"गाँव का बदलता परिवेश"
"गाँव का बदलता परिवेश"


गोपाल ने जैसे ही हाइवे से गांव की तरफ गाड़ी का रुख किया - कृप्या यात्रीगण अपनी कुर्सी की पेटी बांध लें, कहीं भी गड्ढ़ा हो सकता है, पक्की सड़क का तो नाम ही नहीं होगा। कच्ची सड़क होगी वो भी अबड़-खाबड़, धक्का लगाने के लिये यात्रीगण तैयार रहें, कहते हुये गोपाल हंसने लगा। उसके साथ - साथ उसकी पत्नी और बच्चे भी हंसने लगे।
चिंटु - क्या पापा यार ? आप ऐसे गांवों सें हैं, आपने फिर भी इतनी तरक्क़ी की और इतने बड़े डाक्टर बनने के साथ - साथ, इतने बड़े शहर में अपना आशियाना भी बना लिया। क्या बात है पापा ? आप धन्य हैं।
पर ये क्या - सड़क पक्की नजर आ रही थी, बीच मैं डिवाईडर भी बना हुआ था। सड़क के दोनों तरफ सरसों के खेत लहलाह रहे थे। पीली-पीली सरसों ऐसे लग रही थी जैसे धरती ने पीले रंग की चुनरिया ओढ़ ली हो।
अकुंश - पापा प्लीज़! गाड़ी रोको ना। ऐसा सीन तो हमने फिल्मों में ही देखा है। प्लीज पापा, कुछ फोटो शूट हो जाये।
सभी परिवार जन गाड़ी से उतरे और हो गये शुरू फोटो शैशन करने, सभी मस्ती करते हुय़े आगे बढ़े तो क्या देखते हैं कि रोड के दोनों तरफ कोचिंग हब्स और स्कूल बने हुये हैं। गोपाल हक्का - बक्का रह गया, वहाँ एक कालेज के लिये 20 किलो मीटर दूर जाना पड़ता था, वहाँ बाढ़ आई हुई थी औैर तो और हर घर में शौचालय नजर आ रहा था। पक्के मकानों ने कोठियों का रूप ले लिया था। खेतों ने फार्म-हाऊस का रुप ले लिया था, झोपड़ी अब पक्के कमरे में बदल चुकी थी। ट्यूब वैल के साथ- साथ स्विमिंग पूल भी नजर आ रहा था। अब धोती- कुर्ते ने पैंट-जींस और शर्ट का स्थान ले लिया था। घेरों से गायें-भैंसों की रम्भाने की आवाजें आती थी, वहाँ दूध की डेयरियां बन गई थी। चाकलेट बोन चाईना और ट्रैक्टर की ट्रोलियों के कल - कारखाने नजर आ रहे थे, इतने में केतन बोल पड़ा - पापा तो कह रहे थे की रोड़ के बीचों- बीच नाला नजर आयेगा। लोग रोड़ के दोनों तरफ खुले में शौच करते नजर आ सकते हैं, पर यहां का नजारा देख कर तो आनन्द आ रहा है, यहाँ की आबो-हवा शुकु
न देने वाली है वहाँ दिल्ली में तो लगता है दम ही निकल जायेगा, परन्तु यहाँ जन्नत का सा नजारा नजर आ रहा है। खुले-खुले खेत, टयूूवैल का पानी लग रहा है, जैसे जन्नत में आ गये। अब गर्वमैन्ट की तरफ से हास्पिटल की सुविधा भी दी गयी हैं और प्राईवेट हॉस्पिटलों की तो जैसे कतार ही लग गई है।
क्या बात है ?
गोपाल ने जैसे ही घर के सामने गाड़ी रोकी, पिता जी ने आकर दरवाजा खोला कार पोर्च में गाड़ी लगाने के लिये कहा। गोपाल दंग था, आलिशान कोठी को देखकर, मकान की जगह आलिशान कोठी ने ले ली थी मां आंगन के बीच कुर्सी पर बैठी थी, पीढ़े की जगह कुर्सी ने ले ली थी। बहु, बच्चों और गोपाल ने आगे बढ़कर माँ के चरण स्पर्श किये, इतने में पिताजी अन्दर आ गये, उनके चरण छूने के लिये जैसे ही गोपाल नीचे झुका, पिता जी ने गोपाल को बांह से पकड़ कर ऊपर उठाया और गले से लगा लिया।
अरे! बेटा तू इतना बड़ा डाक्टर बन गया, अब तेरा स्थान चरणों में नहीं दिल में है , मेरी छाती से लग जा, कलेजे में ठण्ड पड़ जाती है, रुह को अलग ही सुकून मिलता है।
गोपाल - पिता जी गांव को देखकर मैं तो हक्का -बक्का ही रह गया, अब तो गांव का परिवेश ही बदल गया।
पिताजी - बेटा तुम आये भी तो बहुत सालों के बाद हो, तुमने सोचा होगा कौन जायेगा, उस कीचड़ में रहने, तुम्हें क्या पता जो गांव की आबो - हवा में ताकत है तुम्हारी दिल्ली में वो कहां ? वहां तो सांस लेना भी दूभर है। तुमने कोरोना में तो देखा होगा, तुम तो खुद डाक्टर हो, तुम्हारे शहरों में तो एक बैड तक मुहैया नहीं हो रहा था, लोग पैसे लिये मारे-मारे फिर रहे थे, कितने लोग बलि चढ़ गये, परिवार के परिवार उजड़ गये, गांव में कोरोना का नामो निशान कहीं नजर नही आया। इसी से पता चलता है कि यहां के लोगों की अम्नुयुटी अच्छी हैं और यहाँ प्रकृति की तरफ से भी अमृत बरस रहा है। रही बात यहाँ की गन्दगी की वो तो अब दिन लद गये, अब हर गांव का ही परिवेश ही बदल गया है, अब गांव शहर को भी मात दे रहे हैं।