पुरुष मन

पुरुष मन

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पुरूष मन


"नीला .....बत्ती जलाओ ना!मैं तुम्हे देखना चाहता हूँ!"दीपक की आवाज़ कुछ कमज़ोर पड़ती देख नीला की समझ में आ गया था ।

" देखना क्या है...बच्चे जग जाएंगे ....काफ़ी रात हो गयी है... सो जाओ!"बच्चों को संभालने व घर गृहस्थी की देख-रेख करने के बाद वह पति पर ध्यान कम ही दे पाती।

दीपक लिविंग रूम में आकर लैंप जला कर बैठ गया।दुनियादारी की भाषा में कहें तो सबकुछ अच्छा चल रहा है....बिल्कुल परफेक्ट! मल्टीनेशनल में फर्स्टक्लास की नौकरी ,बहुत प्यार करनेवाली पत्नी है और दो प्यारे बच्चे।फिर क्यों वो रात गए जाग रहा है ।क्यों रह -रह कर आत्मा धिक्कारती है।जब भी पूरे मन से नीला से मनुहार करता है और वह झिड़क देती है तब बरबस ही अंशिका याद आती है ।अंशिका उसकी गर्लफ्रैंड थी।

कॉलेज में सबने यही सोचा था कि दोनों प्यार में हैं तो पक्का शादी करेंगे ।खुद दीपक का भी यही ख्याल था।दोनों का एक दूसरे के प्रति आकर्षण भी जबरदस्त था ।दीपक की पहली नौकरी कॉल सेंटर में लगी ।उसकी नाइट शिफ्ट हुआ करती ।रात के दो बजे से सुबह के 10 बजे तक की।उसका ऑफ़िस अंशिका के घर से ज़्यादा दूर ना था।पूरी रात जागने के बाद उन दिनों कुछ अजीबोगरीब ख्याल आने लगे थे ।उसका बड़ा मन करता कि आंशिका से उसकी नज़दीकियां बढ़ें।एक दिन उसने उसे सुबह के वक़्त अपने ऑफिस में बुला लिया। 


दीपक ऑफिस में अकेला था ।पहली बार दोनों चारदीवारी के भीतर अकेले में मिल रहे थे ।दोनों का दिल जोरों का धड़क रहा था ...दीपक उसे बहुत नजदीक से देखना और महसूस करना चाहता था...अंशिका मना नहीं कर पायी ....प्यार करती थी ...दोनों का एक दूसरे के लिए समर्पण अनमोल था ....दीपक स्वयं को टॉप ऑफ द वर्ल्ड समझ रहा था।आज उसे प्रेमिका पूर्णरूपेण मिल गयी थी ।उस दिन के बाद उसने कभी जिद्द ना की पर धीरे -धीरे उसके व्यवहार में बदलाव आने लगा....अंशिका के प्रेम व समर्पण पर प्रश्न उठने लगे ...क्यों वह आसानी से मिल गयी ...कहीं ऐसा तो नहीं ...वैसा तो नहीं ...तमाम प्रश्न जो एक पुरुष एक बोल्ड स्त्री की लिए सोच सकता है ।उसने सब के सब सोच डाले ।

अंशिका खुद हतप्रभ थी कि जिससे इतना प्यार किया वह अचानक बदल कैसे गया।उसने कुछ दिनों तक काफ़ी कोशिश की कि सब पहले जैसा हो जाए पर जब दीपक की तटस्थता कम ना हुई तो वह समझ गयी कि दीपक मेंटली सिक हो गया है.....पुरानी सोच रखता है और उसपर वक़्त बर्बाद करना बेकार है।उसने अपनी नौकरी की तलाश को तेज़ कर दिया और दूसरे शहर में नौकरी लगते ही शिफ्ट हो गयी।

 आज उसे रह-रह कर अंशिका याद आती रही ...उसके एक अनुरोध पर अंशिका ने जिसपर उसका कोई इख्तियार ना था ... बस प्रेम के वशीभूत स्वयं को समर्पित कर दिया था जबकि जिसपर उसका हक़ है उसने कई बार उसके अनुरोधों को युहीं टाल दिया.....उसके अरमानों को सुनना -समझना तो दूर ,उल्टे उसकी गुज़ारिशों को नज़रअंदाज़ करती रही।एक सरल हृदयी लड़की के साथ उसने ग़लत किया था....एक समर्पिता प्रेमिका के चरित्र पर उंगली उठा कर उसने अक्षम्य अपराध किया था ....पछतावे के सिवा उसके पास और कुछ शेष नहीं था।


वह कितना स्वार्थी निकला।अपनी प्रेमिका के प्रति वफ़ादारी ना निभा सका।ग़लत वो था ....अपनी खुशियों के लिए सीमाएं लांघने में बिल्कुल ना हिचकिचाया... सारा दोष मासूम लड़की पर ना केवल मढ़ डाला बल्कि उसे अपनी ज़िंदगी से दूर भी कर दिया।आज कहने के लिए कोई कमी नहीं पर कितना अकेला है वो...जो उसकी इच्छा अपने सर -आंखों पर लेकर न्योछावर हो गयी थी...उसको दुखी करने वाला आज स्वयं के नज़रों में गिरा हुआ महसूस कर रहा है।ठीक ही हो रहा है उसके साथ ...वह इसी का हक़दार है।

सच !पुरूष मन भी कितना विचित्र है .....जो मिल गयी तो इस बात की परेशानी कि आसानी से क्यों मिल गयी? उनकी इच्छाओं के आगे अगर साथी ने घुटने ना टेके तो पुरुषत्व आहत होता है कि मैं ही क्यों हर बार झुकूँ....?


आर्या झा


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