Ashish Dalal

Drama

1.0  

Ashish Dalal

Drama

एक दोस्त जरुरी है

एक दोस्त जरुरी है

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शादी के तुरंत बाद ही मेरा तबादला इस शहर में हो गया. उस दिन अपनी नई नवेली दुल्हन के साथ इस अनजान शहर के बाजार में चहलकदमी करते हुए अचानक मेरी नजर आरजू बुटिक शॉप पर पड़ी. बुटिक शॉप का नाम देखकर न जाने क्यों मेरा मन अन्दर जाने को मचलने लगा. पत्नी के संग जैसे ही उस बुटिक शॉप के अन्दर दाखिल हुआ तो सामने खड़ी मेरी ही हमउम्र उस युवती को देखकर किशोरकाल की कई कई स्मृतियां जेहन में एक एक कर ताजा होने लगी. 


स्कूल की लंच की घंटी बजते ही सारे विद्यार्थी फटाफट अपना लंच बॉक्स बस्ते से निकालकर स्कूल के सामने खुले पड़े मैदान की ओर दौड़ पड़ते. बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के उस समूह का मैं भी एक हिस्सा था. हम लड़कों का ग्रुप नीम के बड़े से पेड़ के नीचे नाश्ता करने बैठता था और लड़कियां हम से कुछ दूर सामने बने ओटले पर बैठती थी. तभी आरजू मेरे पास आई.


 ‘राजू, तू आज क्या लाया है टिफिन में?’ 


‘आलू के पराठे’ 


‘तू एक्सचेंज करेगा तेरा टिफिन मेरे टिफिन से? मैं बिरयानी लाई हूं.’ लाल कलर का प्लास्टिक का टिफिन बॉक्स मुझे दिखाते हुए उसने कहा.


‘नहीं. मैं चार पराठे लाया हूं. तुझे दो ही दूंगा बाकि के दो मैं खुद ही खाऊंगा.’ मैंने उसे चिढ़ाते हुए उसके हाथ से उसका टिफिन छिनते हुए कहा.  


‘यू चीटर. घर पर मिल. आंटी से कहकर तेरी पिटाई न करवाऊं तो मेरा नाम आरजू नहीं.’ दूसरे ही क्षण आरजू ने झपट कर मुझसे मेरा टिफिन ले लिया और वहां से भागकर लड़कियों के बीच जाकर बैठ गई.


मैं और आरजू दोनों एक ही क्लास में पढ़ते थे. घर भी हम दोनों के पास पास थे इसी से साथ ही स्कूल आते जाते थे और एक दूसरे के घर भी अक्सर आना जाना लगा रहता था. 


मैं अपने मम्मी पापा की इकलौती संतान था जबकि आरजू चार बहनों में सबसे छोटी थी. उसकी बड़ी दो बहनों की शादी हो चुकी थी. मेरे पापा की टेलीफोन एक्सचेंज में सरकारी नौकरी थी और आरजू के पापा टेलर थे. महात्मा गांधी रोड़ पर उनकी छोटी सी दुकान थी जहां वह सारा दिन बैठकर कपड़े सीते थे. मैं खुद उनके हाथों के सिले कपड़े पहनता था. पापा मेरे और उनके कपड़े आरजू के पापा के पास से ही सिलवाते थे.

पढ़ाई के मामले में आरजू अव्वल थी. मैं लाख कोशिश करने के बाद भी उसकी बराबरी नहीं कर पाता और हर बार परीक्षा में उससे कम अंक आने पर घर पर मम्मी-पापा की डांट खाता था.   


मुझे अब भी याद है जब आरजू ग्यारहवीं कक्षा में पूरे स्कूल में फर्स्ट रेंक लेकर आने पर घर पर मिठाई देने आई थी और मुझे उसकी मिठाई की जगह पर मम्मी की डांट खानी पड़ी थी क्योंकि मेरा स्थान क्लास में पहले दस में भी नहीं था.


‘कुछ सीख इस लड़की से. घर का कामकाज करने के बावजूद स्कूल में पहले नम्बर पर आई है और तू है कि बस खा-पीकर बस मोटा होता जा रहा है.’


‘मैं भी पढ़ता तो हूं ही पर ज्यादा नम्बर नहीं ला पाता तो क्या करूं?’ मुझे अच्छा नहीं लग रहा था आरजू के सामने मम्मी की यूं डांट खाना.


‘तो और पढ़ पर कम से कम पहले दस में तो आ.’ 

‘आंटी, अभी रहने दो. मैं हूं न. बारहवीं में राजू भी अच्छे नम्बरों से पास होगा.’ आरजू ने मुझे बचाते हुए कहा.


