सेकेण्ड इनिंग

सेकेण्ड इनिंग

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अपनी सहेलियों से शादी के बाद की पहली रात के बारे में बहुत से किस्से सुन रखे थे। पुरूष के के लिए पहली रात यानि अपने पुरुषत्व को हर हालत में साबित करने की रात। यही सब तो उन सबने कहा था और मुझे डरा दिया था। पहली रात को पुरूष बहुत ही जोर आज़माइश कर आखिर में अपनी औरत किसी भी हालत में पा कर ही रहता है। लेकिन तुमने तो मेरे डर और सहेलियों से सुन रखी सारी बातों को गलत ही साबित कर दिया।


अपनी पहली रात की असफलता का दंश मन को कोई पीड़ा नहीं दे रहा था क्योंकि उस रात मेरे डर और पीड़ा को समझकर तुमने अपने उफनते उन्माद पर काबू कर मेरे मन पर तुम्हारे पुरुषत्व के विश्वास का एक बीज बोया था। उसी विश्वास के सहारे अगली सुबह तुम्हें आँखों में एक अजीब सी शरारत लिए हनीमून पर जाने की तैयारी करते देख मन ही मन सपनों के पंख लगाकर उड़ने लगी थी मैं। सबकुछ जरूरी सामान पैक हो जाने के बाद हड़बड़ी में आकर कुछ झिझकते हुए जब तुमने वह छोटा सा लाल पैकेट मेरे हाथों में रखकर उसे सम्हालकर बैग में रख देने को कहा तो मेरी आँखों में हजारों प्रश्न तैर गए ।


तुमने आँखों के इशारे से मेरे प्रश्नों के उत्तर देने की कोशिश की पर नासमझ मेरी आँखें उस वक्त लाल पैकेट का रहस्य न समझ पाई ।

जैसे तुमने वह पैकेट दिया वैसे ही उसे सम्हाल कर तुम्हारे कपड़ों के बीच उसे रख दिया।

अगले दिन आँखों में जिज्ञासा के साथ बड़ों का आशीर्वाद लेकर छुईमुई सी शर्माती हुई मैं तुम्हारे पीछे धीमे कदमों से चल दी थी, अपने हनीमून शब्द को सार्थक करने।

चाहकर भी उस वक्त थोड़ी शर्म और बहुत सारी झिझक की वजह से घर से निकलते हुए तुम्हारा हाथ अपने हाथों में लेकर न चल पाने का अफ़सोस अब भी मन के किसी कोने में दबकर रह गया था। लेकिन सहसा आज रात तुमने जब मनाली जाने की दो टिकटें हाथ में रखी तो हजारों प्रश्न एक बार फिर से उमड़ गए। तुमने आज फिर आँखों के इशारे से समझाने की कोशिश की पर अब की बार मैं पहली बार की तरह नासमझ न निकली।


‘इस उम्र में ? बेटे और बहू क्या सोचेंगे ?’

‘प्यार की कोई उम्र नहीं होती मेरी शालू।’ तुम बस मुझे देखकर शरारती बच्चे की तरह मुस्कुरा भर दिए ।

‘मुझसे एक बार पूछा तो होता। पूछे बिना ही टिकिट निकलवा ली।’ मैंने आँखें तरेरी और थोड़ा सा बनावटी गुस्सा किया।

‘उस वक्त तुमसे पूछ कर टिकट निकलवाई थी क्या ? फिर भी तुम मेरे पीछे पीछे चली आई थी न ?’

‘उस वक्त तुम २५ के थे जनाब और मैं २२ की। आज तुम ५५ के हो और मैं ५२ की। अब इस उम्र में क्या जरूरत है अकेले घूमने जाने की ?’ तुम्हारा जवाब सुन मैंने शिकायती स्वर में पूछा।

‘प्यार परिपक्व हो जाता है तो प्यार करने का मजा ही कुछ और होता है मेरी जान। घर गृहस्थी के जंजाल में तीस सालों में वह हनीमून वाले सकून भरें एकांत वाले पल फिर हमारें हिस्से न आ सके। चलों बेफिक्र होकर एक बार फिर सेकेण्ड इनिंग खेल ही लें।’

‘धत्त ! पागल कहीं के !’ तुम्हारा जवाब सुनकर बिलकुल एक नवोढ़ा की तरह शरमा गई मैं।

फिर तुम्हारे हाथ में आज एक पैकेट देखकर चौंक गई मैं। मुझे पहली बार की तुम्हारी झिझक और वह लाल पैकेट याद आ गया।

‘अब इस उम्र में इसकी क्या जरूरत रह गई जी ?’ मैंने सकुचाते हुए पूछ ही डाला। 

'जानेमन ! यही तो जीने का सहारा है । यही तो जिन्दगी के बचे हुए दिनों का सुख है। यह है तो समझ लो सब है।’ तुम्हें बोलते हुए जरा भी शर्म न आई।

मैं चुपचाप तुम्हारी आँखों को परखने का प्रयास करती रही। तुम उसी तरह आँखों के इशारों से पहेलियां बुझाते रहे।

आख़िरकार मुझसे रहा न गया, ‘जाओ जी ! मैं न रखूंगी इस पैकेट को अब साथ। जरा अपनी उम्र का तो लिहाज करो। बच्चों के घर बच्चें आ गए है और इस उम्र में तुम्हें यह सब सूझ रहा है।’


‘बड़ी समझदार हो गई हो जानेमन !’ तुम मेरी तरफ देखकर जाने क्यों मुस्कुरा दिए।

‘तुम जो समझ रही हो वह नहीं है, ये तो मेरी ब्लडप्रेशर की और तुम्हारें थायराइड की एक महीने की दवा है।’ तुम्हारे जवाब ने आखिरकार एक बार फिर से मुझे नामसझ साबित कर दिया।

आज तुम्हारा हाथ थामे तुम्हारे साथ चलते हुए नयी नवेली दुल्हन के अधूरे रह गए अरमान पूरे करते हुए मैं तुम्हारे अरमानों के साथ घर से बाहर निकल पड़ी। 


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