते और लाते थे। साइकिल पर भी जगह नहीं होती थी। दोनों भाई ही कुछ पढ़ा समझा देते थे वही बहुत था उस समय मेरे लिए।किताबें पढ़ लेती थी, कहानियाँ और कविताएँ समझ लेती थी और क्या चाहिए था। आज जैसे बच्चे सोंचते हैं की उन्हें कुछ बनाना है ऐसी सोंच उस समय नही थी। लड़कियों को तो बस घरेलू काम सुघड़ता से कर ले वही अच्छा मानते थे और साथ में अगर सिलाई, कढ़ाई, बनाई आता हो तो सोने पर सुहागा।

उस समय जैसा होता था, मेरी शादी भी जल्दी हो गई। फिर केशव आ गया और बस फिर ज़िंदगी की गाड़ी तेज़ी से चल पड़ी, जिसमें स्वयं के लिए कुछ क्षण ढूँढ पाना कठिन हो गया था। बचपन से ही मेरी एक आदत थी, मैं छुप-छुप कर , यूँ ही कभी कभी अपनी भावनाएँ शब्दों और पंक्तियों में लिख लिया करती थी। शादी के लगभग चौदह साल हो गए थे और एक दिन एक काग़ज़ का टुकड़ा इनके हाथ लग गया जिसमें मैंने कुछ पंक्तियाँ लिख रखी थी। इन्होंने उन पंक्तियों को पढ़ लिया और आश्चर्यचकित रह गए। थोड़े शर्मिंदा भी हुए की शादी के इतने सालों तक उन्हें मेरे बारे में सबकुछ नही पता है। मुझसे बहुत सी बात की और उन्हें मेरी पढ़ने की इच्छा के बारे में भी पता चला। अब ये मेरी इस इच्छा को पूरा करना चाहते थे। इन्होंने जानकारी इकट्ठा करी और मुक्त स्कूल के माध्यम से मेरा नामांकन आठवीं में करा दिया। मैंने भी सोंचा मौक़ा मिला है तो क्यों ना अपनी बरसों से दबी चाहत को पूरा कर लूँ । ख़ूब मेहनत करी मैंने। घर का काम, बच्चों की देखभाल, पढ़ाई सब करते करते थक सी जाती थी पर जब ये घर आते और पूछते आज कितने अध्याय पूरे किए तो जोश भर जाता था, आगे पढ़ने का। दिनभर की थकान के बावजूद ये देर रात तक बैठ कर मुझे पढ़ते और समझते थे। इसी बीच इनका तबादला दूसरे शहर हो गया। ये कश्मकश में थे कि क्या करें । इनकी एक ही शंका थी कि कहीं इनके जाने से मेरी पढ़ाई रुक तो नहीं जाएगी। मैं घरेलू कामों के बीच फँस तो नहीं जाऊँगी। ऐसे में मैंने मन में ठान ली की अब तो कुछ कर दिखाना ही है स्वयं के लिए और उससे भी ज़्यादा इनके लिए , मेरे जीवनसाथी और हमराही के लिए । जिन्होंने मुझे मेरे सपने जीने की राह दिखाई है और आगे चलना सिखाया है। मैंने इन्हें विश्वास दिलाया की मैं अपनी पढ़ाई पूरी तन्मयता से जारी रखूँगी और ये निश्चिंत हो तबादले वाली जगह जा, अपना काम सम्भलें। बस फिर क्या था लाख रोड़े आए , बाधाएँ आई मैं नहीं रुकी और जब सुस्त हुई तो इनकी बातें मुझे आगे बढ़ने को प्रेरित करती रहीं । शहर से बाहर होते हुए भी ये मेरे हौसले को बढ़ाते रहे। जब भी मेरी परीक्षा होने को रहती तो ये छुट्टी ले कर आ जाते और पढ़ाई में मेरी मदद करते और घर के कामों में भी।

हेम दीदी की बात सुन, उनके और भाईसाहब के लिए मेरे माँ में सम्मान और भी बढ़ गया। मुझे अहसास हुआ की ठान लो तो दुनिया भी मुट्ठी में आ सकती है।

जब हम लोग रायपुर छोड़ रहे थे तब हेम दीदी बारहवीं की परीक्षा दे रही थी, साथ ही उनका बेटा केशव भी बारहवीं की परीक्षा दे रहा था। पत्र और फिर फ़ोन के माध्यम से मैं हमेशा हेम दीदी से जुड़ी रही। अनजान शहर में उनसे मुझे अपनापन मिला था शायद इसलिए एक लगाव सा था उनसे। उनसे प्रेरित हो कर मैंने भी छूटी पढ़ाई शुरू कर ली और स्नातकोत्तर करने के लिए नामांकन करा लिया था। हेम दीदी की बातें और समय समय पर मिलते सीखों को सुनकर मैं समझ गई थी कि ये आम घरेलू महिला नहीं है , इनमें कुछ बहुत ही ख़ास है। असलियत में भी हेम दीदी ने रातें जाग जाग कर अपने सपनों को पंख दिया है।

मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर स्वर्णिम अंकों से उत्तीर्ण करने के बाद दीदी ने पीएचडी करने की ठानी थी। पूछने पर पता लगा कि इनकी मंशा है मनोवैज्ञानिक सलाहकार बनने की और बच्चे, बड़े सभी को अपने सपने जीने में मदद करने की। वैसे ये उस उपाधी के बिना भी लोगों से जुड़ जाती थीं और सकारात्मक सीख दे देती थीं। पीएचडी पूरी होते ही हेम दीदी ने अपनी कंसल्टंसी शुरू कर ली। साथ ही अपने अनुभवों को विभिन्न जर्नेल और किताबों में भेजने लगी । इनके लेखों और अध्ययन को बहुत पसंद किया जाने लगा। इन्हें सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा। आज ये एक जानी मानी मनोवैज्ञानिक हैं। भाईसाहब भी अब सेवनिवृत हो गए हैं और हेम दीदी के साथ मिलकर कंसल्टंसी के काम को आगे बढ़ाते हैं। उम्र के इस पड़ाव में भी हेम दीदी अपने जीवनसाथी के साथ कितने ही लोगों के सपनों को पंख दे मंज़िल तक पहुँचा रही हैं। दीदी और भाईसाहब एक दूसरे के पूरक बन अपने इस जीवन को सार्थक कर रहे हैं।

हेम दीदी के माध्यम से मैं ये समझ पाई हूँ कि कितनी ही बहनें अपने सपने, अपनी उड़ानों को विराम या कई बार पूर्ण विराम लगा देती हैं। अपना जीवन बेटी, बहन, पत्नी, माँ बन समर्पित कर देती हैं, लेकिन हेम दीदी के जैसा जीवनसाथी यदि प्रेरक बने तो उनकी उड़ान भी अपने चरम तक पहुँच सकती है। सपनों को जीना है तो दो बातें बहुत ज़रूरी हैं पहली कड़ी मेहनत और दूसरी पथप्रदर्शक, प्रेरक जीवनसाथी के रूप में या फिर पिता या भाई के रूप में, फिर कोई भी मंज़िल दूर नहीं।


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