Arya Jha

Others

4.3  

Arya Jha

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इश्क और समाज

इश्क और समाज

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"वो तेरी तरह मुझे छोड़ कर कभी नहीं जाती!"

"इसलिए हमेशा के लिए तुम्हे छोड़कर चली गयी!"

"उसकी कोई मज़बूरी रही होगी"

"अक्लमंद निकली, किसी अमीर आदमी की बीवी बन कर ऐश कर रही होगी!"

एक तीर सी चुभती बात निकली और.........तड़ाक!

जब भी उसे छोड़कर जाती सिद्धार्थ ताने देता और फिर यही होता। जैसे ही सिद्धार्थ का पीना शुरू होता इससे पहले की बात और बढे वह अपनी मम्मी के पास चली जाती। उनके बेटे की जिम्मेदारी नानी ने ही सम्भाली। एक ही शहर में होने के फायदे थे। माँ-बेटे का काम तो चल जाता पर अकेलेपन मेंं घिर कर सिद्धार्थ और पीने लगता। उससे अकेला ना रहा जाता, वह तो हमेशा से दोस्तों से घिरे रहने वाला प्राणी था।

"जा रही हो तो जाओ, पर जाते-जाते सुनती जाओ कि उसका नाम लेने का हक़ तुम्हे नहीं! उसके सामने तुम कुछ भी नहीं!" जैसे-जैसे नशा चढ़ता वह उसके प्रेम में आकंठ डूबता जाता। ऐसे में शराब सर चढ़ कर बोलती।

