मतलबपरस्ती
मतलबपरस्ती
" तू मेरी चिंता मत कर रानू। नेहा मेरा बहुत ख्याल रखती है और अभिषेक तो बिस्तर से पांव नीचे नहीं रखने देता।"
"अरे नहीं माँ! ये कैसे संभव है? बच्चे के जन्म के समय का व्यवहार भूल गई ? कैसे भाभी, भैया और बस अपनी माँ के लिए कुक से खाना बनाने के लिए कहतीं थीं।"
"हाँ भूल गई हूँ और तू भी भूल जा। समय के साथ ही परिपक्वता आती है। आजकल नेहा ऑफिस से घर आते ही सीधे रसोई में जाकर चाय बना लाती है। गर्म रोटियाँ सेंक कर खिलाती है। एक सास को और क्या चाहिए। उसके बदले हुए रूप अगर तू देखती तो तू भी दंग रह जाती।"
"ना बाबा! मुझे नहीं देखना। अपने छः माह के बच्चे के साथ भतीजे को देखने पहुँची थी। पहुँचते ही भाई ने वापसी का प्रोग्राम पूछा था। वही भाई जो मेरी आने की राह ताका करता था।"
"अरे तो क्या हुआ? अब उसका भी परिवार है। इतनी समझ तो हमें भी रखनी होगी।"
"मैं उन्हें अच्छी तरह समझ चुकी हूँ माँ। मेरी गोद से अयान को तुम्हारे पास देकर मुझे जो अपनी रसोई का रास्ता दिखाया कि जॉर्जिया लौटने के बाद ही मुझे आराम मिला। जब मैंने कहा कि कुक से सबका खाना बनवा लें तो कहने लगीं कि अपने घर में तो करती ही होंगी। अपना और मम्मी-पापा का बना लीजिएगा। अब तुम बताओ कि अठारह घंटे के लंबे सफर के बाद, उनके इस बर्ताव पर मैं क्या समझ रखूं ?"
शांता जी निःशब्द हो गईं। बेटे-बहु के व्यवहार से वाकिफ़ तो थीं ही। सब याद था पर पोते के मोह में सब भुला कर उसके बचपन का आनंद ले रही थीं। बहु के डिलीवरी के समय समधन थीं तो उनकी कोई पूछ ना थी। इन दिनों उनकी तबीयत ठीक नहीं है तो उसकी फ्लाइट टिकट बुक करवा कर बुलाया। बेटी की एक-एक बात सच होते हुए भी बेटे-बहु पर बहुत प्यार उमड़ता। सब भुला कर खुशी-खुशी रह रहीं थीं कि एक दिन ऑफिस से आते ही अभिषेक ने उनके हाथों में वापसी की टिकट रख दिया।
"हम तो जाड़ा यहीं बिताने की सोच रहे थे बेटा ! अपने तरफ बड़ी ठंढ होती है।"
"कोई नहीं मम्मी, कितने दिन अपना घर-द्वार छोड़ कर रहोगी? ऊपर से नेहा के मम्मी-पापा आ रहे हैं। तुम्हें तो पता है ना, बड़े शहरों के मेड और कुक के कितने नखरे होते हैं।"
"समझ गई बेटा! तुम्हारा काम निकलते ही अब मैं इस घर के फालतू चीज़ों में शामिल हो गई। रानू ने ठीक ही कहा था। मैं ही नहीं समझ सकी। नए जमाने के लोग एक दूसरे को बखुबी पहचानते हैं।