आरजू में न जाने क्या बात थी कि मेरे मम्मी-पापा उसकी कही बातों को कभी अनसुना नहीं करते. मम्मी ने तो उस दिन के बाद जैसे मेरी पढ़ाई की आधी जिम्मेदारी आरजू के सिर पर डाल दी.   


वह अक्सर आरजू को घर पर ही होमवर्क करने के बहाने से बुला लेती और मुझे घंटों तक उसके संग इच्छा न होने पर भी पढ़ने के लिए बैठना पड़ता था. वह मेरी हेड मास्टर बन स्कूल में मैं क्या क्या करता हूं सारी बात मम्मी को बता देती थी, इसी से मेरे कोई शरारत करने पर मुझे पहले उसे विश्वास में लेना पड़ता था ताकि मम्मी के कानों तक मेरी हर एक बात न पहुंचे.


स्कूल में उस दिन किसी बात को लेकर मेरे और प्रशांत के बीच में हाथापाई हो गई और नेहरा सर ने हम दोनों को ही पूरे दिन के लिए स्कूल प्रांगण में नंगे पैर खड़े होने की सजा सुना दी. नेहरा सर हम बच्चों को सजा देने के मामले में बेहद कड़क थे. जब भी वे किसी को सजा देते तो सजा के ब्याज के रूप में उस दिन का नाश्ता भी नसीब नहीं होता. मेरे साथ भी उस दिन यही हुआ. स्कूल छूटने के बाद मुझे दो बातें परेशान कर रही थी. पहली यह कि टिफिन भरा हुआ देख मम्मी काफी पूछपरख करेगी और दूसरी आरजू मम्मी को आज का सारा ब्यौरा दे देगी. बस फिर तो रात का खाना भी चैन से नसीब नहीं होगा.


‘क्यों मजा आया न? आज पहली बार नेहरा सर के हाथ में आये.’ स्कूल से वापस घर जाते हुए मुझे चुप देख आरजू ने मुझ पर हंसते हुए कहा.


‘हंस ले. मुझे परेशानी इस बात की बिल्कुल नहीं है कि मुझे आज सजा मिली. मेरी परेशानी का कारण मेरा आज का टिफिन और तू है.’ मैंने आरजू पर गुस्सा होते हुए कहा.


‘क्या बोल रहा है? टिफिन और मैं तेरी परेशानी कब से बन गए?’ आरजू मेरे सामने आकर खड़ी हो गई.


‘भरा हुआ टिफिन देखकर मम्मी हजार तरह के सवाल करेगी और फिर तू आकर उन्हें आज की सारी बात बता देगी. बस फिर लगनी तो मेरी ही है.’


‘अरे हां. ये तो मैंने सोचा ही नहीं. चल एक काम कर वो सामने गाय खड़ी है. तेरा टिफिन उसे खिला दे.’


‘क्या आइडिया दिया रे आरजू तूने. मेरे दिमाग में ये बात क्यों नहीं आई?’ मैंने बस्ते से अपना टिफिन बॉक्स निकालते हुए ख़ुशी से मलकाते हुए कहा.


‘क्योंकि अभी तेरा पेट और दिमाग दोनों खाली है.’ कहते हुए मेरा खुला हुआ टिफिन बॉक्स देखकर वह हंसने लगी.


‘तू खा गई मेरा लंच?’ मैं भौचक्का सा खड़ा कभी उसे तो कभी मेरे खाली टिफिन बॉक्स को देख रहा था.

‘और नहीं तो क्या? नेहरा सर की सजा पाने के बाद तू कहां खाने वाला था, तो मैंने सोचा मैं ही न्याय दे दूं आंटी के बनाएं पकौड़ो को.’


‘थैंक गॉड. तूने बचा लिया आरजू.’ मैंने फटाफट टिफिन बॉक्स बंद कर बस्ते में रखते हुए कहा.


‘ये ले मैं चिवड़ा लाई थी. तेरे लिए ही बचाकर रखा था.’ अपना टिफिन बॉक्स मेरी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा.

मैंने चलते हुए चिवड़ा खाना शुरू कर दिया.


कहना न होगा कि सजा वाली इस बात को छिपाने के लिए मुझे आरजू को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. उसने समय की नजाकत को परखते हुए बड़ी ही चालाकी से मुझसे बारहवीं में क्लास में पहले दस में आने का वायदा ले लिया. मैं खुद अच्छी तरह से जानता था कि ये मेरे बस से बाहर की बात है पर उस वक्त बात को सम्हालने के लिए मैंने उससे यह वायदा कर दिया.


