गजरे वाली शाम
गजरे वाली शाम
कमबख्त , टिक-टिक करती घड़ी की सूइयों ने कब मुझे उनकी नजरों में चंद्रमुखी से ज्वालामुखी बना दिया, पता ही नहीं चला !खाना-पीना, उठाना-बैठना , हर जगह साथ जाना , एक-दूसरे पर मर-मिटना …ये सब कुछ सपना-सा लगने लगा।
अब, कुछ पहले जैसा नहीं रहा ! बात-बात पर इनसे तकरार होना, जैसे हमारी नियति बन गई। उफ्फ्फ… वो शादी की रात ! जैसे ही इनका स्पर्श हुआ, मेरा तन-मन पुलकित हो उठा। ऐसा लगा, मानो पूरी कायनात आँचल में सिमट आयी हो। और वाह ! उसी दिन से, मैं अपने को दुनिया की सबसे भाग्यशाली पत्नी समझने लगी। ऐसा लगा मैं धरती से सीधे स्वर्ग पहुँच गयी । फिर क्या था, चाँद सितारे मेरे दोस्त हो गये। हर रात मुझे दीपावली लगता और हर दिन होली। मैं पति संग बेहद खुश रहने लगी।
परन्तु, मुझे क्या पता ,सास-ससुर , ननद, देवर और बच्चों की जिम्मेदारी निभाते-निभाते, हमारे सारे अरमान धीरे-धीरे गृहस्थी के चूल्हे में झुलस जायेंगे ! कोल्हू की बैल की तरह हम इस तरह से पिसते गये कि, हमारा दाम्पत्य ही हमसे रूठ गया। अब सीधे मुँह कभी बात नहीं होती! हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहता! सुबह से शाम चूल्हे चौकी में बस लगे रहो!
इन्हें याद है भी या नहीं ? आज, पैंतीसवीं एनिवर्सरी है…सुबह से शाम हो गयी, इन्होंने प्यार से मुझसे बात भी नहीं किया ! सामने पड़ते ही बहस शुरू हो गयी । बात कुछ नहीं रहती …बात बढ़ जाती ! मैं तंग आ जाती, लेकिन आजकल के लोगों की तरह नहीं जो मन न मिला तो तुरंत डिवोर्स हो गया !
हमारे संस्कारों में इस तरह की घुट्टी पिलाई गयी है कि, जिसका हाथ पकड़ा.. जनम भर साथ निभाना है। मैं.. पत्नी जो ठहरी , उनसे बात किये बिना मुझे चैन कहाँ ! कितनी भी कठोर बनना चाहती हूँ…उनको देखते ही पसीज जाती हूँ ! पर, वो कठोर हृदय लिये रहते, ऐसा लगता कभी इनके हृदय में मेरे लिए प्यार था ही नहीं! समय के साथ रिश्ते की मिठास फीकी पड़ जाती है । मैं अकेले बहुत रोया करती! पता नहीं किसकी नजर लग गई!
क्यूँ… मेरी बात अब उन्हें नहीं सुहाती ? क्या कमी हो गई…यही न…पहले जैसी मैं षोडशी नहीं रही ! देह-आकर्षण ही सब कुछ नहीं होता ! यही सोच-सोचकर मैं हमेशा परेशान रहने ….
“रीना….ओ…रीना…” पति की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई। मैं, चारपाई से उठकर जल्दी से उनके पास पहुँच गई। आखिर हुआ क्या?!
“पार्क जा रहा हूँ…दरवाजा बंद कर लो। " गंभीरता से इन्होंने बस इतना ही कहा।
“मैं…चलूँ ..? अनायास दो शब्द , मेरे मुँह से फिसल गये। ऐसा लगा मुझे नहीं कहना चाहिए था।”
कुछ देर तक इनकी खामोश नजरें मुझे घूरती रही …और मैं, स्तब्ध, पैरों के नाखूनों से जमीन को खुरचती रही।
“चलो …।”
सुनते ही.. मन में मचा बवंडर थम-सा गया, इनके साथ मैं भी चल पड़ी। सामने वही.. गजरे की पुरानी दुकान , नजरें ठिठक गई और इनकी नजरें मुझ पर टिक गई। एक जमाना था, यहीं से एक गजरा .. नित्य, कचहरी से लौटते वक्त ये मेरे लिए लाया करते थे और हमारी हर रात, गजरे वाली रात होती थी। कब, कैसे हम सोते खुद को पता नहीं रहता। सबेरे सूरज निकलने के बाद चहक कर उठती, बहुत देर हो गई मुझे। मैं लजाते हुए अपने शयनकक्ष से बाहर निकलती।
अरे…ये..? कहाँ …? मैंने पलटकर देखा, धक्क से रह गई। उसी गजरे वाली दुकान के पास, हाथ बढ़ाये खड़े थे। गजरे के पोलोथिन को पॉकेट में रखते ही इनकी चलने की दिशा बदल गई। मैं हड़बड़ाकर उनके पास पहुंची और साथ चलने लगी। दोनों वापस घर आ पहुँचे। मेरे मन में अनेक सवाल उठ रहे थे। निगाहें इन पर टिकी थी।
इन्होंने झट दरवाजा बंद किया और नम आँखों से गजरा लिए मेरे सामने खड़े हो गये। मेरे जूड़े में गजरा लपेटते हुए…आहिस्ता से ये बोले , “ हैप्पी एनिवर्सरी रीना। "
मुझे लगा जैसे वक्त ने फिर से करवट ले ली है। कानों को विश्वास ही नहीं हो रहा था ।
“ इनके मुँह से निकली अप्रत्याशित, मधुर आवाज से मेरा दग्ध तन-मन पुलकित हो उठा। कुछ पल के लिए आँखों पर भरोसा ही नहीं हुआ ! मेरे सामने क्या हो रहा है! सारे शिकवे-शिकायत…प्रेम के प्रचंड आवेग में बह गये। मैं इनसे लिपट गई, इनके अधरों का स्पर्श हुआ। साँसों की गर्माहट से दिल में हलचल मचा दिया। हम अपने को रोक नहीं पाये। वर्षों से प्यासी धरती पर झमाझम बारिश शुरू हो गयी ।
दोनों दिलों की धड़कनें अब एक ही स्वर से कहने लगे, “ देखो, हमारी दग्ध होती बगिया फिर से हरिया गई है।"

