थोड़ा सा प्यार
थोड़ा सा प्यार


‘क्या हासिल हुआ बेटे को सेना में भेजकर? उसे आम लोगों की तरह जिन्दगी जीने दी होती तो आज जिन्दा तो होता।’ सुबह से टीवी चैनल्स पर आ रही भारतीय सैनिक दल के कुछ सैनकों के शहादत की खबर देखकर और फिर अपने बेटे की शहादत की पुष्टि होने पर दुख से रो रोकर उसका बुरा हाल था।
‘सब ऐसा सोचने लगे तो देश के लिए कौन सोचेगा?’ उसके पास ही व्हील चेयर पर बैठे हुए नम हो चुकी आँखों के साथ उसने जवाब दिया।
‘ठेका ले रखा है आपने देश का? तुम्हारे देशप्रेम के नाम पर मैंने अपना इकलौता बेटा खो दिया।’ उसका जवाब सुन वह खीज उठी।
‘तुम्हे गर्व होना चाहिए कि अपना बेटा देश के नाम पर शहीद हो गया है।’ सहसा उसकी आवाज गर्व से ऊँची हो गई।
‘शहीद! अरे! बेमौत मारा गया है वह और आप जैसे लोगों ने उसे शहादत का नाम दे दिया। मैं कुछ नहीं जानती। मुझे मेरा बेटा वापस ला दो।’ उसकी आँखों से आँसू अनवरत् बहने लगे।
‘अपने लिए तो सभी जीते और मरते है। दूसरों के लिए कुछ हर कोई नहीं कर पाता। यह तब ही हो पाता है जब “मेरापन” और “मैं” “तुम्हारे लिए” में समा जाता है। कहते हुए उसने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।
उसकी बात सुनकर सहसा उसकी आँखों के आगे तीस साल पहले सैन्य युद्ध से अपंग होकर वापस लौटे उस आशास्पद युवक की प्रेमभरी नजरें घूम गई जिसके पीछे वह अपने “मेरेपन” को “तुम्हारे लिए” में बदलकर एक कशिश के साथ उसके प्यार में उसके साथ चली थी।
‘मैं भटक गई थी। भूल गई थी प्यार में अपने लिए नहीं वरन दूसरों के लिए जिया जाता है। गर्व की ही तो बात है कि मेरा बेटा देशप्रेम के लिए जी गया।’ वह उसके सीने से लिपटकर सुबकने लगी।