"अकेले रहो!यही तुम्हारी सज़ा है जो पहले ही छोड़ गई उसका नाम लेकर लड़ते रहो। मुझसे शादी क्यों की, जब उसे भूल ही नहीं पाए थे।" देखते ही देखते शैली आँखों से ओझल हो गयी। वह सोचने लगा आखिर क्यों की थी उसने शादी? शायद उसमें मैथिली की झलक पाता था। वह शैली में मैथिली को ढूंढ रहा था। यही तो उसके निराशा की सही वज़ह थी। सोचते -सोचते आँखें लग गईं। सुबह जगते ही खाली घर काटने दौड़ रहा था। क्यों करता था ये सब ? क्या मिलता है उसे? अभी शैली को लेने ससुराल जाए ?नहीं ...खुद गयी है तो उसे खुद ही आना होगा.... पर थप्पड़ नहीं चलाना चाहिए था ....रात में उसे कहाँ होश था...गलती उसकी भी थी । फिर सोचने लगा कि क्या शैली की ग़लती नहीं थी । उसे अच्छी तरह पता है कि मैथिली उसका पहला प्यार ही नहीं बल्कि उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है !आज वो जो कुछ भी बन पाया और जो ना बन पाया सबके पीछे वही है।आख़िर उसे हासिल करने के लिए ही तो मेहनत की थी। उसे ही दिलोजान से चाहा था। उसका नाम उछाल कर शैली ने जानते -बुझते ग़लती की थी। हृदय व दिमाग़ लड़ने लगे। अब भी दिल के अंतरंग क्षेत्र में आधिपत्य जमाए मैथिली बैठी थी पर दिमाग़ तो शैली के पक्ष में था। पत्नी है वो। अपने पति के मुँह से किसी और की तारीफ़ भला कैसे सहे ? ठीक है ऑफिस से लौटते वक़्त उसे लेता आएगा। कुछ ऐसे ही जीवन नैया पार लग रही थी। शैली आज के ज़माने की आधुनिक कन्या थी। जिसे बचपन से ही ऐशोआराम की आदत थी। अपनी पढ़ाई -लिखाई के आलावा और किसी बात से कोई लेना -देना ना था । तभी तो उसके घरवालों को उसके पसंद की शादी से कोई आपत्ति ना हुई। मम्मी की लाड़ली थी अब पति की लाडली रहेगी । घर के काम काज के लिए कुक व मेड होंगे । शुरुआत में इतनी तनख्वाह कहाँ होती है कि नौकर -चाकर लगा लेते । काम को आराम से करने की उसकी आदत के कारण अक्सर ऑफिस भी लेट ही पहुँचती।उसके लिए भी यही आसान था कि वह मायके से ही ऑफिस जाए। हाँ !ये जरूर था कि इन सब बातों में सिद्धार्थ की तन्हाई बढ़ रही थी। ऐसे में शराब और मैथिली यही उसके साथी थे। सिद्धार्थ क्यों परेशान था इस तरह से किसी ने सोचा ही नहीं !तीन -चार दिनों तक पीता हुआ जब होश में आता तब बीवी -बच्चे को लाने सही पते पर पहुँच जाता। प्यार कम तो नहीं था पर हाँ एक गलती जरूर थी उसकी। जब -तब वो शैली की तुलना मैथिली से कर बैठता। मैथिली उसकी जिंदगी का वह अधूरा ख्वाब थी जिसे अपने पलकों में बसाए फिर रहा था। आज भी उसे अच्छी तरह याद है वो भोली सूरत वाली चंचल सी मैथिली को उसने पहली बार फ्रेशर पार्टी में देखा था । सबसे अलग थी वो साँवली -सलोनी लड़की । कभी तेज़-तर्रार तो कभी मासूम छोटी बच्ची सी। जाने कितने ही रूप थे उसके। अनजानों के लिए कड़ा रुख़ और दोस्तों के लिए मोम सी। उसके साथ जो जैसा होता ,वो वैसी ही ढल जाती थी।   