Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Abstract

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

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हाँ, मैं जीना चाहती हूँ! (2)

हाँ, मैं जीना चाहती हूँ! (2)

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आज सुबह मैं, सोकर उठी तो नया उदित होता सूरज, मुझे कुछ अधिक ही मनभावन अनुभव हुआ था। आज मेरी वार्षिक परीक्षा का, अंतिम पर्चा था। मेरी आज के विषय की हो चुकी तैयारी से मैं, संतुष्ट थी। पेपर के पूर्व आज और पढ़ने की मुझे, आवश्यकता नहीं लग रही थी। इससे मेरे, ध्यान में ना जाने कुछ और ही बातें चलने लगी थी। मुझे यह विस्मित कर रहा था कि परीक्षा के पूर्व, ऐसा सब मेरे दिमाग में क्यूँ चल रहा है। 

दरअसल मैं, पिछले कुछ महीनों को याद कर उसमें खो गई थी। 

मैंने, लॉकडाउन के समय में, ऑनलाइन कोर्स के माध्यम से, सेफ होने का ज्ञान अर्जित किया था। पिछले दिनों मैंने, चित्रकारी भी सीखी थी ताकि जो जीवन दृश्य मुझे, मनोहारी लगते हैं, उन्हें मै, कूची से कैनवास पर उतार सकूँ। कोविड19 के समय में मै, पूरी सावधानी से रही थी कि मैं, इसकी चपेट में आने से, स्वयं को बचा सकूँ। साथ ही पिछले महीने से मैं, कोविड19 के खतरे होते हुए भी, परीक्षा के परचे देने बाहर निकलती रही थी।

यह सब सोचते हुए मैं, विचार-मंथन में पड़ गई कि मैं, आज परीक्षा समाप्त होने के बाद, इस वर्ष अपनी अगली कक्षा की पढ़ाई के साथ- समानांतर ही, और किस बात की विद्या प्राप्त करूं। फिर मैंने तय किया कि मैं, इस वर्ष से आईएएस प्रवेश परीक्षा के लिए कोचिंग करुँगी। 

यह सब मेरा करना और आगे की योजना बनाना, इस बात का द्योतक था कि मैं, अपना जीवन अत्यंत अच्छे स्तर तक पहुँच कर, जीना चाहती थी। फिर समय हो जाने पर पेपर देने कॉलेज जाने के पूर्व मैंने, पापा एवं मम्मी को साथ बिठाया था। फिर उनकी गोद में मैं, कुछ समय के लिए लेटी थी। वे दोनों ही, मेरे ऐसे प्यार से भावुक हुए थे। उनकी आँखें स्नेहासिक्त में नम हो गईं थीं। उनके आशीष के साथ मैं, घर से निकली थी। 

घर के दरवाजे पर खड़े हुए उन्हें मैं, पलट पलट कर देखते हुए आगे बढ़ी थी। पापा-मम्मी को ही नहीं, अपने घर-द्वार को भी मैं यूँ देख रही थी कि जैसे, इस दृश्य एवं इस छवि को मैं, अपने अंतर्मन में स्थाई रूप से अंकित कर लेना चाह रही हूँ। फिर मैंने, यह सोचा था कि आज कॉलेज से लौटकर, इस दृश्य को मैं, कैनवास पर उकेरुंगी। इन सब विचारों के साथ मैं कॉलेज आई थी। परीक्षा पेपर, मेरी आशा अनुरूप बहुत अच्छा हुआ था। फिर पेपर समाप्ति के बाद, परीक्षा कक्ष से मैं, अपनी फ्रेंड के साथ अत्यंत चहकती हुई बाहर निकली थी।  हम, पैदल कॉलेज गेट के बाहर आये थे। उस समय धूप पूर्ण प्रखरता से छाई हुई थी। सूर्य, जगमगाता हुआ अधिकतम प्रकाश बिखेर रहा था। 