ज्यों ज्यों बारहवीं की पहली परीक्षा पास आने लगी मम्मी की मुझ पर पहरेदारी और ज्यादा बढ़ने लगी. वे मेरे खाने-पीने, सोने-उठने का जरुरत से ज्यादा ध्यान रखने लगी. इधर आरजू भी पढ़ाई में मेरी हर संभव मदद करने लगी. मम्मी, आरजू की मदद और मेरे प्रयासों के चलते पहली परीक्षा में क्लास में मेरा दसवां नम्बर आया. सभी खुश थे मेरी तरक्की देखकर. मैं खुद आश्चर्यचकित था पहली बार क्लास में पहले दस में अपना नाम देखकर. मम्मी-पापा की ख़ुशी के साथ उनकी मुझसे अपेक्षाएं और ज्यादा बढ़ गयी. 


मम्मी को तो अब जैसे मुझ पर पूरा विश्वास ही हो गया था कि मैं बारहवीं की वार्षिक परीक्षा में अव्वल आकर ही रहूंगा. हर किसी को वह यही बात कहती फिरती. ऐसा नहीं था कि मुझे मुझ पर विश्वास नहीं था पर अपनी सफलता के लिए मैं पूरी तरह से आरजू पर निर्भर था. वह मेरे साथ बैठकर पढ़ती तो मुझे कठिन से कठिन प्रश्नों के जवाब भी आसानी से याद हो जाते थे. शीघ्र ही दूसरी परीक्षा आई और चली गई. इसमें मैं कोई तरक्की नहीं कर पाया पर जहां था उस स्थान पर बना रहा. 


इसके बाद तो घर पर मुझ पर इस तरह से ध्यान दिया जाने लगा जैसे मैं किसी युद्ध भूमि पर लड़ने जा रहा हूं! जहां मेरा हार कर लौटना किसी को भी मंजूर नहीं था. मैं भी तो उस वक्त बड़ी ही अजीब कश्मकश परिस्थिति से गुजर रहा था. अगर मम्मी-पापा की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया तो?


इसी बीच आरजू की अम्मी को टाईफाईड हो गया और उसका स्कूल आना अनियमित सा हो गया. आरजू के घर की आर्थिक स्थिति वैसे ही कुछ ज्यादा अच्छी नहीं थी और उस पर अस्पताल का यह खर्च आ जाना उसके अब्बू के लिए परेशानी का कारण बन गया. अस्तपाल का खर्च तो पापा ने एक नेक इन्सान होने के नाते खुद ही वहन कर लिया पर फिर आरजू की अम्मी नहीं बच पाई.

आरजू ही नहीं हम सबको समझ नहीं आ रहा था कि ये अचानक क्या हो गया. आरजू मेरी सबसे अच्छी दोस्त थी और अपने दोस्त के दुख को देखकर मैं खुद कई दिनों तक सदमे रहा.


वार्षिक परीक्षाओं के करीब २० दिन पहले आरजू ने फिर से स्कूल आना शुरू किया. एक दोस्त होने के नाते मैंने अपने नोट्स के साथ उसके लिए भी नोट्स बना रखे थे जिससे वह परीक्षा की तैयारी ठीक से कर सके. 


उस दिन स्कूल में राजन सर ने बारहवीं के विद्यार्थियों का गणित का एक सरप्राईज टेस्ट लिया. टेस्ट में केवल ५ ही सवाल थे पर मेरे लिए बेहद कठिन थे. मैं मात्र दो ही सवाल ठीक से हल कर पाया था. आरजू टेस्ट के रिजल्ट को लेकर बेहद आश्वस्त थी और इस टेस्ट में उसने पूरे अंक हासिल किये थे. मैं मुश्किल से पास होने लायक नम्बर ला पाया था.


स्कूल से घर आते हुए मैं बेहद उदास और चिंतित था. वह मेरी परेशानी भांप गई.


‘राजू, ये तो मात्र एक टेस्ट था. चिंता मत कर वार्षिक परीक्षा में तू अच्छे नम्बरों से ही पास होगा.’


‘आरजू, मम्मी-पापा की आशा तो अच्छे नम्बरों से कहीं ज्यादा है. मैं नहीं कर पाऊंगा. जब यह छोटा सा टेस्ट मैं बड़ी मुश्किल से पास कर पाया तो परीक्षा तो दूर की बात है.’


‘तू फालतू में ही अपनी उलझन बढा रहा है. चिन्ता मत कर आंटी से मैं इस टेस्ट का जिक्र नहीं करूंगी.’ आरजू ने मुझे आश्वासन देते हुए कहा.


‘अब उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी.’ मैंने उसे देखा और तेजी से कदम बढ़ाते हुए उससे आगे निकल गया. 


