Shakuntla Agarwal

Abstract

4.9  

Shakuntla Agarwal

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"गुनहगार कौन?"

"गुनहगार कौन?"

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घर - आँगन रोशनी में नहाया हुआ था। शहनाई बज रहीं थी। घर में पहली शादी जो होने जा रहीं थी। घर के प्रत्येक व्यक्ति के मन में खुशियाँ हिलौरे ले रही थी। मानों ख़ुशी से चहक रहा हो। मन - मयूर नाच रहा था। नविता के दिल की धड़कनें बढ़ी हुई थी। क्योंकि आज उसे अपने मन का मीत मिलने वाला था। सपनों के जिस राजकुमार का लड़कियाँ इंतज़ार करती हैं, वह सपना आज पूर्ण होने जा रहा था। वह अपने महिला - सँगीत के लिये "ये गालियाँ ये चौबारा, यहाँ आना न दोबारा" के गानें पर थिरकतीं नज़र आ रही थी। बारात समय पर थी और जयमाला के बाद फेरे और विदाई भी समय से ही हो गयी। नविता का ससुराल में पहला दिन था। उसका दिल जोर - जोर से धक - धक कर रहा था।

ऐसा लगता था कि बाहर ही आ जायेगा क्या। उसने अपने कुतूहल और दिल को संभाला। अब वह रात आ चुकी थी, जिसका हर नए - नवेले जोड़े को इंतज़ार रहता है। और नविता यह सोचकर फूलें नहीं समा रही थी कि जिसे सपने में सँजोया था वो हष्ट - पुष्ट, सजीला नौजवान राजकुमार आज मेरे आलिंगन में होंगे। पहली रात दोनों की मजे में गुजरी। आठ - दस दिन नविता के कैसे गुजरे, उसे न दिन का होश था न रात का, बस हमसफ़र की बाहों के झूलें में झूल रही थी। हमसफ़र की बाहें और मनाली का सफर उसे भुलायें नहीं भूल रहा था। 

परन्तु एक दिन रात को उसने देखा की राजकुमार रात के साढ़े दस बजे कहीं जा रहें थे और मम्मी जी दरवाजा बंद कर रही थी।

नविता - मम्मी जी ! ये मुझे बिना बतायें कहाँ जा रहें हैं ? मुझे कुछ कहा भी नहीं। 

मम्मी जी - किसी काम से गया है, आ जायेगा सुबह तक। 

नविता अपने कमरें में जाकर सो गयी। वह जब राजकुमार आया तो उसने पूछना चाहा, परन्तु उसने टाल - मटोल कर दी। वह भी अपने घर के कामों में व्यस्थ हो गयी और फिर नौकरी पर चली गयी। परन्तु यह क्या ! ये तो रोज़ का सा ही सिलसिला बन गया था। नविता अपने कमरें में अकेली सोती रहती। पूछने पर उसे कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं देता था। फिर उसने एक दिन राजकुमार से पूछा - कि तुम ज्यादातर रात को कहाँ चले जाते हो ? पहले तो उसने टाल - मटोल की परन्तु फिर कहा - मैं तुमसे शादी नहीं करना चाहता था।

मेरी ज़िन्दगी में कोई और है, मैं उसी के पास जाता हूँ। नविता तो जैसे आसमान से गिरी। उसकी हालत तो आसमान से गिरी और खजूर में अटकी जैसी हो गयी थी। अब नविता से यह रिश्ता न निगलते बन रहा था, न उगलते। क्योंकि वह राजकुमार के बच्चें की माँ जो बनने वाली थी। वह किस से कहे और क्या कहे, उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। 

उसने राजकुमार से कहा - तुम्हें उसी से शादी करनी चाहिये थी। तुमने मेरी ज़िन्दगी बर्बाद क्यों की ? दो नावों पर सवार होकर तो ज़िन्दगियाँ बर्बाद ही होती हैं। 

अब नविता के लिये घर में रहना मुश्किल हो रहा था क्योंकि उसे राजकुमार किसी की झूठन नज़र आने लगा था। परन्तु क्या करें, इधर पड़े तो कुआँ और उधर पड़े तो खाई। वह गर्भवती हो चुकी थी और गर्भपात करवाना नहीं चाहती थी। राजकुमार से अलग होने का कलेजा भी उसमें नहीं था। वह यह सोचने पर मजबूर थी कि राजकुमार की प्रेमिका और उसके माँ - बाप किस मिट्टी के बनें हैं। जिनको पता है कि राजकुमार की शादी हो चुकी है, फिर भी अपने घर आने की इजाज़त दे रहें हैं। बल्कि वह लड़की वहाँ भी जाकर राजकुमार के साथ रहती है, जहाँ उसकी नौकरी होती है।

माँ - बाप धृतराष्ट्र की तरह प्यार में अँधे होकर अपनी बेटी की ज़िन्दगी तो तबाह करते ही हैं, दूसरों के घरों को भी उजाड़ते हैं। घर - वालों के मिन्नतें करने के बाद भी नविता ने तलाक नहीं दिया और राजकुमार को अपनी ज़िन्दगी में वही मान - सम्मान दिया जो एक पत्नी अपने पति को देती है। परन्तु मैं यह सोचने पर मजबूर कि लड़के की जगह अगर किसी लड़की ने ऐसा किया होता तो क्या वह उसे अपना लेता ? मेरे जहन में मुकेश के एक गानें की चंद लाइनें कौंध गयी - "मुझें नहीं पूछनी तुमसे बीती बातें, कैसे भी गुज़ारीं हों तुमने अपनी रातें"। क्या कोई पति यह बर्दाश्त कर पायेगा ? "शकुन" मैं उन सब लड़के और लड़कियों को गुनहगार मानती हूँ, जो चाहे विदेश में रहें या भारत में, जो कि अपने रिश्तों के लिये वफ़ादार नहीं।       


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