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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Inspirational

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Inspirational

गर्भवती फिरदौस …

गर्भवती फिरदौस …

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फिरदौस के दिन पति हरिश्चंद्र जी से मिलते सम्मान एवं प्यार में, हँसी ख़ुशी बीत रहे थे। उनकी बेटी भी, फिरदौस को मम्मा-मम्मा कहते पीछे पीछे घूमा करती थी। अब बेटी, हरिश्चंद्र जी से ज्यादा, फिरदौस पर निर्भर हो गई थी। 

फिरदौस का, बेटी से बिलकुल माँ जैसा, मेल भाव (मेलजोल) देख, हरिश्चंद्र प्रसन्न होते। अवसरों पर वे, फिरदौस की इस बात पर भी, प्रशंसा करने में नहीं चूकते, कहते - 

फिरदौस, आज देखने से मुझे, लगता ही नहीं कि बेटी को, आपने नहीं किसी और ने जन्मा है। 

फिरदौस हँस कर कहती - आप, इस बात को आप भूल जाइये। जब मैंने, आपको पति स्वीकार किया उसी समय से, बेटी भी किसी और की नहीं मेरी हो गई है। 

हरिश्चंद्र-फिरदौस के विवाह को, जब लगभग एक वर्ष हो गया तब, एक रात्रि अंतरंग पलों में हरिश्चंद्र जी ने, फिरदौस से कहा - 

मेरी प्राण प्रिया, अब समय आ गया है कि हम अपने परिवार को पूरा करने की प्लानिंग करें। 

फिरदौस ने कहा - परिवार, अपना तो यूँ ही पूरा है। 

तब हरिश्चंद्र ने कहा - 

हाँ, मेरी पूर्व पत्नी जीवित होतीं तो मैं, यही मानता। मगर आज जब आप, मेरी प्राणप्रिया हैं तब, अपना परिवार एक और बच्चे के आने से पूर्ण होगा। 

इस पर फिरदौस ने कहा - 

आप हर बात इतनी सुलझी कहते हैं। फिर इसमें, इतना क्यों उलझते हैं कि बेटी, मेरी, जन्मी नहीं है।

हरिश्चंद्र ने कहा - मैं, नारी तो नहीं हूँ। नारी को मैंने, पढ़ने-देखने से जाना समझा है। ऐसे मैं, जानता हूँ कि नारी में ईश्वर प्रदत्त विशेष क्षमता होती है। जिसे, नारी में मातृत्व की योग्यता होना कहते हैं। 

कोई नारी जब, अपने गर्भ में शिशु का होना अनुभव करती है, शिशु को जन्मती है, तब उससे मिली अनुभूति, उसे विशेष आनंदकारी होती है। पूरा जीवन, अपने बच्चे को देख (माँ बन गई) नारी, उसमें अपना ही नया रूप देखती है। इस आधार पर मैं मानता हूँ कि आपके द्वारा, एक बच्चे को जन्म दिए जाने पर अपना परिवार पूरा होगा। 

इसे सुन फिरदौस ने मुहँ से कुछ कहने के स्थान पर, हरिश्चंद्र के सीने में अपना चेहरा गड़ा दिया था। फिरदौस की सहमति के, इस प्रेममय अंदाज ने हरिश्चंद्र जी का मन मोह लिया था। 

इस बात को बीते छह माह और हुए थे। फिरदौस अब, पाँच माह की गर्भवती थी। उसने कोर्ट जाना बंद कर दिया था। 

आज अभी, हरिश्चंद्र कोर्ट एवं बेटी स्कूल गई हुई थी। कुक भी जा चुकी थी। अकेली सोफे पर बैठ फिरदौस विचार में डूबी, अपने बढ़ गए पेट पर हाथ रख अपने गर्भस्थ शिशु को अनुभव करते हुए सोच रही थी -

मेरा गर्भाशय जो पहले था, वही आज है। यदि पिछले शौहर ने मुझे, जलील न किया होता और मुझे डिवोर्स के लिए विवश नहीं किया होता तो मेरे गर्भ में पलने वाला शिशु, उसका अंश होता। 

तब मेरे द्वारा जन्म देने के साथ ही नवजात शिशु, उसके धर्म का मानने वाला होता, उसके खानपान की आदत ग्रहण करता। जबकि अब ये बातें भिन्न होंगी। 

अगले विचार में फिरदौस को, सुनसान में पिछले शौहर के द्वारा, उसे दिए गए तीन तलाक की विषादपूर्ण एवं भयभीत कर देने वाली अपनी स्थिति का स्मरण आ गया। इससे फिरदौस सोचने लगी -

अगर पूर्व शौहर से मेरा कोई शिशु जन्म लेता ऐसे में, यदि वह बेटा होता तो वह ऐसे ही (पूर्व शौहर जैसे) किसी की बेटी को तीन तलाक से अपमानित कर सकता था। 

और 

यदि बेटी होती तो, उस के सिर पर अपने निकाह के बाद, तीन तलाक की तलवार ताउम्र लटकी होती। 