मैथिली को सुंदर नहीं कह सकती पर स्मार्ट बहुत थी। गर्ल्स कॉलेज में तो उसकी तूती बोलती थी। हाँ !यूनिवर्सिटी में आने के बाद थोड़ी शांत जरूर हो गयी थी।जहाँ देखो लोग दोस्ती का हाथ बढ़ाते नज़र आते तो वह एक कदम पीछे हट जाती पर सिद्धार्थ के प्रस्ताव को ठुकरा ना सकी। लोग प्यार को सबसे बड़ी खुशी मानते हैं। शायद वो पहली लड़की थी जो प्यार को खो ना दे इस चिंता में उदास थी। किसी ने उनके प्यार की बात मैथिली के माता-पिता को बता दी। बस सभी पीछे पड़ गए। उसकी बातों को समझने के बजाए सबने अपने -अपने अंदाज़ में उसे ,उसकी चाहत से दूर करने युक्ति लगाई। बीस की उम्र में ही बिछोह का दर्द देखना पड़ा। कहते हैं ना कि हमारी सोच हमारे भविष्य की निर्धारक होती है।उसके डर ने उससे उसकी खुशियाँ छीन लीं। दो निर्दोष हृदय जो एक दूसरे को खोने के डर से बंधे थे उन्हें उसी डर रूपी सर्प ने डसा था। सिद्धार्थ का पहले साल का यू पी एस सी का रिजल्ट आया । प्रिलियमस भी ना निकल पाया था। पढ़ने का वक़्त ही ना मिला था। वह उसकी सफलता का कारण बनना चाहती थी ना कि असफलता का, इसलिए वह हाॅस्टल से घर आ गई। जब संवाद मौन हो जाये तो भावनाएं भी शांत होने लगती हैं।इनके आपस मे किसी तरह की कोई बातचीत पर कड़ा पहरा था। फोन व पत्रों पर भी रोक था । वह उसके गाये गीतों की तरन्नुम में उसे ढूँढा करती। इसके ठीक विपरीत सिद्धार्थ को बस उसकी आलोचनाएं ही सुनने में आतीं। "पढ़ने वाले विद्यार्थी थे ,लड़की के चक्कर मे बर्बाद हो गए।" यूनिवर्सिटी में ऐसी बातें आम थीं।खून का घूँट पी कर रह जाता सिद्धार्थ । किस -किस का मुँह बंद करता। घर में भी वही बातें होतीं। मैथिली को कोसते लोग यही सोचते कि उसके दर्द पर मरहम लगा रहे हैं पर कहीं ना कहीं उसके घावों को कुरेद कर असफलताएं ही याद दिलाते थे। क्या सचमुच मैथिली अपराधिनी थी? यूनिवर्सिटी के साथी और सिद्धार्थ के परिवार वाले सभी उसे ही गलत ठहरा रहे थे । क्या सचमुच सारी गलती उसकी थी। उसके कानों में सिद्धार्थ की कही बातें गूँजती। "कितनों को प्यार नसीब होता है। कई बार लोग एकतरफ़ा मोहब्बत करते हैं।जबकि हम दोनों ही प्रेम में हैं । कोई दिक्कत तो नहीं आनी चाहिए।" ये दुनिया इतनी सरल कहाँ सिद्धार्थ .....अक्सर बड़बड़ाती हुई ....रोते-रोते ही सोती....कभी माँ आकर खिला जातीं तो कभी यूँही पड़ी रहती।

