Arya Jha

Abstract

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गीता निवास

गीता निवास

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""सुनो! गीता निवास की जगह रंजना भवन कर दो ना! जो जीवित ही नहीं उसका नाम घर के ऊपर लिखे रहने का क्या मतलब है? रंजना आज फिर वही राग अलाप रही थी। 


"इस विषय पर हमारी पहले भी बात हो चुकी है। सब जानते हुए भी तुम ऐसी बातें क्यों छेड़ती हो?" अनिकेत ने दृढ़ स्वर में कहा।


 हर दो दिन बीतने पर अक्सर पति-पत्नी के बीच इस बात पर बहस हो जाती। 


गीता अनिकेत की पहली पत्नी थी और पहला प्यार भी। शादी के पाँच वर्ष बाद भी गोद सूनी रही और हर तरह के इलाज के बाद भी जब कुछ हासिल ना हुआ तो आखिरकार माँ की जिद्द पर वह पत्नी के गर्भाशय संबंधी एक मामूली ऑपरेशन कराने के लिए तैयार हो गया। याद है उसे, उस दिन घबड़ाई हुई पत्नी का हाथ थामे ऑपरेशन थियेटर तक साथ गया था। बाहर धड़कते दिल से उसके लौटने का इंतजार कर रहा था कि उसकी धड़कनें हमेशा के लिए बंद होने की खबर आई। उसके हाथों की गर्मी और निगाहों की मासूमियत अभी भी महसूस कर रहा था जबकि शरीर ठंढा पड़ चुका था। दो सालों तक आँखों में गीता को खोने का दर्द लिए भटकता रहा। जवान बेटे की ऐसी हालत देख कर जानकी जी ने उसकी दूसरी शादी कराने का निर्णय लिया। पूरे परिवार के दवाब के आगे अनिकेत की एक ना चली। अंततः उसने अपने हथियार डाल दिए।




रंजना बहुत प्रतिभाशालिनी थी। उसने जल्दी ही सबका मन मोह लिया था। कोई खाली था तो वह अनिकेत का मन था पर दो साल होते ही बेटे के जन्म ने उसके जीवन को फिर से महका दिया था। खानदान का वारिस आ चुका था। शादी के बाद सब कुछ ठीक चल रहा था मगर आने-जाने वालों के मुँह को कौन बंद कर सकता था। कभी ना कभी गीता की चर्चा हो ही जाती।


 


अनिकेत ने शादी के पहले ही रंजना के सामने सारी सच्चाई रख दी थी। पहली पत्नी गीता के प्रति जो स्नेह व सम्मान है वह भुला नहीं पाएगा। कहीं ना कहीं ये बातें रंजना के दिल में घर कर गईं। हालांकि अनिकेत ने उसे पूरा स्नेह दिया था फिर भी वह गीता की निशानियों को मिटाने के फिराक में लगी रहती। कोई कितनी भी समझदार क्यों ना हो पर जब पति की बात हो तो उसके प्यार पर एकाधिकार की चाहत होती ही है। दूसरी पत्नी होने के कारण उसकी अपनी असुरक्षाएँ थीं।अनिकेत रंजना के मनोभावों से अनभिज्ञ ना था। सूझ-बूझ से काम लेते हुए सुखी गृहस्थी का आनंद ले ही रहा था कि अब इस घर के नाम पर उठे प्रसंग ने वैचारिक मतभेद पैदा कर दिये थे। उनके झगड़ों को सुलझाने के लिए जानकी जी ने बेटे को समझाना चाहा।




"जो है इसी का तो है। तू गीता की जगह रंजना का ही नाम लिखा दे बेटा! छोटी सी बात के लिए कलह क्यों करता है?" जानकी जी बेटे से बोलीं।



"माँ! ये तो उसे समझना चाहिए। एक मृतात्मा से द्वेष रखने का क्या औचित्य है? एक इंसान जिसने इस घर की नींव रखी थी। धूप,ठंढ व बरसात की परवाह किए बिना मजदूरों संग मिलकर काम किया था। इस घर की एक-एक ईंट में उसकी रूह बसी है। मैंने एक नाम के सिवा उसे दिया ही क्या है?"