घर आकर मैंने कपड़े बदले और खाना खाकर चुपचाप अपने कमरे में चला गया. तरह तरह के गलत विचारों से मेरा मन खिन्न होने लगा. कुछ देर तक मम्मी-पापा की मुझे लेकर रखी गई आशाओं और अपनी काबिलियत के बारें में सोचता हुआ मैं यूं ही बिस्तर पर पड़ा रहा. फिर सहसा एक विचार मेरे मन में कौंधा और मैं बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. तभी मेरे कमरे के दरवाजे पर जोर जोर से दस्तक होने लगी. आरजू जोर जोर से चिल्ला रही थी. मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरे इरादे के बारे में उसे कैसे पता चल गया जो वह इस वक्त यहां चली आई. मैंने फुर्ती से कमरे की खुली खिड़की बंद कर ली और फिर स्टडी टेबल खींचकर पंखे की नीचे ले आया. मेरे कमरे के बाहर शोर बढ़ गया. तभी एक जोर के धमाके के साथ मेरे कमरे का दरवाजा टूटकर गिर गया. आरजू फुर्ती से अंदर आयी और उसने मेरे गाल पर जोर से दो चांटे रसीद दिये. उसके पीछे मम्मी, कॉलोनी के वॉचमेन और पड़ौस के दो - तीन अंकल कमरे में दाखिल हुए.


‘ये क्या करने जा रहा था? बारहवीं की परीक्षा तेरी जिन्दगी से ज्यादा बढ़कर है क्या? तूने एक बार भी अंकल और आंटी के बारे में सोचा?’ कहते हुए आरजू रो पड़ी.


मैं अपराधी की भांति चुपचाप खड़ा रह गया. मेरे हाथ में से रस्सी छूटकर गिर गई. मम्मी मुझे गले लगाकर जोर जोर से रोने लगी. उनको रोते देख मेरी आंखों से भी अश्रुधारा बहने लगी.


मम्मी मुझसे कुछ कहना चाह रही थी पर उनके मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे. 


‘देख जरा आंटी को. तेरी इस हरकत से रो रो कर क्या हाल हो गया है इनका. तू इतना स्वार्थी कैसे हो गया?’ आरजू लगातार बोले जा रही थी.


‘सॉरी. मैं... मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था.’ मैं ज्यादा बोल नहीं पाया.


‘हार होने के भय से भागने से जीत कभी भी हासिल नहीं होती और किसी भी समस्या का हल जीवन का अंत कर देने से मिल जाता तो दुनिया में कोई भी जीवित न होता.’ आरजू मुझे काफी देर तक समझाती रही.


मेरी नासमझी से मैंने मम्मी-पापा का दिल दुखाया था. वे तो काफी दिनों तक इस सदमे से निकल ही नहीं पाये थे. इन सारे उतार-चढ़ाव के चलते मैंने बारहवीं की परीक्षा दी.   


बारहवीं की परीक्षा में आरजू का बोर्ड में सातवां क्रम रहा और मैं अपनी क्लास में पांचवां क्रम हासिल कर पाया.

इसके बाद मैं अपनी आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर में चला गया और उसी साल आरजू की शादी भी हो गई. मैं फिर कभी आरजू से नहीं मिल पाया क्योंकि उसके बाद पापा का भी ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया था.

मुझे सामने खड़ा देख आरजू के चेहरे पर मुस्कान छा गई. इन छह सालों में वह तो बिल्कुल ही नहीं बदली थी पर मैं थोड़ा मोटा जरुर हो गया था पर फिर भी आरजू ने मुझे पहचानने में भूल नहीं की.


‘राजू, तू यहां ?’


‘हां और यह मेरी पत्नी. पिछले महीने ही इस शहर में आये है’


कुछ औपचारिक बातें करने के बाद मुझसे रहा नहीं गया और मैं उससे पूछ बैठा.


‘आरजू, तब तो पूछने की हिम्मत नहीं कर पाया पर तुझे उस दिन मेरे उस गलत इरादे के बारे में कैसे पता चला जो तू समय रहते दौड़ी चली आई?’


‘दोस्त हूं तेरी. तू कभी मुझे अकेला छोड़कर स्कूल से घर नहीं गया पर उस दिन तेरे हावभाव और उदासी देखकर मैं खुद बेचैन हो गई थी. घर पहुंच न जाने क्यों कुछ अनहोनी होने की आशंका से मेरा मन घबराने लगा. बस दौड़ चली आई तेरे घर की ओर.’


‘सच आरजू, एक सच्चा दोस्त ही अपने दोस्त की काबिलियत और कमियों को पहचान सकता है और उसे हर संकट से बचा सकता है. आज मैं जो कुछ भी हूं तेरी बदौलत ही हूं.’ मैंने हंसते हुए कहा और पत्नी को खरीदारी में मदद करने लगा.


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