हलुवे की महक
हलुवे की महक
‘तंग आ गई हूं अब तो । सारा दिन बिस्तर पर पड़े पड़े खांसते रहते हो । सारा दिन तुम्हारें आगे पीछे ही न जाने कहां पूरा हो जाता है ।’ थूक से भरा कटोरा उसके मुंह से हटाते हुए बड़बड़ाती हुई वह बोली ।
‘क्यों गुस्साती है राधे । तुझे भी तो मेरे संग इसी तरह जीने की आदत सी हो गई है । अब तो जाने के दिन नजदीक आ गए है । चला गया तो जी पाएगी मेरे बगैर ?’ तकिये पर अपना सिर टिकाते हुए कांपती आवाज में उसने धीमे से पूछा ।
‘पूरे ४५ साल हो गए तुमसे ब्याह हुए । अब तक एक पल के लिए अपने दूर नहीं किया तो कभी सोचा ही नहीं इस बारें में ।’ पिछली बातों को याद करते हुए वह उसके सिरहाने ही बैठ गई ।
‘कैसे दूर करता ? तू मेरे साथ एक विश्वास के सहारे बिना कुछ सोचे पल में ही सब कुछ छोड़कर जो चली आई थी ।’ उसकी पथराई आंखों में पिछली बातें एक एक कर उमड़ने लगी ।
‘तुमने भी तो सबकी मर्जी के विरुद्ध मुझसे ब्याहकर रिश्तेदारों के रूठने पर अपनी के जिन्दगी के दायरें मुझ तक ही सीमित कर दिए थे ।’ अपने प्रेम विवाह की पहली रात उसकी आंखों के आगे तैर गई ।
‘अब सब पीछे छूट गया है । मेरे पीछे मेरी पेन्शन पर तेरा गुजारा तो हो जाएगा पर मेरे बगैर अकेली कैसे जी पाएगी यही चिन्ता खाये जाती है ।’ कहते हुए उसने उसकी हथेली थाम ली ।
‘पिछले एक साल से ये जाने की रट लगा रखी है । भला गए हो अब तक ? बस बिस्तर पर पड़े पड़े खांसते रहते हो ।’ वह वहां से उठकर जाने को हुई ।
‘अच्छा चल ! आज सच में चला जाऊंगा । बस तेरे हाथ का बना हलुवा खिला दे एक बार ।’ उससे अपना दर्द छिपाते हुए चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान लाते हुए उसने गुजारिश की ।
‘सीधे कहो न कि जीभ ललचा रही है । अभी बना लाती हूं ।’
महीने पहले ही उससे आखरी बार हुई मीठी सी नोंकझोंक याद कर उसकी आंखें भर आई । उसके खाली पड़े बिस्तर के पास बैठे बैठे आखरी बार कमरे में फैली हलवे की महक अनुभव करते हुए उसका मन भारी हुआ जा रहा था । आज भी गुजर बसर का सारा सामान साथ था पर जीने का कोई उद्देश्य सामने न था । सहसा हलुवे की आखरी बार की महक फिर से उसे उद्वेलित कर गई । वह उठी । गैस पर कढ़ाही चढ़ाई ।
घी गर्म हुआ और आटे के संग एक होकर महकने लगा । फिर दूध और शक्कर के पड़ते ही उनका प्यार और मीठा हो गया ।
हलवे से भरा डिब्बा लेकर वह निकल पड़ी - घर के पास नई आकार ले रही रेसीडेंसी के सामने खेलते, धूल से सने नंगधड़क बच्चों के पास ।