"रंजना ने हमें वारिस दिया है। तू इस बात से कैसे इंकार कर सकता है। आज सूने घर में किलकारियों की आवाज बस उसके कारण ही गूँज रही है। कम से कम इस बात का ध्यान कर और मकान पर रंजना-भवन लिखवा दे।"



"माँ ! वारिस की तुम्हारी जिद्द ने उसकी जान ले ली। हम साथ खुश थे ना! वह हाइपर टेंशन के कारण ऑपरेशन से डर गई थी। पहले बच्चे की जिद्द, फिर दूसरी शादी की जिद्द और अब ये मकान का नाम बदलने की जिद्द,बहुत हो गया। यह घर गीता ने अपनी पसंद से बनवाया था। मैं उसके साथ बेईमानी नहीं कर सकता। मेरे जीते जी यह गीता -निवास ही रहेगा। मैंने रंजना को समझा दिया है। तुम इन बातों को ज्यादा हवा मत दो।"




" सुन तो! रंजना तुम्हारा आज है,और गीता गुजरा हुआ कल! कल के लिए आज को कौन बर्बाद करता है?" 



गीता की आखिरी स्मृति मिटाने की सास - बहु की मिली भगत ने उसे बुरी तरह से तोड़ दिया था। उनकी एक सूूत्री योजना के आगे उसकी भावनाओं को समझने वाला यहाँ कोई नहीं था। हारकर वह चुप हो गया। बहु के पक्ष में दलीलें देती माँ व्यवहारिकता का पाठ पढा रही थीं। उसके गृहस्थी की उथल-पुथल शांत करने के चक्कर में उसके ही हृदय को समझने के लिए तैयार नहीं थीं। बहु को खुश करने की चाह में बेटे की अनदेखी हो गई। 




अगली सुबह घर में अफरा-तफरी मची थी। अनिकेत कहीं नजर नहीं आ रहा था। रंजना ने उसे कहाँ- कहाँ नहीं ढूँढा। सभी मित्रों व रिश्तेदारों के द्वार खटखटाये गये। दो दिनों के बाद वकील घर के कागजात साथ लाया था। साथ में एक पत्र भी था।




" मैंने अपने परिवार की खुशियों के लिए क्या कुछ नहीं किया।बदले में सिवाय कलह के मुझे कुछ भी नहीं मिला। मकान व बैंक के कागज रंजना के नाम पर ट्रांसफर कर दिये हैं। मैं उसके नाम की तख्ती के साथ शांति की तलाश में निकल रहा हूँ। मुझे ढूंढने की कोशिश ना करें!" 



घर-मकान व समस्त संपति रंजना के हवाले कर एक नाम को अपने हाथों में थामे अनिकेत हमेशा के लिए दूर चला गया था। रंजना को तो जैसे काठ मार गया था। खुशियाँ यूँ मुट्ठी की रेत सी फिसल जाएँगी ,उसने सपने में भी नहीं सोचा था। उसे जो कुछ जिंदगी से मिला था उसमें खुशी ना ढूँढ सकी। ज्यादा की चाह में अपनी बसी -बसाई गृहस्थी में अपने ही हाथों आग लगा कर,तन्हा रह गई। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत! 




अब घर से 'गीता निवास' की तख्ती नदारद थी। उसके निशान सारी भूली-बिसरी दास्ताँ सुना गृह-स्वामिनी को मुँह चिढाते थे। पूरे बीस साल से उदासियों ने इस मकान में डेरा डाल रखा था। रंजना की सूनी आँखों में अब बस अनिकेत का इंतजार था। उसे ना सही, अपने पुत्र को देखने की उत्कंठा में ही सही,भूला-भटका पथिक शायद घर लौट आए तो खाली स्थान पर गीता निवास की तख्ती लगा कर अपने हाथों हुए अपराध के लिए क्षमा माँग लेगी। इसी आस को मन में संजोये वह पति की राह देखती रही।



आर्या झा 

मौलिक व अप्रकाशित 


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