पर उपदेश कुशल बहुतेरे

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

3 mins
686


मिन्नी, मिन्नी की आवाजें जैसे हर ओर से आ रही थीं। "अरे भाभी! एक और ब्रेडरोल है क्या? बहुत टेस्टी बनाया आपने!" "मिन्नी भाभी कहाँ हो आप? आपसे कोई मिलने आया है!" "सुबह से कहाँ थी बेटा? कुछ देर हमारे साथ भी बैठो।"

उफ़्फ़! कानों से टकराकर लौटती इन आवाज़ों में कितना प्यार-अनुराग लिपटा है, पर अब बस खामोशी सी पसरी है। कोई नहीं बुलाता। कोई शोर है तो बस टीवी का, जो हर कमरे में अलग-अलग चैनल चलने के कारण आ रहा है। तब एक ही टीवी चलता था, पर सबकी बातचीत के आगे वह भी कम ही सुन पाते थे। कितना कुछ बदल गया इन बाईस सालों में! बड़ी बहू, इकलौती ननद व पाँच देवरों की पहली भाभी यानि 'मैं' इनके स्नेह से ऐसी बंधी थी कि मायका भूल गई थी।

अब ज़्यादातर लोग नौकरी के सिलसिले में बाहर सेटल हो गये हैं। खास मौकों पर ही मिलना हो पाता है। कुछ अपने हैं और कुछ नहीं रहे जिनकी यादें हमें यहाँ तक खींच लाती हैं। इन दरों-दीवारों में जाने कितने किस्से और कितनी हँसी ठिठोलियाँ बसी हैं, जिन्हें याद कर आज भी हम सब हँस पड़ते हैं। अब कोई नहीं कहता कि आओ, बैठो! जैसा नानी सास कहा करती थीं। फिर भी इस घर-आँगन से बंधी मैं हर कोने से बातें कर रही हूँ। आँगन का वह दशहरी आम का पेड़ जितना मीठा, उतना ही छायादार भी। सच! हमारे बड़े भी तो ऐसे ही थे। जड़ वे थे, हम सारे वृक्ष के तने और हमारे बच्चे फूल पत्ते। बच्चे पढ़ाई में व्यस्त हो गए हैं और बड़े अपनी उलझनें सुलझाने में, पर जो सबसे बड़ा बदलाव आया वो सबसे छोटे देवर जी के स्वभाव में आया।


शादी के आरंभिक दिनों में मैं काफी लापरवाह सी थी। सबका अति स्नेह पाकर मस्त रहा करती। पतिदेव का भी वही हाल था। अपने घर में सबसे बड़े व लाडले थे, तो कुल मिलाकर ससुराल कम और मायके वाली फ़ीलिंग ज्यादा आती। बस सबसे छोटे देवर से बात करते ही यह ध्यान आता कि मैं ससुराल में हूँ। मेरी जिम्मेवारियां बताना, गलतियों पर टोकना, सही-ग़लत समझाना, हर छोटी-बड़ी बात पर नज़र रखना, बस उन्होंने ही किया। वह कहते और मैं सुनती, आख़िर कहने-सुनने का हक़ उन्हें मैंने ही तो दिया था। वैसे तो बुरा नहीं लगता था, पर हँसने-हँसाने के दरम्यान आँखें भर आने वाली कुछ यादें अब भी मानस पटल पर अंकित हैं। ससुराल के नाम पर किसी का शासन था तो उनका ही था।

इतने सालों में भारी बदलाव के रूप में इस बार कुछ अलग ही देखने के लिए मिला। अब ससुराल के नियम धाराशायी थे। बहुओं को उनके कर्तव्यबोध कराने वाली कक्षा हमेशा के लिए सस्पेंड हो गयी थी। बल्कि उन्हें देख कर लगता था जैसे उनके होंठ सिल गए हों या फिर उनके ज्ञान धरे के धरे रह गए। मुझे शादी के शुरुआती दिनों में परेशान देख कर मौसी ने सही ही कहा था, "तू बड़ी है ना इसलिए तुझ में कमियाँ दिख रहीं हैं। दूसरी-तीसरी को आने तो दे। तेरे गुण नज़र आने लगेंगे।" और वही हुआ। अब मैं सबकी फेवरेट 'भाभी नम्बर- वन' बन गई हूँ।

व्यवहारिक तौर पर अच्छा ही हुआ। भाभियों पर शासन करने वाले देवर जी स्वयं शासित हो गए थे। सच है! कोई कितनी भी शेखी क्यों ना बघार ले पर शादी के बाद तो अच्छे-अच्छे शेर भी ढेर हो जाते हैं। 



Rate this content
Log in