अभी हम, कुछ कदम ही चले थे कि आकस्मिक रूप से, रास्ते को रोकते हुए हमारे सामने, एक कार आ खड़ी हुई थी। हम कुछ समझ नहीं सके थे। तब मेरी, आशंका सही निकली थी, यह दुस्साहस उसी का था। मैंने, उसे कार से निकलते देखा था। मैं उसके मंतव्य समझ पाती उसके पूर्व ही झपटते हुए उसने, मुझे, मेरे बाजुओं से पकड़ लिया था। वह, मुझे पुनः जबरन उठाकर अपहृत करने के उद्देश्य से कार में, ले जाना चाहता था। मेरे दृष्टि से गिर गए, उस लड़के के साथ मैं, जा ही नहीं सकती थी। मैं प्रतिरोध करने लगी थी। उसकी पकड़ से छूट कर मैं, बचने के उपाय में इधर उधर भाग रही थी।

जब उसने, मुझ पर कट्टा ताना और मुझे लगा कि अभी ही मैं, मारी जाऊँगी, तब मेरे मस्तिष्क पटल पर सर्वप्रथम, मेरी मम्मी-पापा के मातम में, रोते-बिलखते हुए चेहरे उभरे थे।

पल भर में ही, एक साथ कई विचार मेरे मस्तिष्क में आने-जाने लगे थे।मुझे याद आया कि मेरे बचपन से लेकर अभी तक, किस प्रकार मेरी प्रसन्नता सुनिश्चित करने के लिए, पापा-मम्मी, अपनी खुशियों एवं सुविधाओं को, मेरे लालन पालन में त्याग दिया करते थे। मुझे स्मरण आया कि कैसे दिन भर के कार्यों में, पापा व्यस्त रहते थे ताकि उन्हें, आय कुछ अधिक हो जाए। जिससे मेरे पसंद किये जाने वाले खिलौने, वस्त्र, आभूषण, मेरे पढ़ने के लिए अच्छी अच्छी पुस्तकें और मेरी चाही अन्य वस्तुयें भी वे, मेरे लिए ला सकें। मुझे यह भी याद आया कि मेरी एक किलकारी एवं मेरे मुख पर दिखती प्यारी सी हँसी देख वे कैसे, अपने दिन भर की थकान एवं चिंताओं से मुक्त अनुभव करते थे। वे, मेरी थोड़ी सी ख़ुशी में ही अत्यंत खुश हो जाते थे। 

मुझे स्मरण हो आया कि मेरी मम्मी कैसे, मेरे बुखार और अन्य तकलीफों के समय में, कैसे रात भर जागा करती रहीं थीं। कैसे वे कोई भोजन सामग्री कम देख स्वयं, कम खातीं और वह पकवान जो मुझे स्वाद लगता, मुझे दिया करतीं थीं।

कैसे नई नई रेसिपी पढ़ पढ़ कर वे, मेरे लिए हर वह सामग्री बनाया करती जिन्हें मैं, अपने फ्रेंड्स के टिफ़िन में देख ललचाया करती थी। कैसे मेरी हर गलती के लिए, उनके हृदय में क्षमा होती। कैसे वे, पास-पड़ोस के बच्चों से, मेरे झगड़े में, मेरी गलती अनदेखा कर उन पर ही झगड़े का दोष मढ़ दिया करतीं। मुझे मम्मी एवं पापा का युवा दिखता मुख, उनका सुगठित, बलिष्ठ एवं अत्यंत ही आकर्षक सी उनकी देहयष्टि स्मरण आये थे जो, मेरे 4-5 वर्ष की मेरी उम्र में, उनके हुआ करते थे। 

फिर स्मरण आई, मुझे बड़ा करने के अपने अपने जीवन संग्राम के बीच, आज निस्तेज हो गई उनके मुख एवं शरीरों की अधेड़ावस्था वाली दशा। 

मुझे ये सब स्मरण करते हुए इस प्रश्न से अत्यंत पीड़ा हुई कि क्या शेष रहने वाला था, मेरी आज मौत हो जाने पर, इनके पास? उनके लिए मुझे दया एवं गहन करुणा की अनुभूति हुई कि अब उनके, मेरे बड़े किये जाने के लिए अपने सुख एवं सुविधा के किये, समस्त बलिदान व्यर्थ हो रहे थे। 

