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Arya Jha

Inspirational

3.0  

Arya Jha

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बहु का मायका

बहु का मायका

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माँ "वाह बेटा वाह! दिल लगा चुड़ैल से तो परी भी क्या चीज़ है!' ये कहावत चरितार्थ कर दी तुमने। एक से बढ़कर एक अच्छे रिश्ते ठुकराकर तुमने उसे पसंद किया। याद रख! बिन सास वाले ससुराल में दामाद की कोई पूछ नहीं होती।"

"माँ! इसका दूसरा पक्ष भी देखो। बिन माँ की बच्ची है। तुम माँ बन जाना और वह बेटी बन जाएगी।"

"मुझे ना पढ़ाओ ये प्रेम का पाठ। तुम्हारी पसंद है तो तुम ही संभालना।" उन्होंने कहा। समीर ने सोचा कि माँ यूँ ही गुस्से में कह रही हैं। साथ रहते हुए नीरू के प्रति स्नेह ज़रूर उमड़ेगा। पंडित जी ने विवाह की तिथि निकाली और नियत समय पर सब संपन्न हो गया। नीरू भाई-बहनों में सबसे छोटी थी। उसके पग फेरे तक बहनें रूकीं, उसके बाद ना ही किसी ने बुलाया और ना ही वह गईं।

समीर के मुँह से उसके हँसते-खेलते परिवार की इतनी चर्चाए सुनी थीं कि विदाई पर एक बूँद आँसू ना गिरे थे। उसने हमेशा से ऐसे ही खुशहाल परिवार के सपने देखे थे। अब वही सपना सच होने जा रहा था। उसे अपना परिवार मिल रहा था, यह सोचकर बेहद प्रसन्न थी। बहुत जल्द आशा के विपरीत परिस्थितियां सामने आ गईं।

समीर के सामने खुशनुमा माहौल रहता, पर उसके ऑफ़िस जाते ही एक-एक पल काटना मुश्किल हो जाता। बस काम की बातें होतीं, सारी दोपहरी अकेली बैठे बिताती। एक कड़वाहट की दीवार थी जो सुभद्रा जी व नीरू के बीच बनी हुई थी। मुँह खोलतीं तो बस विरोध जताने के लिए, भले ही मुद्दे अलग-अलग होते। कभी प्रेम विवाह की बुराईयां, तो कभी कुकिंग के तरीकों पर उपदेश तो कभी मायके वालों की बेरुखी की चर्चा, मतलब साफ था कि इस रिश्ते को उन्होंने मन से स्वीकार न किया था। उसने एक-दो बार समीर से इस बारे में कहा भी, पर वह टाल गया। वह भी क्या करता? इस शादी के लिए घरवालों को मनाने में ही उसकी सारी उर्जा निकल गई थी।


दिन निकल रहे थे, पर दूरियाँ घटने का नाम नहीं ले रहीं थीं। मन में यही सब सोचती नीरू एक दिन सीढ़ियों से फिसल गई। दाहिनी पैर में फ्रैक्चर हुआ था। डाक्टरों ने तीन हफ्ते के लिए प्लास्टर चढ़ा दिया था। ऐसे में वह पूरी तरह से पराश्रित हो गई थी। ससुराल में काम करते हुए फिर भी वक़्त गुजरता है। अब मरीज बनने के बाद उसे दिन पहाड़ से लगने लगे थे। ऊपर से जब-तब रिश्तेदारों के फोन आते रहते। सासु माँ के मायके वाले भी उटपटांग सलाह दिया करते। आज भी उनका मायका आबाद था। उनकी ओर से हर तीज-त्यौहार में बुलावा आ जाता।

एक दिन सुभद्रा जी की माँ ने ये तक कह दिया कि नीरू को मायके भेज दो। अब क्या बुढापे में बहु की सेवा करोगी?" उनके लिये बड़ी दुविधा की घड़ी थी। एक ओर जहाँ बहु के आने से गृहस्थी से छुट्टी मिलनी चाहिये थी, वहीं जिम्मेदारियां बढ़ गई थीं। उन्हें फैसला लेना था, अपना मायका या बहु का मायका। बहु की भोली सुरत आँखों में नाच गई। जब आजतक वह अपनी माँ से मिलने की ललक रखती है तो भला नीरू के दिल पर क्या बीत रही होगी! दिल पसीज गया था, वह भी तो एक माँ है। उनकी बहु को माँ चाहिए, सास नहीं।

आख़िरकार उनके अंदर की सास को हराकर माँ की ममता जीत गई थी। अपनी माँ को फोन मिलाया और कहा कि "ये मेरी बहु का मायका है, वह यहीं आराम करेगी। जिसे मुझसे मिलने की उत्कंठा हो वह शौक से यहीं आ जाए। मेरी बहु के मायके में आप सबों का स्वागत है।"


उनके मुँह से यह सुनकर नीरू की आँखें भर आईं। इसी ममता के लिए वह महीनों तड़पी थी। समीर की बातें सच साबित हुई थीं कि देखना! एक दिन माँ भी तुमसे प्यार करने लगेगी।

महिनों के अंतर्द्वंद्व से सुभद्रा जी को विराम मिला था और नीरू को अपनी 'माँ।' समीर ने भी चैन की सांस ली थी, उसके विश्वास की जीत हुई थी। सबके हृदय में प्रेम ने घर बना लिया था।



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