क्या उसने सिद्धार्थ को पाने की कोशिश नहीं की होगी? बल्कि उसने वह सब किया जो कर सकती थी। वह भी तो प्रेम दीवानी थी। माता-पिता से मान-मनुहार कर जब पूरी तरह थक गई तब बहन -भाईयों से मदद माँगी। मगर किसी ने साथ ना दिया। उस मौके पर सब अपने स्वार्थ में लिप्त थे। सब उससे छोटे थे और आर्थिक रूप से माता -पिता पर आश्रित भी।

 जितना प्यार सिद्धार्थ करता था उससे, उतना ही परिवार वाले करते थे अपने सम्मान से। तभी तो उसकी हालत देखकर किसी को उसपर दया ना आई। अगर उसने घरवालों की नहीं सुनी तो सिद्धार्थ को जान से हाथ धोना पड़ेगा। यह धमकी सुनते ही सहम गई और इसी बात का फायदा उठाकर उसके हाथ पीले कर दिये गये। अपनी चाहत दरकिनार कर समझौता कर लिया। पाकर फिर खो देने से दोनों का जीवित रहना बेहतर समाधान था। इन्हीं दिनों एक दिन एक रजिस्टर्ड चिट्ठी घर आई ।सिद्धार्थ के मोतियों से अक्षर दूर से ही पहचान गयी थी। उसकी मेहनत रंग लाई थी । आईएएस के लिए सेलेक्ट हुआ था। हर ओर खुशी की लहर थी और उसका मन बस मैथिली के इर्द -गिर्द घुन रहा था। कागज कलम लेकर एक चिट्ठी मैथिली के पिता के नाम लिख डाली कि "मैं आपकी बेटी के योग्य बन चुका हूँ। कृपया हमें सदा के लिए मिला दें।" मैथिली व सिद्धार्थ के पिता आपस में मिले हुए थे। उन्हें मिलाना नहीं था बल्कि उन्होनें ही साज़िश रची थी। झूठमूठ ही बेटे से पूछते,"मैथिली के पिता की ओर से कोई संदेश आया क्या?" मायूस सिद्धार्थ जब 'ना' में जवाब देता तो चैन की सांस लेते आखिर अपनी योजना में कामयाब रहे। उन्होंने ही तो मैथिली के पिता को आश्वस्त किया था । आप जहाँ इच्छा हो वहाँ यथाशीघ्र बेटी को ब्याह दें। हमारी ओर से कोई परेशानी नहीं होगी। इन सब घटनाओं में उनकी विजय और उनके बेटे की पराजय हुई थी एक बार फिर से एक अनारकाली चुनवा दी गयी थी। एक और सलीम फिर से एक बादशाह अक़बर से हार गया था। इसी बीच सिद्धार्थ के ट्रेनिंग के ज्वाइनिंग ऑडर आ गए थे। फिर सही अवसर देख , उन्होंने ही बताया कि मैथिली के पिता ने उन्हें धोखा दिया। बेटी की शादी अपनी बिरादरी में कर दी। सिद्धार्थ बहुत रोया था उस रोज़। उसकी मैथिली ऐसा नहीं कर सकती, यह अच्छी तरह से जानता था पर उसके पूलिस अधिकारी पिता कुछ भी कर सकते हैं, यह भी मानता था। ऐसे में पिता के द्वारा मिली सूचना यही जताती थी कि अब इन सब को भुला कर अपने सुनहरे भविष्य को देखना होगा। सिद्धार्थ की ट्रेनिंग शुरू हो गयी थी। यहीं से जीवन में बड़ा बदलाव आया। उसके जीवन मे एक बेहतरीन मित्र का प्रवेश हुआ। वह भी आईएएस के लिए सेलेक्ट हुई थी। पहले दोस्त बनी। उसका भोलापन ,निश्छल हँसी मैथिली की याद दिलाती। उससे घंटों अपने दुख साझा करते हुए दोनों की नज़दीकियां बढ़ने लगी। एक रोज़ सभी पिकनिक के लिए गए तो इनकी गाड़ी भयंकर दुर्घटना का शिकार हुई। सिद्धार्थ गम्भीर रूप से जख़्मी हो गया। तीन महिने तक बेडरेस्ट में रहना पड़ा। जिंदगी वापस ट्रैक पर लाने में शैली का बड़ा योगदान रहा। इसी दरम्यान दोनों और क़रीब आये। बेशक़ वही वो लड़की थी जिसने मैथिली की कमी पूरी की थी। होनी को कौन टाल सकता था। उन्होंने एक-दूसरे को उनके अतीत के साथ स्वीकार किया । घरवालों की इजाज़त से शादी भी हो गयी। इंसान जिस चीज़ से जितना पीछा छुड़ाए वह और उसी भँवर में फंसता जाता है। शादी के बाद उसे मैथिली व शैली दो अलग लोग लगने लगे। मैथिली को वह भुला नहीं पा रहा था। जब कभी पी लेता गाहे -बगाहे अतीत वर्तमान पर भारी हो जाता और फिर वही सब ,घर छोड़ कर जाअलार्म बजा।अरे !ये क्या ? आज पूरी रात आँखों में कट गई। दफ्तर जाने का टाइम हो गया। जो भी हो अब तय कर लिया है कि शैली को मना कर वापस लाएगा और उससे कभी नहीं लड़ेगा। उसे किसी तरह की तकलीफ़ नहीं होने देगा। कहते हैं ना मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। उसने तब सम्भाला जब उसके परिवार वाले भी छोड़ चुके थे। उससे बेहतर इंसान कहाँ मिलता। टूटा हुआ था तब सम्भाला है शैली ने । शैली क्षुब्ध बैठी थी। उसने तय किया कि जबतक वह अपने अतीत को भूलेगा नहीं वह साथ नहीं आएगी। पुराने दोस्त ,पुरानी बातें और पुराने रिश्ते सब छोड़ना था साथ ही शराब भी। अब उसने भी इस मृगमरीचिका से मुक्त होने की ठान ठान ली थी। आखिर क्या करता? अपने ही हाथों अपने जीवन को कितना बर्बाद करता। उसने शैली की सभी शर्तें मान लीं । उसे पता था कि शैली है तो जीवन है ....वह नहीं तो कुछ भी नहीं! सही ही कहती है शैली कि उसके वर्तमान में मैथिली नहीं है .....कहीं भी नहीं!