व्यर्थ जा रहा था, उनका अपने खून से, मेरी जीवन बेल को सिंचित किया जाना भी। 

मुझे विचार आया कि अपवाद ही कोई ऐसे माँ-पिता होते होंगे जिनका, अपनी युवा संतान की मौत देखना, उनके आगे के जीवन में उन्हें, मृतप्राय सा ना बना देता होगा। यह अनुभूति मेरे लिए अत्यंत विषाद पूर्ण थी कि पिछले बीस वर्ष के उनके जीवन सुख, मेरे भविष्य एवं जीवन बुनियाद रखने में, उनके त्याग के भेंट चढ़ गए थे। अब मेरी, इस आसन्न मौत के हो जाने के बाद से, उनके जीवन के बाकी रहे, बीस तीस वर्ष मेरी हो रही इस दुर्गति की पीड़ा, सहते सहते चले जाने वाले थे। 

यह यक्ष प्रश्न मुझे विचलित कर रहा था कि ईश्वर, ऐसी वेदना किसी माता-पिता को क्यों सहन करने को लाचार करता है? फिर मैंने एक आवाज सुनी, साथ ही एक गर्म लावा सा, मेरे माथे को बींधता अनुभव हुआ। उसने, मुझ पर गोली दाग दी थी। क्षणांश में ही मुझे तीव्र वेदना अनुभव होने लगी। मैं, धरती पर लहूलुहान गिर गई थी। इस प्राण घातक वार से तड़फती मेरी देह एवं मेरे मर्माहत मन में, मेरी प्रथम प्रतिक्रिया उसके प्रति, तीव्र घृणा की हुई थी। मुझे विचार आया कि मैं, प्रतिभाशाली एवं रूपवान लड़की के लिए इस संसार में, एक ऐसा लड़का कहीं निश्चित रहा होगा जो मुझे, अपने सिर-आँखों पर बिठाये रखता और अपने भाग्य पर इतराया फिरता। वहीं इसी संसार में, एक यह नराधम है, जिसने मुझे रक्त रंजित कर मेरे कोमल तन-मन को यूँ आहत, सड़क पर किसी आवारा जानवर की तरह बिछा दिया था। मुझे मारने के तुरंत बाद मैंने, उसे भागकर कार में बैठते देखा था। 

तब इस कायर पुरुष के ऐसे भागने से, उसके लिए, मेरे दिमाग में, व्यंग्य पूर्ण सराहना आई कि - "वाह वाह! अपनी माई के तू, बहादुर लाल! एक निहत्थी, निर्दोष लड़की को अकाल मार कर तू तो, तीस मार खां हो गया है।" 

ऐसे मुझे, मार डालते समय, उसे, उसकी अपनी, जीवन ललक का कोई विचार नहीं आया था। मुझ कोमलांगी एक लड़की के, सामने वह शेर हो गया था। मगर जब मुझे मारने के अपराध पर, मिलने वाले अपने लिए प्राणदंड की आशंका दिखाई दी तो वह, डर कर किसी चूहे जैसे भागा जा रहा था। हाँ, मुझे यह पता है कि तू अपने मजहब की, सच्ची इबादत का भ्रम पालने वाला एक निकृष्टतम झूठा प्राणी है। आज, तुझे लड़का या पुरुष कहना, मुझे, मेरे द्वारा, मनुष्य प्रजाति का घोर अपमान लगता है। तू किसी जानवर जैसा, दिमाग विहीन हिंसक प्राणी है। अरे ओ! दिमाग-शून्य दुष्ट प्राणी, तू सोच ही नहीं सकता कि जैसा तू समझता है यह, तेरे मजहब की तेरे द्वारा इबादत है, वह वास्तव में, तेरे द्वारा, तेरे अपने मजहब का, घोर तिरस्कार है। मुझे मारने के दुस्साहस का तेरे द्वारा, माना जा रहा कारनामा वास्तव में तेरे मजहब की दृष्टि में एक जघन्य एवं कुत्सित करतूत है। जिसकी जानकारी होने पर, दुनिया तुझ पर एवं अनावश्यक रूप से तेरे मजहब पर थू थू करेगी। 