ऐसा सोचने के उपरान्त फिरदौस ने, इस बात के लिए ईश्वर का धन्यवाद किया कि ईश्वर ने बदमिज़ाज शौहर से, मेरे तलाक की परिस्थिति उत्पन्न की थी। जिस के कारण तात्कालिक रूप से तो तब, मेरे प्राण पर बन गई थी। मगर ऐसा होने से, आज जो सब मुझे मिल गया वह मेरा आनंद से भरपूर जीवन सुनिश्चित कर रहा है। 

बेटी के स्कूल से लौट के आने पर, फिरदौस की विचार तंद्रा भंग हुई थी। तब वह बेटी के साथ व्यस्त हो गई थी। 

एक रात हरिश्चंद्र जी ने अपने आलिंगन में उसे हल्के से लेते हुए, फिरदौस की पलकों पर चुम्मी ली थी। फिर पूछा - 

फिरदौस, अपने विवाह को एक साल से अधिक हो गया है। तब से आप कभी अपने अब्बा-अम्मी के घर नहीं गईं हैं। क्या, आप का, वहां जाने का मन नहीं करता है?

फिरदौस, पति के प्यार भरे आलिंगन का सुख अनुभव करने में व्यस्त थी। जिसमें वह अभी कोई विघ्न नहीं चाहती थी। फिरदौस ने इसे अनसुना किया था। 

गालों पर लाज की लालिमा एवं पलकें झुका, फिरदौस का चेहरा, हरिश्चंद्र जी को किसी अप्सरा से कम नहीं लग रहा था। 

फिरदौस गर्भावस्था के कारण सहज रूप से कुछ मोटी हो गई थी। जिससे उसका मुखड़ा, पहले से अधिक खिला एवं आकर्षक हो गया था। 

हरिश्चंद्र के मन में उस पल एक द्वन्द उभर आया कि फिरदौस का तन ज्यादा सुंदर है या मन? 

हरिश्चंद्र जी तो जज थे। सभी पक्ष पर विचार, उनका स्वभाव बन चुका था। अपने इस द्वंद में उन्होंने, मन के पक्ष में निर्णय दिया। उनका न्याय कहता था कि तन का आकर्षण कुछ वर्षों की बात है, जबकि मन की सुंदरता की आवश्यकता आजीवन रहती है। 

कुछ मिनट यूँ ही बीते तब, फिरदौस से, हरिश्चंद्र जी ने प्रश्न दोहराया था। इस बार, उनींदे स्वर में फिरदौस ने कहा - 

मेरा मन, अब आपसे दूर जाने का नहीं होता है। यह भी तो है ना कि अब्बा-अम्मी, महीने दो महीने में यहां ही तो आ जाया करते हैं। 

तब हरिश्चंद्र जी ने, फिरदौस की पीठ पर, अपने हाथों का दबाव हल्का बढ़ाते हुए कहा - 

मेरी प्रियतमा जी, ना चाहते हुए भी कुछ दिनों की ऐसी दूरी, समाज परम्परा के लिए सहन की जाती है। 

फिर तीसरे दिन फिरदौस, बेटी को लेकर अपने अब्बा-अम्मी के घर पहुँच गई थी। वहां पहुंचते ही सबसे पहले अम्मी से, फिरदौस ने कहा - 

अम्मी, तीन चार या जितने दिन मैं, यहाँ रहूंगी। तब तक कृपया, घर में मांस न पकवाया कीजिये। 

अब्बा सुन रहे थे, वे बोले - बेटी फिरदा, आप, कितने जायके ले लेकर खाया करती थीं। हरिश्चंद्र साहब ने सब छुड़वा दिया, आपसे?

फिरदौस ने उत्तर दिया - अब्बू, उन्होंने नहीं छुड़वाया है। पहले मैं भी सोचती थी कि मैं, यहाँ आकर अपने खाने के शौक पूरे किया करूंगी। मगर अब उसकी इच्छा नहीं रही। 

अम्मी ने व्यग्र होकर पूछा - आखिर क्यों, फिरदा?

फिरदौस ने कहा - दो बात हैं। पहली, मेरे साथ बेटी है। जिसे मैं, मांस (पकता) दिखाना नहीं चाहती। 

अब्बू ने पूछा - और दूसरी?

फिरदौस ने कहा - मेरे गर्भ में पल रहा बच्चा, मेरे शाकाहारी पति का है। मैं नहीं चाहती की मेरे गर्भ में उसका पोषण, मांसाहार से मेरे शरीर को मिले तत्व से हो। 

अब्बू-अम्मी आश्चर्य में थे। अम्मी ने कहा - 

कितनी गहराई से सोचने लगी हो, आप फिरदा! 

फिरदौस ने कहा - अम्मी, सब अच्छे पति की संगत का असर है। उसके (पूर्व शौहर) साथ रहती तो जीवन की यह गहराई, कभी अनुभव नहीं कर पाती


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