सच्चाई तो ये है कि मैथिली है। दिल पर सबके अपराधबोध लेकर जीती हुई आखिर दुनियां में तो है। मायके वाले गलत समझते क्योंकि उसने प्यार किया था। शादी के दस वर्ष बाद भी अपनी गृहस्थी में रमी नहीं क्योंकि उसके अपराध-बोध ने उसे रिश्तों में बँधने नहीं दिया। प्यार निभा ना सकी इसलिये सिद्धार्थ व उसके घरवाले उसे गलत समझते रहे। खुद की सच्चाई अपने ही अंदर समेटे लोगों की नज़रों में एक झूठ का जीवन जीती हुई बस जीये जा रही थी । आख़िर कब तक घुटती?

 इस लोकतांत्रिक देश में बंदी प्रत्यक्षीकरण का अधिकार है तो क्या उसे अपनी बात कहने का मौका नहीं मिलेगा ? पर कैसे ? कुछ भी हो । अपनी बात कहने का हक़ उसे भी है। परिवार के एक शादी के फंक्शन में शरीक होने के साथ-साथ अपनी दुविधाओं से बाहर आने की सोचकर वह बनारस गयी। हर उस स्थान पर, उन स्मृतियों में अपने सवालों के जवाब ढूंढे जहाँ दोनों साथ बैठा करते थे। दिल में एक ख्वाहिश जन्म ले रही थी। क्या पता नसीब उसे एक बार फिर सिद्धार्थ से मिला दे। अबकी हाथ जोड़ कर अपने किये की माफी माँग लेगी। अतीत की अग्नि में कबतक जलेगी? आखिर खुशियों पर उसका भी कुछ हक है। यही सब सोचती भटकती रही। विश्विद्यालय, गंगाघाट,काशी चाट भंडार ,ललिता कैफे होती हुई संकटमोचन पहुँची। बाबा विश्वनाथ के दर्शन कर वापस जाने का प्रोग्राम था। वही चिर-परिचित गली ,वही फूल प्रसाद बेचने वाली दुकानें देख फिर बीती बातों में उलझ गई। यहीं उसने कहा था कि "बहुत बोलते हो ?थोड़ी देर चुप रहने का क्या लोगे?" और वह बिल्कुल चुप हो गया था। "पता है ये सोने की पत्तियां हैं पूरी गुम्बद के चारो ओर...." "फिर ये चोरी नहीं होतीं डैड ?" "पुलिस का पहरा रहता है देखो उधर।" वही आवाज़ ...सहसा कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। भागकर ऊपर पहुँच गयी। ओह! ईश्वर ने ही मिलाया था, पहले भी और अब भी। एक बाप -बेटे नज़र आये। एक पल को जैसे संसार थम सा गया था। पहचानते ही चेहरा लाल पड़ गया। धड़कते हृदय ने पैरों को जड़वत कर दिया। बामुश्किल खुद को संभालते हुए थरथराती आवाज़ निकली। "आप... यहाँ?" "हाँ! बेटे की छुट्टियाँ थीं तो मम्मी-पापा से मिलाने ले आया।" एक दूसरे का हाल-चाल लेने लगे तो बेटे ने बड़े ही उत्सुकता से पिता से पूछा "क्या आपकी इनसे शादी हुई थी?" जैसे बच्चे ने चेहरे के सारे भाव पढ लिए हों। "नहीं बेटे! हम क्लासमेटस थे!" सिद्धार्थ ने पहली बार परिचय छुपाया था। गौर से चेहरे की ओर देखा। बिल्कुल बदल गया था वह, काफी संयत और मर्यादित दिख रहा था। अब वह उसका नहीं किसी और का हो चुका था। जिसकी जीती जागती खूबसूरत निशानी उसके साथ थी। यहीं पर उसकी तलाश खत्म हो गई थी। आजतक जिसे ढूंढ रही थी वो उसका 22 साल का युवा प्रेमी था। जिसके मन व वचन में अंतर ना था। मगर जो मिला वह एक प्रतिष्ठित उच्च अधिकारी था। जिसे अपनी व अपने परिवार के सम्मान की रक्षा करनी थी। मैथिली जिस रिश्ते की खोज में जी नहीं पाई। उन रिश्तों के चोलों को पीछे छोड़ वह आगे बढ़ चुका था। अब पहले सी नमी नहीं थी कहीं। सूखी भावना विहीन आँखों में कुछ भी शेष नहीं था। तुरंत सहचर के पनीले नयन याद आ गए। यहाँ कुछ ना धरा है मैथिली....पति के प्रेम पर अधिकार छोड़ मृग-मरीचिका में भटक रही है। वापस लौट जा! खुद को समझाती हुई भारी मन से कदम उठाती वह एयरपोर्ट पहुँची। तभी टैक्सी ड्राइवर ने छुट्टे लौटाते हुए एक पर्ची पकड़ाई। " प्यार में जीयो मैथिली.....अपनों के प्यार में! मैं भी वही कर रहा हूँ!" 

सिद्धार्थ की लिखावट थी, उसके संदेश में सबकुछ था। उसने उसकी उदासी भाँप ली थी। उसे पढते ही दिल से सारे बोझ हट गए थे| अमूमन स्त्री प्रेम को प्रेम समझती है। पुरुष प्रेम को कर्तव्यों से जोड़ता है। जिसने उनके संंग सात वचन लिए और निभाए वही उनका आज है और कल भी। प्रेम पाने का नहीं अपितु देने का नाम है। दोनों ने एक-दूसरे को अपने अतीत से आजादी दे दी थी। पक्षी अपने-अपने घोसलों की ओर उड़ चले थे।



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