ऐसे में जिस मजहब का तू उपासक कहलाता है, वह मजहब अपने ऐसे उपासक होने की अनुभूति से खुद को शर्मसार अनुभव करेगा। उस मजहब के अधिकांश धर्मावलंबी, दुनिया के सामने अपना मुहँ छिपाने को विवश होंगे। अपने मजहब की फेस सेविंग के लिए उन्हें, ना ना प्रकार के बहाने और तर्क सोचने होंगे। ताकि तेरे (और उनके) मजहब के भले होने का, अन्य कौमों में, विश्वास बनाये रखा जा सके। अब मेरी, अंतिम श्वास लेने का क्षण आ गया था। 

उस क्षण में मेरे विचारों की दिशा में करवट ली थी। मुझे अच्छा लग रहा था कि वह भागकर मेरी हत्या उसके द्वारा की गई है, इस सच को छिपाना चाह रहा था। मैं सोच रही थी कि उसकी यह कोशिश सफल हो जानी चाहिए। मैं जानती थी कि भगवान राम के द्वारा रावण को मारे जाने से, रावण का नाम राम जी के साथ, हमेशा के लिए जुड़ गया है। मैं, अब नहीं चाह रही थी कि इसे मेरी हत्या का दोषी सिध्द किया जाए। अन्यथा उसका नाम ऐसे ही, मेरे साथ (राम के रावण जैसा) अप्रिय रूप से जुड़ जाएगा। फिर मैंने यह सोचा कि इसे प्राणदंड भी नहीं दिया जाना चाहिए। 

मैंने साँप में, एक ऐसी प्रजाति का होना सुना था। जिसके एक साँप को मारने से हजार साँप पैदा हो जाते हैं। मुझे लगा कि यह उसी तरह का प्राणी हैजिसके प्रजाति के, एक को मारो तो हजार पैदा हो जाते हैं। यह तो वैसे उस साँप प्रजाति से तुलना किये जाने योग्य भी मुझे, नहीं लग रहा है। उस प्रजाति के सर्प तो विष विहीन होते हैं। जबकि यह तो अत्यंत विषैला निकृष्ट प्राणी है, जो मानवता को डस रहा है और इस जैसों के कारण दुनिया से, मानवता अस्तित्व खो देने पर विवश हो रही है। इसे मारा नहीं जाना चाहिए बल्कि स्वयं ही इसे, अपनी मौत मरने देने के लिए छोड़ देना चाहिए ताकि, इस एक को फाँसी दिए जाने के बदले में, हजार ऐसे दुष्ट पैदा ना हो सकें। 

अंतिम विचार इसे लेकर पुनः धिक्कार का आया कि यह उस कौम का सदस्य है जिसके अनुयायी दुनिया में 186 करोड़ हैं। मुझे इसकी कौम पर दया आई। इस जैसे कुछ, उस के कौम के सदस्य और हैं जिनके, अमानवीय कृत्य उस कौम के अन्य 185 करोड़ से अधिक लोगों को सिर झुकाने को मजबूर करते हैं। ये 185 करोड़ से अधिक अनुयायी, बुरे काम खुद नहीं किये जाने के बावजूद, बाकी विश्व की दृष्टि में संदिग्ध हो जाते हैं एवं उनकी नफरत के पात्र हो जाते हैं। फिर मेरा ब्रेन डेड हो गया था। अर्थात मैं, मर चुकी थी। अगले कुछ क्षणों में मेरे सड़क पर पड़े मृत पार्थिव शरीर से, मेरी आत्मा अलग हो रही थी। इन क्षणों में, मेरी आत्मा इस सहित सभी प्राणी मात्र के लिए, क्षमा धारण कर रही थी।

अंततः इस क्षमा भाव के धारण करने के साथ, मेरी आत्मा, परमात्मा के रूप में बदल रही थी। तब, मेरी कहानी के अंतिम क्षणांश में, यह परमात्मा, इस संसार से, दूर मोक्ष में जा विराजी थी।    



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